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दिवस- 4: “स्वतंत्रता के पश्चात भारत में नियोजित विकास का विचार परिवर्तन का एक साधन और संरचनात्मक कठोरता का स्रोत था।” टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)

19 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण :

  • स्वतंत्रता के बाद के भारत में नियोजित विकास की अवधारणा का संक्षेप में परिचय दीजिये।
  • परिवर्तन के एक उपकरण के रूप में नियोजित विकास की व्याख्या कीजिये।
  • चर्चा करें कि किस प्रकार कठोर केन्द्रीय नियोजन से प्रणालीगत समस्याएं उत्पन्न हुईं।
  • दोनों पक्षों को संतुलित करें और निष्कर्ष निकालें।

परिचय:

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा— गरीबी (70% से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे), खाद्य असुरक्षा, निम्न साक्षरता दर (1951 में मात्र 18%) और अविकसित बुनियादी ढाँचा। इन समस्याओं से निपटने के लिये भारत ने नियोजित विकास मॉडल को अपनाया, जिसकी शुरुआत वर्ष 1951 में योजना आयोग के अंतर्गत पहले पंचवर्षीय योजना से हुई। यह मॉडल सोवियत अनुभव और नेहरूवादी समाजवाद से प्रेरित था।

मुख्य भाग:

परिवर्तन के साधन के रूप में नियोजित विकास:

  • औद्योगीकरण : महालनोबिस मॉडल पर आधारित दूसरी पँचवर्षीय योजना (1956-61) में भारी उद्योगों को प्राथमिकता दी गई।
    • भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर जैसे इस्पात संयंत्र विदेशी सहायता से स्थापित किये गए, जो भारतीय उद्योग की रीढ़ बने।
  • हरित क्रांति: चौथी योजना के दौरान भारत ने कृषि उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन देखा। HYV बीज, सिंचाई और उर्वरक सब्सिडी के कारण खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा।
    • गेहूँ का उत्पादन वर्ष 1960 में 10 मिलियन टन से बढ़कर वर्ष 1990 तक 55 मिलियन टन से अधिक हो गया, जिससे भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया।
  • बुनियादी ढाँचा: भाखड़ा-नांगल और दामोदर घाटी जैसी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं तथा सड़क और रेल नेटवर्क के विस्तार में भारी निवेश किया गया।
  • सामाजिक लक्ष्य: भूमि सुधार (यद्यपि असमान), सामुदायिक विकास कार्यक्रम और एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (1978) जैसी योजनाओं का उद्देश्य ग्रामीण गरीबों का उत्थान करना था।
  • मानव विकास: जीवन प्रत्याशा 1951 में 32 वर्ष से बढ़कर 1991 में 60 वर्ष हो गई , और साक्षरता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, विशेष रूप से राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) के बाद।

संरचनात्मक कठोरता के स्रोत के रूप में नियोजित विकास:

  • लाइसेंस-परमिट-कोटा राज: वर्ष 1970 के दशक तक, निजी क्षेत्र पर बहुत ज़्यादा नियंत्रण था। औद्योगिक लाइसेंसिंग द्वारा नवाचार और प्रतिस्पर्द्धा को दबा दिया गया, जिससे एकाधिकार और किराया-मांग वाली प्रवृत्ति उत्पन्न हुई।
  • अकुशल सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम: कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम "सफेद हाथी (White Elephants)" बन गए। उदाहरण के लिये, एयर इंडिया और हिंदुस्तान फर्टिलाइज़र कॉर्पोरेशन लगातार घाटे में चल रहे थे।
  • उपभोक्ता वस्तुओं की उपेक्षा: पूंजीगत वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करने से उपभोक्ता माँग की अनदेखी हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि वस्तुओं की कमी और खराब गुणवत्ता वाली वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ गई।
  • निम्न उत्पादकता और व्यापार: वर्ष 1990 तक, वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ 0.5% थी, जो इसके आर्थिक मॉडल की अकुशलता और अंतर्मुखी प्रकृति को दर्शाती है।
  • हिंदू विकास दर: वर्ष 1950 के दशक से वर्ष 1980 के दशक तक भारत की GDP औसतन केवल 3.5% प्रति वर्ष की दर से बढ़ी, जिसे "हिंदू विकास दर" कहा जाता है। यह सुस्त वृद्धि पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के तेजी से बढ़ने के साथ बिल्कुल विपरीत थी जो नियोजन में प्रणालीगत अक्षमताओं और कठोरता का लक्षण को दर्शाती है।

निष्कर्ष

जैसा कि विद्वान जगदीश भगवती ने कहा, “भारत की योजना प्रणाली ने औसतता के समुद्र में उत्कृष्टता के द्वीप बनाए।” नियोजित विकास ने राष्ट्र-निर्माण को प्रारंभिक गति दी, लेकिन इसकी कठोरता ने वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों की आवश्यकता को उजागर किया। इन सुधारों ने योजना और बाज़ार को एकीकृत किया, जिससे एक अधिक लचीला और उत्तरदायी विकास मॉडल संभव हो सका।