• प्रश्न :

    प्रश्न. नई वैश्विक व्यवस्था भारत के लिये विभिन्न राष्ट्रों के बीच अपनी भूमिका की वृद्धि और एक उभरती हुई शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की परिकल्पना करती है। चर्चा कीजिये।(250 शब्द)

    05 Jan, 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 अंतर्राष्ट्रीय संबंध

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण

    • वर्तमान समय में विकसित हो रही नई वैश्विक व्यवस्था के बारे में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि कैसे नई वैश्विक व्यवस्था भारत के लिये विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की चुनौती पेश करती है।
    • आगे की राह बताइये।

    वर्तमान वैश्विक व्यवस्था

    • वर्तमान में विश्व एक असंतुलन और दिशाहीनता का शिकार है। हम न तो द्विध्रुवीय शीत युद्ध की स्थिति में हैं और न ही एक बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहे हैं, बल्कि संपूर्ण विश्व धीरे-धीरे कई शक्ति केंद्रों में विभाजित होता जा रहा है।
    • कोविड-19 महामारी के प्रति किसी एकजुट या सुसंगत अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया के अभाव ने विश्व में एक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की अनुपस्थिति और बहुपक्षीय संस्थानों की प्रभावहीनता की पुष्टि की है। जलवायु परिवर्तन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय खतरों के प्रति भी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया अप्रभावी रही है।
    • वैश्वीकरण से पीछे हटना और संरक्षणवाद, व्यापार का क्षेत्रीयकरण, शक्ति संतुलन का स्थानांतरण, चीन एवं अन्य शक्तियों का उदय और चीन-संयुक्त राज्य अमेरिका की रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता जैसे कारकों ने विश्व के भू-राजनीतिक और आर्थिक गुरुत्व केंद्रों को एशिया की ओर स्थानांतरित कर दिया है।
    • राज्यों के बीच और उनके अंदर असमानता की स्थिति ने एक संकीर्ण राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद को जन्म दिया है। हम एक नए ध्रुवीकृत युग में प्रवेश कर रहे हैं और ‘एंथ्रोपोसीन’ युग के पारिस्थितिक संकटों का सामना कर रहे हैं, जहाँ जलवायु परिवर्तन एक अस्तित्वपरक खतरा बनता जा रहा है।

    भारत के लिये चुनौतियाँ

    • चीन की मज़बूत स्थिति: चीन एकमात्र ऐसा प्रमुख देश था, जिसने वर्ष 2020 के अंत में सकारात्मक विकास दर दर्ज की थी और इसकी अर्थव्यवस्था वर्ष 2021 में और तेज़ी से विकास करने की ओर अग्रसर है।
      • सैन्य रूप से, चीन ने स्वयं को और मज़बूत कर लिया है और वर्ष 2021 में अपने तीसरे विमानवाहक पोत के प्रक्षेपण की घोषणा के साथ हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र पर अपना दबदबा बढ़ाने का प्रयास किया है।
      • इस परिप्रेक्ष्य में, चीन-भारत संबंधों में किसी बड़े सुधार की संभावना नहीं है और भारतीय एवं चीनी सशस्त्र बलों के बीच टकराव जारी रहने का अनुमान है।
    • रूस-चीन धुरी का विकास: रूस, क्षेत्रीय मामलों में अधिकाधिक रुचि प्रदर्शित करने लगा है। इसके अलावा वर्ष 2014 में क्रीमिया के कब्ज़े के बाद रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों ने रूस को चीन के निकट ला दिया है।
      • इससे भारत जैसे देशों में उसकी रुचि कम होने का संकेत भी मिलता है।
      • इसके साथ ही, अमेरिका के साथ भारत की निकटता ने भी रूस और ईरान जैसे पारंपरिक मित्रों के साथ भारत के संबंधों को कमज़ोर कर दिया है।
    • मध्य-पूर्व के बदलते समीकरण: इज़राइल और चार अरब देशों- संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और सूडान के बीच अमेरिका की मध्यस्थता से बना तालमेल इस क्षेत्र में बदलते परिदृश्य को प्रतिबिंबित करता है।
      • हालाँकि, अब्राहम समझौते (Abraham Accords) को लेकर व्यक्त अति-उत्साह के बावजूद वास्तविक स्थिति अस्थिर ही बनी हुई है और अभी भी ईरान एवं इज़राइल के बीच टकराव का जोखिम बना हुआ है।
    • भारत का ‘सेल्फ आइसोलेशन’: वर्तमान में भारत दो महत्त्वपूर्ण ‘सुपरनेशनल’ निकायों— गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (SAARC) से अलग-थलग बना हुआ है, जिनके वह संस्थापक सदस्य रहा था।
      • इसके अलावा, भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) से भी बाहर रहने का विकल्प चुना है।
      • यह ‘सेल्फ आइसोलेशन’ वैश्विक शक्ति बनने की भारत की आकांक्षा के साथ सुसंगत नहीं है।
    • पड़ोसी देशों के साथ कमज़ोर संबंध: भारतीय विदेश नीति के लिये एक अधिक चिंताजनक विषय पड़ोसी देशों के साथ कमज़ोर होते संबंध भी है।
      • इसे श्रीलंका के साथ चीन की ‘चेक बुक डिप्लोमेसी’, NRC के मुद्दे पर बांग्लादेश के साथ तनाव और नए नक्शे के जारी होने के कारण नेपाल के साथ हालिया सीमा विवाद जैसे उदाहरणों से समझा जा सकता है।

