• प्रश्न :

    आप एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र व सामाजिक न्याय के प्राध्यापक हैं। गजेंद्र जोशी व सुखीराम घनिष्ठ मित्र हैं और आपके प्रिय छात्र हैं। गजेंद्र तथाकथित उच्च जाति से आता है और सुखीराम दलित वर्ग से। दोनों प्रतिभावान व प्रगतिशील विचार वाले हैं। एक दिन दोनों के बीच आरक्षण के मुद्दे पर तीखी बहस होती है। गजेंद्र का कहना है कि न तो उसने और न ही उसके परिवार वालों ने कभी जातिगत आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव किया। उसके मित्रों में सभी जाति-वर्ग के लोग शामिल हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति किसी भी मामले में गजेंद्र से खराब नहीं है, फिर आरक्षण के रूप में महज़ जाति के नाम पर उसके साथ भेदभाव क्यों होता है? वे दोनों आपके पास आते हैं और इस मुद्दे पर आपके विचार जानना चाहते हैं। आरक्षण से संबंधित नैतिक मुद्दों की चर्चा करते हुए उपरोक्त स्थिति के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत करें। (250 शब्द)

    30 Nov, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 4 केस स्टडीज़

    उत्तर :

    सामान्यत: आरक्षण का तात्पर्य किसी वर्ग विशेष, जिसे शिक्षण संस्थान, सरकारी नौकरी, नीति निर्माण आदि में जनसंख्या के अनुपात में उचित प्रतिनिधित्व न प्राप्त हो, को प्रतिनिधित्त्व प्रदान करने के लिये कुछ रियायतें देने से है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आरक्षण सर्वाधिक विवादित मुद्दा रहा है। आरक्षण के समर्थकों का तर्क है कि आरक्षण ने सदियों पुरानी जाति व्यवस्था को कमज़ोर करने का काम किया है और सामाजिक न्याय स्थापित किया है। वहीं दूसरी ओर आरक्षण विरोधियों का तर्क है कि आरक्षण ने प्रतिभा को नज़रअंदाज किया है और सामाजिक वैमनस्यता को बढ़ाया है। आरक्षण ने कुछ नैतिक प्रश्नों को भी जन्म दिया है जिन्हें हम निम्नलिखित रूप में देख सकते हैं:

    1. क्या भूत की गलतियों के लिये वर्तमान पीढ़ी को ज़िम्मेदार माना जा सकता है?
    2. किसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाए सामाजिक न्याय या प्रतिभा को?
    3. क्या जाति आधारित भेदभाव नैतिक है?

    उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर देने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि कोई भी समाज या तंत्र तब तक सुचारु रूप से काम नहीं कर सकता जब तक कि उसके सभी नागरिकों को विकास व प्रगति का समान अवसर नहीं मिलता है। हमारे समाज में जाति आधारित भेदभाव सदियों से व्याप्त रहा है जिसके परिणामस्वरूप समाज का एक बड़ा तबका पिछड़ता चला गया और उसके विकास व प्रगति की संभावना सीमित हो गई। ऐसे में समाज के अन्य वर्गों की यह नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वे ऐसे पिछड़े वर्गों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिये सक्रिय व सकारात्मक सहयोग दें।

    आरक्षण की संकल्पना इसी सकारात्मक भेदभाव पर आधारित है। आरक्षण का एक सांकेतिक महत्त्व भी है जो पिछड़े तबकों का तंत्र में विश्वास बढ़ाता है। परंतु इन सकारात्मक पहलुओं के बाद भी आरक्षण के राजनीतिकरण ने इसे दुष्प्रभावित किया है। हाल के दशकों में आरक्षण सामाजिक न्याय से अधिक राजनीतिक हथकंडा बन गया है, जिसने सामाजिक वैमनस्यता को भी बढ़ाया है। वस्तुत: आज आवश्यकता है आरक्षण पर खुली बहस कर इसकी विसंगतियों को दूर किया जाए ताकि वास्तविक अर्थों में यह सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर सके।