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दिवस -1: पाली और प्राकृत जैसी भाषाओं को शास्त्रीय दर्जा दिये जाने के महत्त्व पर चर्चा कीजिये, विशेषकर भारत की भाषाई विविधता और सभ्यतागत पहचान के संदर्भ में। (150 शब्द)

16 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | संस्कृति

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • शास्त्रीय भाषा के संक्षिप्त विवरण के साथ उत्तर की शुरुआत कीजिये।
  • शास्त्रीय स्थिति के लिये मानदंड की रूपरेखा बताइए।
  • पाली और प्राकृत को शास्त्रीय दर्जा प्रदान करने के महत्त्व को समझाइये।
  • समकालीन प्रासंगिकता के साथ निष्कर्ष लिखिये।

परिचय:

हाल ही में भारत सरकार ने मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बांग्ला भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्रदान किया है। ये भाषाएँ भारत की प्राचीन और समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर की संरक्षक हैं, और प्रत्येक समुदाय की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों को प्रतिबिंबित करती हैं।

मुख्य भाग:

भाषाई विविधता का महत्त्व:

  • स्थानीय बौद्धिक परंपराओं का संरक्षण:
    • पाली और प्राकृत संस्कृतेतर साहित्यिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो प्राचीन काल में जनसामान्य की भाषा रही हैं।
    • पाली ग्रंथ ‘त्रिपिटक’ (लगभग ईसा पूर्व 3री सदी) थेरवाद बौद्ध धर्म का मूल आधार है, जिसमें दर्शन, आचार-संहिता और नैतिक शिक्षाएं निहित हैं।
    • प्राकृत साहित्य, जैसे गाथा सप्तशती (ईसा पूर्व 1री सदी), प्रेम, प्रकृति और दैनिक जीवन जैसे विषयों को दर्शाता है, जो एक समृद्ध लौकिक परंपरा की ओर संकेत करता है।
  • भाषाई समावेशिता
    • इन भाषाओं को मान्यता देना भारत की बहुभाषी विरासत की रक्षा करता है और केवल संस्कृत-प्रधान दृष्टिकोण से आगे बढ़ता है।
    • बौद्ध और जैन समुदायों की भाषायी अभिव्यक्तियों को मान्यता मिलती है, जो आज भी धार्मिक संदर्भों में पाली और प्राकृत का प्रयोग करते हैं।
    • जैन आगम, जो अर्द्धमागधी प्राकृत में रचित हैं, जैन दर्शन और आचार के मूल स्रोत हैं।
  • शैक्षणिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान:
    • शास्त्रीय दर्जा विद्वानों के शोध, प्राचीन ग्रंथों के अनुवाद और अकादमिक पाठ्यक्रम में एकीकरण को प्रोत्साहित करता है।
    • नव नालंदा महाविहार और जैन विश्व भारती जैसे संस्थान इन भाषाओं के पुनरुद्धार में लगे हुए हैं।

सभ्यतागत पहचान के लिये महत्त्व:

  • आध्यात्मिक बहुलवाद:
    • दोनों भाषाएँ भारत की विविध दार्शनिक परंपराओं के स्तंभ हैं - बौद्ध धर्म के लिये पाली और जैन धर्म के लिये प्राकृत- जो अहिंसा, वैराग्य और करुणा जैसे मूल्यों को बढ़ावा देती हैं।
  • सांस्कृतिक निरंतरता और राष्ट्रीय पहचान:
    • प्राकृत लिपि में अशोक के शिलालेख धम्म प्रचार और प्रशासनिक नीति के अमूल्य साक्ष्य प्रदान करते हैं।
    • ये भाषाएँ प्राचीन और आधुनिक के बीच सेतु का कार्य करती हैं तथा सभ्यतागत ज्ञान की निरंतरता सुनिश्चित करती हैं।
  • भारतीय चिंतन का वैश्विक पुनरुत्थान: पाली और प्राकृत भाषाओं की मान्यता ने भारतीय दार्शनिक परंपराओं में नए सिरे से वैश्विक रुचि को बढ़ावा दिया है।
    • दलाई लामा जैसे वैश्विक नेता पाली ग्रंथों की आधुनिक नैतिक और आध्यात्मिक प्रासंगिकता को उजागर करते हैं।
    • पाली भाषा भारत को श्रीलंका, म्याँमार और थाईलैंड जैसे बौद्ध बहुल देशों से सांस्कृतिक रूप से जोड़ती है, जिससे सांस्कृतिक कूटनीति को बल मिलता है।

निष्कर्ष:

पाली और प्राकृत को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देना केवल भाषाओं के संरक्षण का कार्य नहीं है, बल्कि यह भारत की सभ्यतागत चेतना को पुनर्जीवित करने, समावेशी भाषायी पहचान को बढ़ावा देने, और विश्व के समक्ष भारत की बहुलतावादी आध्यात्मिक विरासत को प्रस्तुत करने का एक सशक्त माध्यम है।