दिवस-2: “राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक-धार्मिक सुधार अलग-अलग घटनाक्रम नहीं थे, बल्कि परस्पर पूरक विकास की प्रक्रियाएँ थीं।” इस कथन की विवेचना आर्य समाज और आत्म-सम्मान आंदोलन के योगदानों के संदर्भ में कीजिये। (250 शब्द)
17 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण :
- सर्वप्रथम यह बताइये कि भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन केवल राजनीतिक नहीं था - यह गहन रूप से सामाजिक और सांस्कृतिक था।
- चर्चा कीजिये कि राष्ट्रवाद और सामाजिक सुधार किस प्रकार एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
- तर्क के समर्थन के लिये आर्य समाज और आत्म-सम्मान आंदोलन के योगदान को सम्मिलित कीजिये।
- उनकी प्रासंगिकता और विरासत के साथ निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि एक गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी था। इन आंदोलनों ने न केवल प्रतिगामी प्रथाओं को चुनौती दी, बल्कि वंचित वर्गों को सशक्त बनाया तथा उन्हें राष्ट्रवादी विमर्श में सक्रिय भागीदार बनाया।
मुख्य भाग :
- राष्ट्रवाद और सामाजिक सुधार आपस में जुड़े हुए थे
- औपनिवेशिक शासन ने केवल भारत की अर्थव्यवस्था का ही शोषण नहीं किया, बल्कि सामाजिक श्रेणियों, धार्मिक रूढ़िवादिता और विभाजनों को भी और मज़बूत किया।
- राष्ट्रवादी नेताओं ने यह समझा कि अस्पृश्यता, जातीय भेदभाव, लैंगिक असमानता और अंधविश्वास जैसी आंतरिक सामाजिक बुराइयाँ सामूहिक प्रतिरोध को कमज़ोर बनाती हैं।
- इस प्रकार, सुधार और प्रतिरोध परस्पर पूरक बन गये: सुधार ने नैतिक और सामाजिक जागरूकता उत्पन्न की, जबकि राष्ट्रवाद ने उस जागरूकता को राजनीतिक अभिव्यक्ति प्रदान की।
- राष्ट्रवाद को मजबूत करने में आर्य समाज की भूमिका
- 1875 ई. में स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने वेदों के शुद्ध मूल्यों की ओर लौटने का समर्थन किया।
- सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया गया जैसे:
- जातिगत भेदभाव, बाल विवाह और मूर्ति पूजा का विरोध।
- महिला शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह और अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देना।
- राष्ट्रवाद में योगदान:
- शुद्धि आंदोलन (हिंदुओं का पुनः धर्मांतरण) को औपनिवेशिक मिशनरी प्रभाव से भारतीय पहचान की रक्षा के एक तरीके के रूप में देखा गया था।
- स्वदेशी आंदोलन के साथ तालमेल बिठाते हुए स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा पर जोर दिया।
- लाला लाजपत राय जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने आर्य समाज को “देशभक्ति का विश्वविद्यालय” बताया।
- राष्ट्रवाद को मजबूत करने में आत्म-सम्मान आंदोलन की भूमिका
- वर्ष 1925 में तमिलनाडु में ई.वी. रामास्वामी (पेरियार) द्वारा स्थापित यह आंदोलन बुद्धिवाद और सामाजिक समानता पर केंद्रित था ।
- धार्मिक और सामाजिक रूढ़िवादिता को चुनौती देते हुए गैर-ब्राह्मण और उत्पीड़ित जातियों के लिये आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की मांग की ।
- राष्ट्रवाद में योगदान:
- यद्यपि कॉन्ग्रेस के उच्च जाति के प्रभुत्व की आलोचना करते हुए , इसने द्रविड़ पहचान में प्रतिरोध और सम्मान की भावना उत्पन्न की।
- लैंगिक समानता, अंतर्जातीय विवाह और नास्तिकता को बढ़ावा दिया , इस प्रकार मन की मुक्ति को बढ़ावा दिया, जो राजनीतिक स्वतंत्रता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- द्रविड़ राजनीतिक आंदोलनों और गैर-ब्राह्मण आंदोलन को प्रेरित किया, राष्ट्रवादी संघर्ष में समावेशी लोकतांत्रिक भागीदारी का निर्माण किया।
निष्कर्ष:
विचारधारा और भौगोलिक दृष्टि से अलग-अलग होने के बावजूद आर्य समाज और आत्म-सम्मान आंदोलन ने सामाजिक रूप से जागरूक और राजनीतिक रूप से संगठित भारत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जैसा कि इतिहासकार बिपिन चंद्र ने सटीक रूप से कहा है, " सामाजिक सुधार आंदोलनों ने आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के लिये वैचारिक और सांस्कृतिक आधार तैयार किया ।"