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दिवस- 4: "स्वतंत्रता के पश्चात के दशकों के दौरान भारत की विदेश नीति ने विदेशों में एक नैतिक शक्ति की छवि प्रस्तुत की, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर इसे स्थापित करने के लिये संघर्ष किया।" चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

19 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण :

  • भारत की स्वतंत्रता के बाद की विदेश नीति का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
  • वैश्विक मंच पर एक नैतिक शक्ति के रूप में भारत पर चर्चा कीजिये।
  • क्षेत्रीय शक्ति का दावा करने में संघर्ष पर चर्चा कीजिये।
  • यह निष्कर्ष दीजिये कि भारत के आदर्शवाद ने वैश्विक सद्भावना प्राप्त की, लेकिन व्यावहारिक राजनीति, क्षमता की सीमाओं और रणनीतिक गलत अनुमानों ने क्षेत्रीय नेतृत्व को बाधित किया।

परिचय:

स्वतंत्रता के बाद के दशकों में भारत की विदेश नीति, विशेष रूप से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अधीन, गुटनिरपेक्षता, उपनिवेशवाद-विरोध, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और वैश्विक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित थी। इस नैतिक और आदर्शवादी अभिविन्यास ने भारत को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठा अर्जित करने में मदद की। हालाँकि नैतिक शक्ति की इस छवि का टकराव पड़ोस में सीमित प्रभाव और जटिल संबंधों से हुआ।

मुख बिंदु:

वैश्विक मंच पर नैतिक शक्ति के रूप में भारत

  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के संस्थापक सदस्य:
    • भारत ने वर्ष 1961 में यूगोस्लाविया, मिस्र, घाना और इंडोनेशिया के साथ मिलकर NAM की स्थापना की थी।
    • शीत युद्ध के दौरान सामरिक स्वायत्तता पर नेहरू का जोर तथा अमेरिका या सोवियत संघ के साथ गठबंधन से इनकार, सैद्धांतिक तटस्थता और शांति के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
  • वि-उपनिवेशीकरण और नस्लीय समानता के चैंपियन:
    • भारत ने अफ्रीका और एशिया में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों का समर्थन किया। यह दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का मुखर विरोधी था, जिसने नस्लवादी शासन के साथ राजनयिक संबंध बनाने से इनकार कर दिया और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रतिबंधों का समर्थन किया।
    • नामीबिया, जिम्बाब्वे और इंडोनेशिया जैसे देशों को भारत का समर्थन वैश्विक दक्षिण के साथ उसकी एकजुटता को रेखांकित करता है।
  • वैश्विक निरस्त्रीकरण की समर्थन:
    • भारत सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण के शुरुआती समर्थकों में से एक था। वर्ष 1954 में नेहरू का परमाणु परीक्षण पर "स्थिर समझौते" का प्रस्ताव प्रभावशाली था, हालाँकि असफल रहा।
    • भारत ने नैतिक आधार पर परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया और इसे भेदभावपूर्ण बताया।
  • संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना में योगदान:
    • भारत संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में एक प्रमुख योगदानकर्त्ता के रूप में उभरा, विशेष रूप से कांगो (1960 के दशक) में और बाद में लेबनान, सूडान और सिएरा लियोन जैसे देशों में।
    • इन मिशनों से भारत की छवि एक ज़िम्मेदार, शांतिप्रिय राष्ट्र के रूप में बढ़ी।

क्षेत्रीय शक्ति स्थापित करने में संघर्ष

  • पाकिस्तान के साथ युद्ध और शत्रुता:
    • भारत ने पाकिस्तान के साथ चार युद्ध लड़े (वर्ष 1947-48, 1965, 1971, 1999)।
    • कश्मीर मुद्दा, विभाजन की विरासत और आपसी शत्रुता के कारण भारत एक प्रमुख पड़ोसी के साथ सहयोगात्मक संबंध विकसित करने में विफल रहा।
    • यहाँ तक ​​कि वर्ष 1971 के युद्ध में विजय और बांग्लादेश के निर्माण से भी स्थायी शांति स्थापित नहीं हुई।
  • चीन के साथ वर्ष 1962 का युद्ध:
    • चीन के साथ भारत का पंचशील समझौता (1954) आदर्शवाद पर आधारित था, लेकिन वर्ष 1962 के चीन-भारत युद्ध ने नेहरूवादी विदेश नीति की सीमाओं को उजागर कर दिया।
  • श्रीलंका में IPKF (1987-1990):
    • भारतीय शांति सेना (IPKF) के माध्यम से श्रीलंका में भारत का हस्तक्षेप उल्टा पड़ गया।
    • प्रारंभ में लिट्टे को निरस्त्र करने के लिये आमंत्रित किये जाने पर भारतीय सैनिक एक लंबे संघर्ष में फंस गए, जिसके परिणामस्वरूप भारी क्षति हुई तथा श्रीलंकाई तमिलों और सिंहली लोगों में समान रूप से आक्रोश फैल गया।
  • छोटे पड़ोसियों देशों के साथ कठिनाइयाँ:
  • भारत की "बड़े भाई" की छवि ने नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और मालदीव जैसे देशों के साथ टकराव उत्पन्न कर दिया।
  • नेपाल के साथ नाकेबंदी और व्यापार विवादों के कारण संबंध तनावपूर्ण हो गए।
  • मालदीव (1988) में भारत का सैन्य हस्तक्षेप (ऑपरेशन कैक्टस) सफल रहा, लेकिन इससे हस्तक्षेपवाद को लेकर चिंताएँ उत्पन्न हुईं।
  • बांग्लादेश ने तीस्ता जल समझौते और सीमा प्रबंधन में भारत की धीमी प्रगति पर नाराज़गी जताई।

निष्कर्ष:

जैसा कि विद्वान सुनील खिलनानी ने “द आइडिया ऑफ इंडिया” में लिखा है, "नेहरू की विदेश नीति भारत को सिर्फ रणनीतिक रूप से ही नहीं, बल्कि नैतिक रूप से भी महत्त्वपूर्ण बनाने के बारे में थी।" भारत ने अपने नैतिक रुख के कारण वैश्विक मंच पर सम्मान प्राप्त किया, लेकिन दक्षिण एशिया में व्यावहारिक जटिलताओं ने इसकी सीमाएँ उजागर कीं। यह द्वंद्व भारतीय विदेश नीति में आदर्शवाद और व्यावहारिकता के बीच स्थायी तनाव को उजागर करता है, एक ऐसा तनाव जो आज भी इसके रणनीतिक विकल्पों को आकार दे रहा है।