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दिवस 37:  "विधि न्यूनतम मानकों को निर्धारित करती है, जबकि नैतिकता उच्च आदर्शों की ओर अग्रसर करती है।" उदाहरणों सहित स्पष्टीकरण दीजिये कि जब शासन में नैतिकता का अभाव होता है, तो विधिक कमियों का दुरुपयोग किस प्रकार होता है। (150 शब्द)

28 Jul 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 4 | सैद्धांतिक प्रश्न

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • कानून और नैतिकता के बीच अंतर स्पष्ट कीजिये।
  • उपर्युक्त उद्धरण के मूल विचार की व्याख्या कीजिये और उदाहरणों का उपयोग करते हुए विवेचना कीजिये कि नैतिक मूल्यों के अभाव में विधिक कमियों का किस प्रकार लाभ उठाया जाता है।
  • उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

जहाँ कानून न्यूनतम प्रवर्तनीय नियमों का कार्यढाँचा प्रदान करता है, वहीं नैतिकता विवेक-प्रेरित आचरण को दर्शाती है जो उच्च नैतिक मूल्यों की ओर अग्रसर होता है। शासन-प्रशासन में यदि नैतिकता का अभाव हो, तो लोग प्रायः कानूनी अस्पष्टताओं का दुरुपयोग करने लगते हैं जिससे कानून की मूल भावना निष्प्रभ हो जाती है।

मुख्य भाग:

कानून और नैतिकता के बीच अंतर:

पहलू

कानून

नैतिकता

प्रकृति

संहिताबद्ध, राज्य द्वारा प्रवर्तनीय

अलिखित, सामाजिक और व्यक्तिगत मूल्यों पर आधारित

उद्देश्य

व्यवस्था बनाए रखना और गलत कार्यों को रोकना

अच्छाई, न्याय और निष्पक्षता को बढ़ावा देना

अनुपालन

बाह्य, दंड द्वारा लागू

आंतरिक, विवेक और सत्यनिष्ठा द्वारा निर्देशित

लचीलापन

प्रायः कठोर और विकसित होने में धीमा

गतिशील और संदर्भ-संवेदनशील

  • नैतिकता जनहित की रक्षा सुनिश्चित करती है, चाहे कानून मौन हो या अस्पष्ट हो।
    • उदाहरण के लिये, सिविल सेवाओं में पार्श्व प्रवेश कानूनी रूप से स्वीकार्य है, लेकिन पारदर्शी और नैतिक चयन प्रक्रिया के बिना पक्षपात के लिये इसका दुरुपयोग किया जा सकता है।
  • नैतिक प्रतिबद्धता के बिना विधिक अनुपालन व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिये नियमों में हेरफेर को सक्षम बनाता है।     
    • चुनावी बॉण्ड, हालाँकि कानूनी रूप से स्वीकृत हैं, लेकिन अपारदर्शी राजनीतिक वित्तपोषण को सक्षम करने और चुनावी अखंडता से समझौता करने पर सर्वोच्च न्यायालय (2024) द्वारा इसकी आलोचना की गई थी।
  • कॉरपोरेट शासन में विफलताएँ प्रायः उन कानूनी खामियों से उत्पन्न होती हैं जिन्हें नैतिक दायित्व के बिना प्रयोग किया जाता है।
    • IL&FS संकट और सत्यम घोटाले में कागज़ी तौर पर नियमों का पालन किया गया, लेकिन वित्तीय पारदर्शिता एवं हितधारकों के प्रति ज़िम्मेदारी जैसे नैतिक दायित्वों की अनदेखी की गई।
  • जब प्रशासनिक विवेक में नैतिकता का अभाव होता है, तब वह समस्या बन जाता है।
    • भूमि अधिग्रहण या पर्यावरणीय मंज़ूरियों में विवेकाधीन शक्तियाँ प्रायः कानूनी रूप से उचित होती हैं, लेकिन नैतिक रूप से संदिग्ध होती हैं, जैसा कि नियमगिरि में वेदांत जैसे मामलों में देखा गया है।
  • कानून भले ही रोक न लगाए, लेकिन नैतिकता कार्रवाई की माँग करती है।
    • लोक सेवक कानूनी रूप से निर्धारित समय से अधिक काम करने के लिये बाध्य नहीं हैं, लेकिन नैतिक प्रतिबद्धता के लिये उनसे मानवीय संकटों, जन शिकायतों आदि का समाधान करने की अपेक्षा की जाती है, जैसा कि वर्ष 2013 के उत्तराखंड बाढ़ में देखा गया था।
  • कानून तकनीकी छूट की अनुमति दे सकते हैं, लेकिन नैतिकता नैतिक उत्तरदायित्व से पीछे हटने की अनुमति नहीं देती।
    • बड़े मुनाफे के बावजूद तकनीकी आधार पर CSR छूट का दावा करने वाली कंपनियाँ समाज के प्रति नैतिक ज़िम्मेदारी से बचती हैं, जिससे कंपनी अधिनियम की धारा 135 की भावना कमज़ोर होती है।
  • व्हिसलब्लोअर सुरक्षा कानून विद्यमान हैं, लेकिन खुलासों को प्रोत्साहित करने के लिये नैतिक प्रशासन की आवश्यकता है।
    • व्यापम घोटाले में, यदि विधिक सुरक्षा विफल रही; तो नैतिक संस्कृति के अभाव ने भी भय और चुप्पी को जन्म दिया।

निष्कर्ष:

जहाँ कानून शासन का आधार तय करता है, वहीं नैतिकता उसकी ऊँचाई निर्धारित करती है। केवल विधि पर आधारित व्यवस्था, अगर नैतिकता से शून्य हो, तो वह छल-कपट और नैतिक पतन का शिकार हो सकती है। जब कानूनों के क्रियान्वयन में नैतिक मूल्यों का मार्गदर्शन होता है, तभी शासन वास्तव में जनहित की सेवा कर सकता है, उत्तरदायित्व सुनिश्चित कर सकता है और संवैधानिक नैतिकता को बनाए रख सकता है।