दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका को संक्षेप में समझाइये।
- स्वतंत्रता के बाद के लैंगिक सुधार आंदोलनों में इस सहभागिता की निरंतरता स्थापित कीजिये।
- इस निरंतरता की सीमाओं का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
|
परिचय
राष्ट्र के प्रतीकात्मक व्यक्तित्व से लेकर जन आंदोलनों में सक्रिय प्रतिभागियों तक, महिलाओं ने राष्ट्रवादी विमर्श को नया रूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी भागीदारी ने राजनीतिक चेतना उत्पन्न की, पितृसत्तात्मक मान्यताओं को चुनौती दी और स्वतंत्रता के पश्चात् लिंग-संवेदनशील कानूनी तथा संस्थागत सुधारों की वैचारिक आधारशिला रखी।
मुख्य भाग:
स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका
- महिलाओं ने स्वतंत्रता संग्राम के विविध आयामों— जन आंदोलनों, गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों तथा नेतृत्वकारी भूमिकाओं में सक्रिय भागीदारी की।
- असहयोग आंदोलन (1920) और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) के दौरान, हज़ारों महिलाओं ने दुकानों पर धरना दिया, गिरफ़्तारियाँ दीं और बहिष्कार अभियानों का आयोजन किया। उदाहरण: कस्तूरबा गांधी और राजकुमारी अमृत कौर ने प्रांतों में महिलाओं को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- कल्पना दत्त, बीना दास, प्रीतिलता वद्देदार और दुर्गावती देवी जैसी क्रांतिकारियों ने औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध षड्यंत्र तथा सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से सीधे चुनौती दी।
- अरुणा आसफ अली गोवालिया टैंक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराकर भारत छोड़ो आंदोलन (वर्ष 1942) का प्रतीक बनकर उभरने का कार्य किया।
- वर्ष 1927 में स्थापित अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (AIWC) जैसी संस्थाओं ने राष्ट्रवाद को सामाजिक सुधार से (विशेषतः शिक्षा तथा कानूनी अधिकारों से) जोड़ना आरंभ किया।
स्वतंत्रता के बाद लैंगिक सुधार:
- भारत के संविधान (1950) में विधि के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14), लैंगिक आधार पर भेदभाव न करना (अनुच्छेद 15) और रोज़गार में समान अवसर (अनुच्छेद 16) सुनिश्चित किया गया।
- हिंदू कोड बिल (वर्ष 1955–56) ने महिलाओं के उत्तराधिकार, तलाक और विवाह संबंधी अधिकारों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये। यद्यपि ये विवादास्पद रहे, परंतु महिलाओं की विधिक स्थिति के संहिताकरण में इनकी भूमिका ऐतिहासिक रही।
- SEWA (वर्ष 1972) तथा महिला समाख्या कार्यक्रम (वर्ष 1989) जैसी महिला संगठनों की वृद्धि ने ग्रामीण एवं कामकाज़ी वर्ग की महिलाओं को सशक्त किया।
- 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों (वर्ष 1992) के तहत स्थानीय स्वशासन में महिलाओं के लिये 33% आरक्षण सुनिश्चित किया गया, जिससे उनकी राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा मिला।
- राष्ट्रीय महिला नीति (वर्ष 2001 और वर्ष 2016) ने शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आर्थिक समावेशन पर विशेष ज़ोर दिया।
निरंतरता में सीमाएँ और चुनौतियाँ
- प्रतिनिधित्व अंतर: लोकसभा में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 14.6% (2024) है, जो वैश्विक मानकों से काफी नीचे है।
- कानूनी खामियाँ: कई धार्मिक समुदायों में अब भी लिंग-पक्षपातपूर्ण व्यक्तिगत विधियाँ जारी हैं।
- जड़ जमाई पितृसत्ता: महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की संख्या अब भी अत्यधिक है, जिसमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (वर्ष 2022) के अनुसार महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और अपराधों के चार लाख से अधिक मामले दर्ज किये गये, जिनमें घरेलू हिंसा, दहेज हत्या और यौन उत्पीड़न जैसे अपराध शामिल हैं।
- शहरी-पक्षपाती नारीवाद: स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद का नारी आंदोलन प्रायः शहरी-केंद्रित रहा है, जिसके कारण दलित, जनजातीय, ग्रामीण और अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाओं की समस्याएँ हाशिये पर चली गई हैं।
- प्रतीकात्मकता: पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण ने महिलाओं की दृश्यता तो बढ़ाई है, परंतु अनेक महिलाएँ आज भी केवल पुरुष परिजनों की प्रतिनिधि बनकर कार्य कर रही हैं, जिनके पास वास्तविक निर्णय-निर्माण की शक्ति नहीं है।
निष्कर्ष
जैसा कि इतिहासकार जेराल्डिन फोर्ब्स कहती हैं,
"भारतीय महिलाओं की स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी किसी अंत का प्रतीक नहीं थी, बल्कि एक शक्तिशाली प्रारंभ थी।"
राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान स्थापित आदर्शों को पूरी तरह से साकार करने के लिये, भारत को गहरी जड़ें जमाए हुए पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देने के लिये कानूनी सुधारों से आगे बढ़ना होगा तथा सभी महिलाओं के लिये वास्तविक समानता और सशक्तीकरण सुनिश्चित करना होगा।