• प्रश्न :

    'निःशुल्क विधिक सहायता के अलावा वैकल्पिक न्याय प्रणाली भी न्यायपालिका के भार को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।'विश्लेषण करें।

    29 Aug, 2020 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण

    विधिक सहायता अधिकार 

     इसके संवैधानिक प्रावधान। 

    विधिक सहायता का महत्त्व

    अन्य वैकल्पिक उपाय। 

    निष्कर्ष

    विधिक सहायता का अधिकार ऐसे लोगों जो न्याय पाने के लिये वकीलों और अदालतों का खर्च वहन नहीं कर सकते, को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान करता है। भारतीय संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत इसे अनुच्छेद 39- A के तहत जोड़ा गया है, जिसके अंतर्गत गरीब और वंचित वर्गों के लिये निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करवाना राज्य का कर्त्तव्य होगा।

    विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम-

    • वर्ष 1987 मे गरीबों को नि:शुल्क और सक्षम कानूनी सेवाएँ उपलब्ध कराने के उद्देश्य से विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम को लागू किया गया था।
    • इस अधिनियम ने राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (NALSA) तथा राज्य, ज़िला एवं तालुका स्तर पर अन्य कानूनी सेवा संस्थानों के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।
    • LSA अधिनियम के तहत दी जाने वाली नि:शुल्क कानूनी सेवाएँ अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति, बच्चों, महिलाओं, मानव तस्करी के शिकार लगों, औद्योगिक कामगारों, हिरासत में लिये गए व्यक्तियों और गरीबों के लिये उपलब्ध हैं।

    विधिक सहायता का महत्त्व-

    विधिक सहायता का अधिकार यह सुनिश्चित करने का तरीका है कि किसी व्यक्ति को गरीबी और निरक्षरता के कारण न्याय प्राप्त करने से वंचित नहीं रखा जा सकता। यह न्याय तक गरीबों की पहुँच को सरल बनाकर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करता है।

    यह समानता के सिद्धांत को स्थापित करता है तथा नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों को संरक्षित करने का प्रयास करता है।

    यह अधिकार राज्य द्वारा लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिये सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में सहायता करता है।

    महँगे और देरी से मिलने वाले न्याय के विपरीत यह कमज़ोर व्यक्ति की आवाज़ उठाने का काम करता है और उसके लिये त्वरित एवं सस्ता न्याय उपलब्ध करवाता है।

    अन्य वैकल्पिक उपाय-

    विवाद को विशेष न्यायाधिकरणों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। इनके द्वारा दिये गए निर्णय बाध्यकारी होते हैं। यहाँ सामान्य सुनवाई की तुलना में औपचारिकता कम होती है। इनमें अपील करने का अधिकार नहीं होता तथा इनमें न्यायिक हस्तक्षेप की बहुत कम गुंजाइश होती है।

    समझौते या सुलह के रूप में एक गैर-बाध्यकारी प्रक्रिया, जिसमें एक निष्पक्ष तीसरा पक्ष सहायता करता है। इसमें भी औपचारिकता कम होती है। यदि दोनों पक्ष सहमत होते हैं, तो इनका निर्णय बाध्यकारी होता है।

    मध्यस्थ के माध्यम से भी विवादों का निपटारा संभव है। इसमें मध्यस्थ दोनों पक्षों के बीच संवाद स्थापित करवाने में मदद करता है, जैसे- महिला न्यायालय कई प्रकार के न्यायाधिकरण, उपभोक्ता फोरम, लोक अदालतें, परिवार न्यायालय, फास्ट ट्रैक अदालतें व लोकपाल आदि न्यायिक प्रक्रिया की गति को तेज़ करने का प्रयास कर रहे हैं।

    वैकल्पिक न्याय प्रणाली न्यायपालिका के भार को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। जागरूकता की कमी के कारण लोग इसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण को इसके प्रचार के लिये प्रयास करना चाहिये। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना से भी भारतीय न्याय व्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार किया जा सकता है।