• प्रश्न :

    भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भूमि क्षरण तथा मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारणों एवं परिणामों का परीक्षण कीजिये। इसके साथ ही धारणीय भूमि प्रबंधन प्रथाओं हेतु रणनीतियाँ बताइये। (250 शब्द)

    10 Jun, 2024 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भूमि क्षरण को परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • भूमि क्षरण एवं मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालिये।
    • भूमि क्षरण एवं मरुस्थलीकरण के परिणामों पर गहनता से विचार कीजिये।
    • स्थायी भूमि प्रबंधन के लिये रणनीति बताइये।
    • भारत में भूमि क्षरण तटस्थता लक्ष्य का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भूमि क्षरण से तात्पर्य मृदा, वनस्पति एवं जल संसाधनों सहित भूमि संसाधनों की उत्पादक क्षमता में क्षरण या हानि से है।

    • यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें भूमि के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों का क्षरण होने से विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं तथा मानवीय गतिविधियों को सहारा देने की इसकी क्षमता में कमी आती है।

    भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारण (क्षेत्रानुसार):

    • शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र (राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र के कुछ भाग):
      • अतिचारण: पशुओं द्वारा होने वाली अत्यधिक चराई से वनस्पति आवरण नष्ट हो जाता है, जिससे मृदा, वायु एवं जल से होने वाले कटाव के संपर्क में आ जाती है (उदाहरण के लिये राजस्थान में थार रेगिस्तान का बकरियों द्वारा अत्यधिक चराई के कारण विस्तार हो रहा है)।
      • वनों की कटाई: ईंधन एवं इमारती लकड़ी के लिये पेड़ों की असंतुलित कटाई से मृदा की नमी कम होने से वायु द्वारा इसके कटाव में वृद्धि हो जाती है (उदाहरण के लिये अरावली पहाड़ियों में वनों की कटाई से मृदा की उर्वरता कम होने के साथ आस-पास के क्षेत्रों में धूल भरी आँधी आती है)।
      • जलवायु परिवर्तन: अनियमित वर्षा प्रतिरूप, बढ़ता तापमान तथा सूखे की बढ़ती आवृत्ति से बंजर भूमि का का विस्तार हो रहा है (उदाहरण के लिये महाराष्ट्र में अनियमित मानसून से फसल की पैदावार और मृदा की नमी प्रभावित होती है)।
    • दक्कन का पठार (महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना के कुछ भाग):
      • लवणीकरण: उचित जल निकासी के बिना नहर सिंचाई के अत्यधिक उपयोग से मृदा की लवणीयता में वृद्धि होने से यह खेती के लिये अनुपयुक्त हो जाती है (उदाहरण के लिये आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में लवणीकरण की समस्या में वृद्धि हुई है)।
      • खनन गतिविधियाँ: खनन से मृदा की प्राकृतिक संरचना में असंतुलन होने से मृदा प्रदूषित होती है (उदाहरण के लिये झारखंड के झरिया कोयला क्षेत्रों में भूमि का अवतलन हुआ है)।
    • हिमालयी क्षेत्र:
      • गैर-टिकाऊ पर्यटन प्रथाएँ: अनियंत्रित पर्यटक आवागमन तथा बुनियादी ढाँचे के असंतुलित विकास से मृदा का क्षरण होता है (उदाहरण के लिये, जोशीमठ भूमि अवतलन)।
      • जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों में कमी आने से जल विज्ञान चक्र बाधित होता है, जिससे जल की उपलब्धता प्रभावित होती है (उदाहरण के लिये हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से गंगा एक मौसमी नदी बन सकती है, जिससे गंगा के मैदान में कृषि को खतरा हो सकता है)।

    भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण के परिणाम:

    • कृषि उत्पादकता में कमी: मृदा की उर्वरता और आर्द्रता में कमी से फसल की पैदावार कम होती है, जिससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है।
    • जल की कमी: भूमि क्षरण से भू-जल पुनर्भरण में कमी आती है, जिससे पीने और सिंचाई के लिये जल की कमी होती है (उदाहरण के लिये हाल ही का बेंगलुरु का जल संकट)।
    • जैवविविधता का नुकसान: भूमि क्षरण से पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होने से जीवों के आवास का नुकसान होता है तथा प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं (उदाहरण के लिये भारत में मरुस्थलीकरण के कारण गुलाबी सिर वाली बत्तख और सुमात्रा गैंडे विलुप्त हो गए हैं)।
    • पलायन में वृद्धि: भूमि क्षरण के कारण बेहतर आजीविका की तलाश में लोग शहरी क्षेत्रों में पलायन करने के लिये मजबूर होते हैं (उदाहरण के लिये मृदा के कटाव तथा जल की कमी के कारण ओडिशा के गाँवों से पलायन में वृद्धि हुई है)।

    धारणीय भूमि प्रबंधन के लिये रणनीतियाँ:

    • पर्माकल्चर और पुनर्योजी कृषि: पर्माकल्चर सिद्धांतों को प्रोत्साहित करने के साथ प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित धारणीय एवं आत्मनिर्भर कृषि प्रणालियों को डिज़ाइन करना आवश्यक है।
      • पुनर्योजी कृषि प्रथाओं को बढ़ावा देना चाहिये जैसे कि मृदा के स्वास्थ्य तथा उर्वरता को बेहतर बनाने के लिये कवर क्रॉपिंग और फसल चक्रण को अपनाना।
    • पारिस्थितिकी गलियारों के माध्यम से भूमि परिदृश्य का पुनरुद्वार: जीवों की आवाजाही को सुविधाजनक बनाने तथा जैवविविधता को बढ़ावा देने के लिये संरक्षित क्षेत्रों एवं क्षरित भूमि के बीच पारिस्थितिकी गलियारे स्थापित करना।
    • पारंपरिक पारिस्थितिकी ज्ञान का एकीकरण: स्वदेशी समुदायों के पारंपरिक पारिस्थितिकी ज्ञान के साथ उनकी टिकाऊ भूमि प्रबंधन प्रथाओं को आधुनिक संरक्षण रणनीतियों में शामिल करना।
      • पारंपरिक कृषि वानिकी प्रणालियों के पुनरुद्धार और संवर्द्धन को प्रोत्साहित करना।
    • संधारणीय शहरीकरण को बढ़ावा देना: संधारणीय शहरी नियोजन को प्रोत्साहित करना, जिसमें भूमि संसाधनों पर शहरीकरण के प्रभावों को कम करने के लिये हरित स्थान और हरित अवसंरचना शामिल हो।
    • बायोरिमेडिएशन और फाइटोरिमेडिएशन तकनीक: दूषित और क्षरित भूमि के बायोरेमेडिएशन के लिये सूक्ष्मजीवों तथा पौधों के उपयोग को प्रोत्साहित करना।
      • फाइटोरिमेडिएशन तकनीकों के उपयोग को प्रोत्साहित करना (जैसे कि विशिष्ट पौधों की प्रजातियों की कृषि को बढ़ावा देना) जिससे मृदा, जल और वायु से प्रदूषकों को हटाया जा सकता है।

    निष्कर्ष:

    धारणीय भूमि प्रबंधन प्रथाओं को प्रत्येक क्षेत्र के विशिष्ट पारिस्थितिकी, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक संदर्भों के अनुरूप अपनाया जाना चाहिये तथा इस तरह भारत वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को उर्वर बनाने के अपने महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।