    आगे की राह

    • अनिश्चितता और लगातार बदलता भू-राजनीतिक माहौल स्पष्ट रूप से भारतीय नीति के लिये उल्लेखनीय चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं, यहीं भारत के लिये कुछ अवसर भी उपलब्ध हैं, जो भारत के रणनीतिक विकल्पों एवं कुटनीतिक अवसरों के दायरे का विस्तार कर सकते है, यदि हम विशेष रूप से भारतीय उप-महाद्वीप में आंतरिक और बाह्य रूप से अपनी नीतियों को समायोजित कर सकें।
      • भारत को एशिया में बहुध्रुवीयता की स्थापना का लक्ष्य रखना चाहिये।
    • विषय-आधारित गठबंधन: भारत को बदलती परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाना होगा। इस अनिश्चित और अधिक अस्थिर दुनिया से संबद्ध होने के अलावा उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। ऐसा करने का एक बेहतर तरीका विषय-आधारित गठबंधन की स्थापना करना है, जहाँ विभिन्न अभिकर्त्ता शामिल होंगे और उनकी संलग्नता उनकी रुचि और क्षमता पर निर्भर होगी।
      • अमेरिका के साथ बढ़ती सुरक्षा संगति भारत के विकास के लिये आवश्यक क्षेत्रों जैसे- ऊर्जा, व्यापार, निवेश, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि में सहयोग के लिये भी महत्त्वपूर्ण हो सकती है।
      • इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन एवं ऊर्जा, नवीकरणीय ऊर्जा के लिये तकनीकी समाधान एवं डिजिटल सहयोग जैसे अन्य क्षेत्रों में भारत और अमेरिका आपसी सहयोग बढ़ा सकते हैं।
    • ‘सार्क’ को पुनर्जीवित करना: भारत इस उपमहाद्वीप और हिंद महासागर क्षेत्र में पड़ोसी देशों के लिये समृद्धि और सुरक्षा दोनों का प्राथमिक स्रोत बन सकता है। पड़ोसी देशों के प्रति भारत की नीति के अत्यधिक प्रतिभूतिकरण ने व्यापार को भूमिगत कर दिया है, साथ ही इसने देश की सीमाओं का अपराधीकरण किया है और पूर्वोत्तर भारत में चीनी सामानों के व्यापक प्रवेश को सक्षम कर दिया है जो स्थानीय उद्योगों को नष्ट कर रहे हैं।
      • चीन पर निर्भरता कम करते और बाहरी संतुलन की तलाश करते हुए भारत के प्राथमिक प्रयास ‘आत्मनिर्भरता’ पर केंद्रित होने चाहिये।
      • यदि कोई एक देश है जो अपने आकार, जनसंख्या, आर्थिक क्षमता, वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षमताओं के मामले में चीन से बराबरी कर सकता है या उससे भी आगे निकल सकता है, तो वह भारत ही है।
    • ‘आत्मनिर्भरता’ का महत्त्व: विदेशों में अपनी भूमिका और प्रभाव सुनिश्चित करने के लिये भारत कई कदम उठा सकता है, जो भारत के विकास में मददगार हो सकते हैं। आर्थिक नीति को राजनीतिक और रणनीतिक संलग्नता से सुमेलित किया जाना चाहिये।
      • वैश्वीकरण की भारत के विकास में केंद्रीय भूमिका रही है। भारत के लिये एक अधिक सक्रिय क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भूमिका वैश्विक अर्थव्यवस्था के हाशिये पर रहकर नहीं पाई जा सकती।
      • वर्तमान विश्व में आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को वैश्विक अर्थव्यवस्था का अंग होकर ही साकार किया जा सकता है। हमें चीन की नकल नहीं करनी चाहिये, जहाँ एक सभ्यतागत देश होने और ‘विक्टिम’ होने के दावे के साथ आगे बढ़ा जा रहा है। इसके बजाय हमें अपनी स्वयं की शक्ति और ऐतिहासिक राष्ट्रीय पहचान की पुष्टि करनी चाहिये।
    • पर्याप्त मात्रा में बाह्य सहायता: चीन के साथ मौजूदा गतिरोध ने वर्ष 1963 में जवाहरलाल नेहरू द्वारा व्यक्त इस मत की पुष्टि की कि भारत को "पर्याप्त मात्रा में बाहरी सहायता" की आवश्यकता है।
      • इस संदर्भ में भारत को फ्राँस, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देशों के अलावा अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से निरंतर समर्थन की आवश्यकता होगी।
      • भारत को ‘इंडो-पैसिफिक’ आख्यान में यूरोप के प्रवेश का स्वागत करना चाहिये, क्योंकि फ्राँस और जर्मनी अपनी इंडो-पैसिफिक रणनीति के साथ पहले ही सामने आ भी चुके हैं।