• प्रश्न :

    भारत ने एक बेहतरीन लोकतंत्र तो अपनाया है, लेकिन वह इसके मानकों के अनुपालन में अक्षम है। इस कथन का विवेचनात्मक परीक्षण कीजिये।

    19 Jul, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    उत्तर की रूपरेखा

    • प्रभावी भूमिका में प्रश्नगत कथन को स्पष्ट करें।
    • तार्किक एवं संतुलित विषय-वस्तु में लोकतंत्र के मानकों की चर्चा करते हुए इस संदर्भ में अक्षमता के बिंदुओं को स्पष्ट करें।
    • प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें।

    भारत का संविधान देश में लोकतंत्र के शासन की स्थापना करता है लेकिन शासन के लिहाज़ से भारत एक जटिल देश है जहाँ भारी विविधता है। विभिन्न क्षेत्रों, समूहों व समुदायों के अपने दावे और अपनी अपेक्षाएँ हैं तथा भारत को सभी अपेक्षाओं की पूर्ति लोकतांत्रिक तरीके से ही करनी है।

    लॉर्ड बलफोर कहते हैं कि संसदीय शासन का पूरा सार तंत्र को चलायमान रखने की इसकी मंशा में निहित है और बुनियादी उद्देश्यों पर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच एकमतता से इसकी शक्ति का पता चलता है। उनकी इस धारणा पर अगर हम अपने व्यवहार को कसें तो देखते हैं कि बुनियादी उद्देश्यों पर कोई एकमतता नहीं है और हमारे राजनीतिक दलों के बीच जैसे इसी बात की प्रतिस्पर्द्धा चल रही हो कि कैसे तंत्र को विफल किया जाए। हमारे बीच मौजूद सक्रिय शक्तियों से हमारी आवश्यकताएँ लंबे समय से असंगत हैं और हमारी आवश्यकताएँ परस्पर एक संघर्ष की ओर आगे बढ़ रही हैं। 

    लोकतंत्र प्रबोधनात्मक आदर्शों (इंलाइटेनमेंट्स आईडियल्स) पर निर्भर करता है। इसमें स्वतंत्रता और समानता का निरंतर विस्तार, अवैयक्तिक कानून और संस्थानों का निष्पक्ष कार्यकरण, सामंजस्यकारी समझौतों द्वारा सामाजिक मतभेदों का निराकरण और इन सबसे अधिक तार्किकता की प्राथमिकता शामिल है। भारत का लोकतंत्र, भले ही जितना भी त्रुटिपूर्ण हो, आरंभ में इसलिये सफल हुआ, क्योंकि हमें स्वतंत्रता की राह पर ले जाने वाले नेतृत्वकर्त्ताओं ने इन्हीं आदर्शों को हमारे तंत्र में समाहित किया है। अपने लघु आकार से भारी असंगत इन आदर्शों का प्रभाव अब समाप्त हो गया है। प्रबोधन का पाठ अब मतदाताओं में प्रतिध्वनित नहीं होता, जिनके अंदर समूह के जुनून ने बुनियादी राष्ट्रीय हितों को निष्प्रभावी कर दिया है। हमारे सामाजिक तनावों को जहाँ संवेदनशील उपचार की आवश्यकता है वहीं, हम इस विभाजन को और बढ़ते देख रहे हैं। हमारी राजनीतिक संस्थाओं व प्रक्रियाओं को उभरती चुनौतियों की ध्यान आकृष्ट करना चाहिये लेकिन वे प्रतिगामिता की ओर और अधिक बढ़ रही हैं। हमारी सुरक्षा चुनौतियाँ और जटिल होती जा रही हैं, जबकि हमारी वैचारिक व प्रक्रियात्मक कमियाँ हमारी अनुक्रिया-क्षमता को और कमज़ोर कर रही हैं। हमारी प्रशासनिक प्रणाली को दक्षता की बेहद आवश्यकता है लेकिन हमारे पास इस पर न तो ध्यान देने का  समय है, न कोई विशेषज्ञता। इसके पीछे जो भी बहाने तलाशे जाएँ, किंतु एक कारण बेहद मौलिक है, वह यह कि हमारे भविष्य को आकार देने वाले निर्णय प्रायः उस दृष्टिकोण से तय होते हैं जो एक गंभीर देश के लिये अनुपयुक्त हैं। इसलिये आज ज़रूरी है कि भारत आगे बढ़ने के लिये सहज ज्ञान, दृष्टिकोण व निर्णय, संतुलन व वृहत्तता और सबसे महत्त्वपूर्ण, तार्किकता का सचेत होकर इस्तेमाल करे।

    भारत की खूबियों और खामियों के किसी भी आकलन में एक निष्कर्ष साफ तौर पर उभरता है कि भारत ने अपनी क्षमताओं और संभावनाओं का पूरा उपयोग नहीं किया है। ऐसे में हमें एक सुनियोजित व संकल्पित प्रयास की ज़रूरत है ताकि हमारा तंत्र कारगर और आधुनिक हो सके।