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दिवस -3: "गांधीवादी युग समाजवादी, क्रांतिकारी और सांप्रदायिक धाराओं के उदय के साथ मेल खाता है, जो अभिजात वर्ग के नेतृत्त्व से जन-आधारित राजनीति में बदलाव को दर्शाता है।" भारतीय राष्ट्रवाद के चरित्र को बदलने में इन विविध वैचारिक प्रभावों की परस्पर क्रिया का मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)

18 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • गांधीवादी युग (लगभग 1919-1948) का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  • दर्शाइये कि गाँधीवादी राष्ट्रवाद के साथ-साथ किन-किन भिन्न विचारधाराओं का उदय हुआ।
  • इन विचारधाराओं के परस्पर संबंधों का मूल्यांकन कीजिये।
  • अंततः संक्षेप में यह बताइये कि इन सभी विचारधाराओं ने मिलकर भारतीय राष्ट्रवाद को किस प्रकार रूपांतरित किया।

परिचय:

गांधीवादी युग (1919-1948) ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक निर्णायक परिवर्तन को चिह्नित किया। गांधीजी की जन-सक्रियता पर आधारित रणनीतियों ने राष्ट्रवाद की प्रकृति को मूलतः बदल दिया। यह अब केवल अभिजात वर्ग द्वारा संचालित, शहरी-केंद्रित और संवैधानिक सीमाओं तक सीमित न रहकर जनआधारित, सहभागी एवं भावनात्मक रूप से उद्दीप्त हो गया। हालाँकि गांधीवादी राष्ट्रवाद के समानांतर समाजवादी, क्रांतिकारी और सांप्रदायिक विचारधाराएँ भी उभरीं, जिन्होंने कभी इस काॅन्ग्रेस-नेतृत्व वाले विमर्श को चुनौती दी, तो कभी उसे सहारा दिया और कभी उसका विरोध भी किया।

मुख्य भाग:

  • गांधीवादी राष्ट्रवाद: अभिजात वर्ग-आधारित से लेकर जन-आधारित राष्ट्रवाद तक
  • गांधीजी का आगमन और असहयोग आंदोलन (1920) की शुरुआत एक दृष्टिकोण में बुनियादी परिवर्तन का संकेत थी, जिसने जाति, लैंगिक एवं क्षेत्रीय सीमाओं के पार करोड़ों भारतीयों को सक्रिय रूप से जोड़ा।
  • गांधीजी के अहिंसा, सत्याग्रह, स्वदेशी और आध्यात्मिक राजनीति पर बल ने राष्ट्रवाद को सामान्य जन के घरों तक पहुँचा दिया।
  • नमक सत्याग्रह (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) जैसे आंदोलनों में स्त्रियों, कृषकों एवं श्रमिकों की अभूतपूर्व भागीदारी देखी गई।
  • गांधी ने राजनीतिक स्वतंत्रता को सामाजिक सुधारों से जोड़ा, जैसे: अस्पृश्यता का उन्मूलन, खादी का प्रोत्साहन और ग्राम-आधारित आत्मनिर्भरता।

समाजवादी विचारधारा: आर्थिक न्याय और वर्ग राजनीति

  • वैश्विक समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस तथा बाद में काॅन्ग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (1934) जैसे नेताओं ने आर्थिक समानता, भूमि पुनर्वितरण और राज्य-नेतृत्व वाले औद्योगीकरण पर बल दिया।
  • ऑल इंडिया किसान सभा (1936) और अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काॅन्ग्रेस (AITUC) की स्थापना ने किसान एवं मज़दूर आंदोलनों को सशक्त बनाया, जो प्रायः काॅन्ग्रेस की कार्यप्रणाली के भीतर या समानांतर रूप से संचालित होते थे।
  • लाहौर अधिवेशन (1929) में नेहरू के भाषण ने समाजवादी आदर्शों को प्रतिध्वनित किया, जिसमें केवल राजनीतिक नहीं बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भी पूर्ण स्वराज की मांग की गई थी।

क्रांतिकारी विचारधारा: सशस्त्र प्रतिरोध और युवा कट्टरपंथ

  • उदारवादी और गांधीवादी दृष्टिकोण से मोहभंग होने पर भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) जैसे समूहों के तहत उग्रवादी गतिविधियाँ शुरू कीं।
  • भगत सिंह का समाजवाद की ओर वैचारिक झुकाव और उनके लेखन (मैं नास्तिक क्यों हूँ) ने केवल राजनीतिक स्वराज की ही नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति की भी आवश्यकता पर बल दिया।
  • वे पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद और धार्मिक रूढ़िवाद को उत्पीड़न की परस्पर जुड़ी प्रणालियों के रूप में देखते थे।
  • उन्होंने प्रतिरोध का एक सार्वजनिक प्रदर्शन किया, जिसका उद्देश्य भारतीय युवाओं में राष्ट्रवादी भावनाओं को जागृत करना था।

सांप्रदायिक विचारधाराएँ: पहचान की राजनीति और विभाजन

  • मॉर्ले-मिंटो सुधार (1909) के अंतर्गत पृथक निर्वाचिका प्रणाली और बाद में कम्युनल अवॉर्ड (1932) के माध्यम से धार्मिक विभाजन के बीज बोये गये।
  • मुस्लिम लीग, जो आरंभ में उदार थी, धीरे-धीरे जिन्ना के नेतृत्व में अलग राष्ट्र की माँग तक पहुँच गयी (लाहौर प्रस्ताव, 1940)।
  • हिंदू महासभा ने भी एक हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का स्वरूप अपनाया, जिससे राजनीति में ध्रुवीकरण और बढ़ा।
  • हालाँकि आरंभिक चरणों में सांप्रदायिकता प्रमुख धारा नहीं थी, लेकिन यह स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में निर्णायक रूप में उभरी और अंततः वर्ष 1947 में विभाजन का कारण बनी।

विविध विचारधाराओं का परस्पर प्रभाव और 

  • इन विचारधाराओं के बीच प्रायः प्रभुत्व के लिये प्रतिस्पर्द्धा रही, फिर भी जटिल तरीकों से उनका सह-अस्तित्व रहा।
  • यद्यपि क्रांतिकारी आंदोलन काॅन्ग्रेस से बाहर संचालित होते थे, तथापि उनका उद्देश्य भी उपनिवेश-विरोधी मुक्ति ही था।
  • सामूहिक रूप से, इन सभी विचारधाराओं ने भारतीय राष्ट्रवाद को समृद्ध किया, जिससे वह बहुस्तरीय बन गया तथा इसने भारत की विविधता का अधिक प्रतिनिधित्व किया।
  • हालाँकि, वैचारिक विखंडन (विशेषकर सांप्रदायिकता) ने भी राष्ट्रीय एकता को कमज़ोर किया, जिसके परिणामस्वरूप विभाजन जैसे दुखद परिणाम सामने आए।

निष्कर्ष:

जैसा कि इतिहासकार सुमित सरकार लिखते हैं, "1920 और 1930 के दशक में भारतीय जनता का राजनीति में आगमन हुआ—गांधी के माध्यम से, पर केवल गांधी तक सीमित नहीं।"
जहाँ गांधीवादी सिद्धांतों ने नैतिक प्रतिरोध की नींव रखी, वहीं समाजवादी और क्रांतिकारी धाराओं ने उस दृष्टिकोण को सामाजिक-आर्थिक स्तर पर विस्तृत किया। यहाँ तक कि सांप्रदायिक प्रवृत्तियाँ भी, यद्यपि विभाजनकारी थीं, परंतु वे पहचान-आधारित राजनीति की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करती थीं।