• प्रश्न :

    क्या ‘भारत-दुर्दशा’ को ‘त्रासदी’ माना जा सकता है? अपना मत प्रकट कीजिये।

    14 Dec, 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    उत्तर :

    त्रासदी यूनानी साहित्य की एक प्राचीन विधा है। ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने पहली बार त्रासदी का व्यवस्थित विवेचन किया और उसके बाद कई सिद्धांतकारों जैसे बुचर, येटकिन्स, हीगेल, जॉर्ज लुकाच आदि ने अपने-अपने तरीकों से त्रासदी की व्याख्या की।

    सामान्य दृष्टि से त्रासदी ऐसी हर रचना को कहा जा सकता है जिसका अंत नायक की सफलता में न होकर दुख और पीड़ा की सघन अनुभूति में हो। नायक का खलनायक के हाथों पराजित होना, नैतिक व मानसिक स्तर पर टूट जाना तथा मृत्यु को प्राप्त होना- ये सब दृश्य प्राय: त्रासदी के अंत में दिखाई पड़ते हैं। किंतु, यदि त्रासदी के व्यवस्थित ढाँचे तथा नियमों को आधार बनाएँ तो किसी रचना का त्रासदी होना कई अन्य कारकों पर भी निर्भर होता है, जैसे द्वंद्व की सघन उपस्थिति के कारण कथानक का वक्र होना; नायक का भद्र, साहसी व सत्य के पक्ष में संघर्षशील होना; नायक की अति नैतिकता से उत्पन्न गंभीर भूल अर्थात् हैमर्शिया के कारण नायक का पतन की ओर बढ़ना; कथानक का पाँच क्रमबद्ध चरणों (व्याख्या, विकास, चरम बिंदु, निगति तथा पतन) से गुज़रना तथा रचना के अंत में विरेचनमूलक प्रभाव का उत्पन्न होना ऐसे प्रमुख लक्षण हैं।

    भारत दुर्दशा त्रासदी है या नहीं- इसका निर्णय दो स्तरों पर भिन्न-भिन्न तरीकों से किया जा सकता है:

    • सामान्य दृष्टि से देखें तो इसे इस अर्थ में त्रासदी माना जा सकता है कि इसका अंत बेहद दुखद है। भारत का अत्यंत कमज़ोर होना, आंतरिक व बाह्य कमज़ोरियों के कारण उसका दुर्दशाग्रस्त होना, तमाम कोशिशों के बावजूद उसका पुन: न उठ पाना ये सभी तथ्य नाटक के अंत को दुखद बनाते हैं।
    • दुख की यह छाया नाटक के पहले अंक से ही मंडराने लगती है और हर अंक के साथ और गहरी होती जाती है।
    • नाटक के अंत में न तो कोई सुख है और न ही सुख की संभावना। इस दृष्टि से भारत दुर्दशा को ट्रेेजिक रचना माना जा सकता है।

    किंतु, यदि त्रासदी की तकनीकी धारणा के आलोक में भारत दुर्दशा का मूल्यांकन करें तो कई समस्याएँ दिखाई पड़ती हैं:

    • सर्वप्रथम, इसका नायक वैसा भद्र, दृढ़, साहसी और नैतिक नहीं है जैसा पारंपरिक त्रासदी में होता है। साहस का तो उसमें इतना अभाव है कि खलनायक की दहाड़ सुनकर ही वह बेहोश हो गया है और भारत भाग्य द्वारा उसे जगाए जाने की अनेकानेक कोशिशों के बाद भी वह होश में नहीं आता।
    • चूँकि नायक कमज़ोर है, इसलिये कथानक वक्र न होकर रैखिक बन गया है। उसमें द्वंद्व पूर्णत: अनुपस्थित है।
    • नायक का पतन किसी हैमर्शिया के कारण होता हुआ नज़र नहीं आता बल्कि उसकी अपनी ही आंतरिक कमज़ोरियों का परिणाम दिखाई पड़ता है। यही कारण है कि अंतिम स्थिति में नायक को मरणासन्न अवस्था में देखकर भी पाठक के मन में वह बेचैनी या छटपटाहट पैदा नहीं होती जो ट्रेेजिक नायक के पतन के समय होती है।
    • इसी प्रकार, नाटक के अंत में दुख महसूस तो होता है, किंतु यह उतना घना और मार्मिक नहीं है कि उसे ‘विरेचन’ कहा जा सके।

    किंतु, इसका यह अर्थ नहीं कि भारत दुर्दशा का त्रासदी न होना भारतेंदु की विफलता है। विफलता तब होती जब भारतेंदु ने त्रासदी लिखने का प्रयास किया होता पर लिख न पाए होते। उनकी कोशिश तो यह है ही नहीं कि वे ट्रेजेडी के ढाँचे को यथारूप प्रस्तुत करें। वे साहित्य को सिर्फ समाजहित से जोड़कर देखते हैं और भारत दुर्दशा लिखने के पीछे उनका उद्देश्य आत्ममोह-ग्रस्त भारतीय जनता को झकझोरना और प्रेरित करना है, न कि ट्रेजेडी के शिल्प को साधना। अपने इस सामाजिक उद्देश्य की दृष्टि से उन्हें ट्रेजेडी के पूरे ढाँचे की ज़रूरत महसूस नहीं हुई, इतना ही पर्याप्त लगा कि नाटक का अंत दुखद हो।

    उपरोक्त विश्लेषण से यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत दुर्दशा सामान्य अर्थ में ही त्रासदी के निकट है; त्रासदी के पारंपरिक, तकनीकी व ढाँचागत अर्थ में उसे त्रासदी नहीं कहा जा सकता। यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि भारतेंदु की योजना त्रासदी लिखने की नहीं थी, इसलिये यह भारतेंदु या भारत दुर्दशा की विफलता भी नहीं है।