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दिवस 14: "राज्यपाल का पद एक संवैधानिक प्रहरी के रूप में कल्पित किया गया था, न कि राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में।" हाल की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में केंद्र–राज्य संबंधों में राज्यपाल की भूमिका का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)

01 Jul 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण : 

  • राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका का संक्षेप में परिचय दीजिये।
  • हाल के घटनाक्रमों के बीच राज्यपाल की भूमिका समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये।
  • आगे की राह बताते हुए एक विवेकपूर्ण टिप्पणी के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय: 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 162 के अंतर्गत, राज्यपाल को राज्य का एक निष्पक्ष संवैधानिक प्रमुख के रूप में कल्पित किया गया था, जिसका उद्देश्य संविधान के प्रहरी बनने और केंद्र तथा राज्यों के बीच सेतु का कार्य करना था। हालाँकि, वर्षों से यह पद केंद्र सरकार के उपकरण के रूप में देखा जाने लगा है, जिससे भारत के सहकारी संघवाद पर इसके प्रभाव को लेकर चिंताएँ उत्पन्न हुई हैं।

मुख्य भाग: 

राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका

  • राज्य का कार्यकारी प्रमुख: मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर आधारित कार्य [अनुच्छेद 163]।
  • विवेकाधीन शक्तियाँ: जैसे कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सरकार का गठन, विधेयकों को राष्ट्रपति के पास आरक्षित करना और अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।
  • विधेयकों पर स्वीकृति: राज्यपाल विधेयकों को स्वीकृति दे सकते हैं, रोक सकते हैं या राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर सकते हैं।
  • आपातकालीन ज़िम्मेदारियाँ: राज्य में संवैधानिक संकट की स्थिति में राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजते हैं।

हालिया घटनाक्रम और राजनीतिक विवाद

  • कुछ उदाहरण यह संकेत देते हैं कि राज्यपाल का भूमिका संवैधानिक निष्पक्षता से हटकर राजनीतिक सक्रियता की ओर बढ़ रही है, जो प्रायः केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में देखी जाती है।
  • महाराष्ट्र (2019): राज्यपाल द्वारा बिना उचित फ्लोर टेस्ट प्रक्रिया के भोर में सरकार शपथ दिलाने के निर्णय ने राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोपों को जन्म दिया।  
  • मणिपुर (2017) और गोवा (2017): राज्यपालों ने सबसे बड़ी पार्टी को नज़रअंदाज करते हुए कम सीटों वाली पार्टियों को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया।
  • तमिलनाडु: NEET विरोधी विधेयक को स्वीकृति देने में देरी और निर्वाचित सरकार की आलोचना में सार्वजनिक टिप्पणियाँ करना गंभीर चिंता का विषय बना।
  • केरल: केरल विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक सहित विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयकों को मंत्रिमंडल के बार-बार अनुरोध के बावजूद स्वीकृति न देना।
  • पंजाब और पश्चिम बंगाल: राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच नियुक्तियों तथा केंद्र सरकार के निर्देशों को लेकर टकराव, जिससे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव उत्पन्न हुआ।

केंद्र–राज्य संबंधों पर प्रभाव

  • संघीय विश्वास का क्षरण: राज्यपालों द्वारा की गई राजनीतिक रूप से प्रेरित कार्रवाइयाँ सहकारी संघवाद की भावना को नुकसान पहुँचाती हैं।
  • विधायी गतिरोध: विधेयकों को स्वीकृति देने में देरी या अस्वीकृति राज्य स्तर पर विधायी प्रक्रिया और नीतियों के क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न करती है।
  • निर्वाचित सरकारों का अवमूल्यन: विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग निर्वाचित राज्य सरकारों की वैधता और अधिकार को कमज़ोर करता है, जो लोकतांत्रिक जनादेश का उल्लंघन है।

सुधारों के लिये सिफारिशें

  • सरकारिया आयोग (1988): राज्यपाल की नियुक्ति राज्य से बाहर के व्यक्ति को करने की सिफारिश की गई, जो सक्रिय रूप से किसी राजनीतिक दल से जुड़ा न हो, और नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्री से परामर्श लेने की बात कही गई।
  • पुंछी आयोग (2010): विवेकाधीन शक्तियों के उपयोग के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश तय करने और राष्ट्रपति शासन की सिफारिश में राज्यपाल की भूमिका सीमित करने की सिफारिश की गई।
  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय: एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिये सुरक्षा उपाय तय किये  और कहा कि राज्यपाल की कार्रवाइयाँ विधिक तथा संवैधानिक रूप से उचित होनी चाहिये।

निष्कर्ष: 

जैसा कि सरकारिया आयोग (1988) ने कहा था:

"राज्यपाल की भूमिका एक निष्पक्ष संवैधानिक प्रमुख की होनी चाहिये, न कि केंद्र सरकार के उपकरण के रूप में देखी जानी चाहिये।"

केवल इसी सिद्धांत को अपनाकर राज्यपाल वास्तव में संविधान के संरक्षक की भूमिका निभा सकते हैं, जिससे राज्यों की स्वायत्तता और संघ की एकता दोनों की रक्षा हो सकेगी।