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दिवस 14: "शासन के विकेंद्रीकरण की प्रभावशीलता तभी संभव है जब उसे कार्यात्मक स्वायत्तता, वित्तीय सशक्तीकरण और उत्तरदायित्व द्वारा समर्थित किया जाये।" इस संदर्भ में, 73वें और 74वें संविधान संशोधनों द्वारा स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)

01 Jul 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण : 

  • इस संदर्भ में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों के उद्देश्य का संक्षेप में परिचय दीजिये।
  • इन संवैधानिक संशोधनों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये।
  • आगे की राह बताते हुए एक विवेकपूर्ण टिप्पणी के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये। 

परिचय:

विकेंद्रीकरण सहभागी लोकतंत्र की आधारशिला है। 73वें और 74वें संविधान संशोधनों (1992) के माध्यम से भारत ने पंचायती राज संस्थाओं (PRI) तथा शहरी स्थानीय निकायों (ULB) को संवैधानिक मान्यता देकर स्थानीय स्वशासन को संस्थागत रूप प्रदान किया। इन सुधारों ने स्थानीय स्तर पर सशक्तीकरण की नींव तो रखी, लेकिन इनकी सफलता कार्यात्मक स्वायत्तता, वित्तीय सशक्तीकरण और उत्तरदायित्व की प्रभावी व्यवस्थाओं पर निर्भर है।

मुख्य भाग: 

कार्यात्मक स्वायत्तता:

  • ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूचियों में क्रमशः पंचायती राज संस्थाओं (PRI) के लिये   29 तथा शहरी स्थानीय निकायों (ULB) के लिये 18 कार्यों का उल्लेख किया गया है।
  • हालाँकि, कई राज्यों ने इन विषयों को पूरी तरह से हस्तांतरित नहीं किया है और राज्य स्तर के विभागों तथा समानांतर एजेंसियों के माध्यम से नियंत्रण बनाए रखा है।
  • केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों ने महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ हस्तांतरित की हैं, जबकि अन्य राज्य पीछे रह गए हैं, जिससे भूमिका की अस्पष्टता तथा राज्य कार्यपालिका पर निर्भरता बढ़ गई है।

वित्तीय सशक्तीकरण: 

  • पंचायती राज संस्थाओं (PRI) और शहरी स्थानीय निकायों (ULB) के पास सीमित राजस्व संग्रहण की शक्तियाँ हैं, जिनमें संपत्ति कर तथा उपभोक्ता शुल्क मुख्य स्रोत हैं।
  • इनकी राज्य वित्त आयोग (SFC) की सिफारिशों और केंद्र व राज्य सरकारों से मिलने वाले अनुदानों पर निर्भरता बनी रहती है।
  • 15वें वित्त आयोग ने 2021–26 की अवधि के लिये स्थानीय निकायों को ₹4.36 लाख करोड़ आवंटित किये थे, लेकिन क्षमता की कमी और प्रक्रियात्मक अड़चनों के कारण इनका उपयोग अपेक्षाकृत कम रहा है।
  • कई राज्यों में या तो राज्य वित्त आयोग समय पर गठित नहीं किये जाते या फिर उनकी सिफारिशों को प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जाता।

जवाबदेही और प्रतिनिधित्व

  • संविधान संशोधनों ने पारदर्शिता और नागरिक भागीदारी को बढ़ाने के लिये ग्राम सभाओं तथा वार्ड समितियों की अनिवार्यता तय की थी।
  • लेकिन व्यवहार में ये निकाय प्रायः प्रभावहीन रहते हैं, कम उपस्थिति, राजनीतिकरण और सीमित जागरूकता जैसी समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं।
  • महिलाओं (33%, जिसे कई राज्यों में 50% तक बढ़ाया गया है) और अनुसूचित जाति/जनजातियों के लिये सीटों के आरक्षण ने प्रतिनिधित्व को तो बढ़ावा दिया है, लेकिन सीमित प्रशिक्षण तथा स्वायत्तता के कारण प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो पाई है।

आगे की राह:

  • अनिवार्य हस्तांतरण की रूपरेखा: राज्यों को गतिविधि मानचित्रण (Activity Mapping) अपनाना चाहिये, जिससे स्थानीय निकायों को कार्य, कार्मिक और वित्त (3F) का स्पष्ट आवंटन सुनिश्चित किया जा सके।
  • सशक्त राज्य वित्त आयोग: राज्य वित्त आयोगों का नियमित गठन किया जाए और उनकी सिफारिशों को स्वतंत्र सचिवालय तथा विधिक समर्थन के साथ प्रभावी रूप से लागू किया जाए।
  • क्षमता विकास: निर्वाचित प्रतिनिधियों और स्थानीय कर्मचारियों को योजना निर्माण, बजट प्रबंधन और डिजिटल शासन में निरंतर प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
  • डिजिटल एकीकरण: ई-ग्राम स्वराज, ऑडिट ऑनलाइन और स्वामित्व जैसी डिजिटल पहलों का विस्तार पारदर्शिता तथा जवाबदेही के लिये किया जाए।
  • विधायी और राजनीतिक इच्छाशक्ति: संशोधनों की भावना के अनुरूप मॉडल पंचायती राज और नगरपालिका कानूनों को लागू किया जाए तथा राज्य स्तर के नियंत्रण को कम किया जाए।

निष्कर्ष:

जैसा कि राजनीतिक विचारक डॉ. नीरजा गोपाल जयाल ने उपयुक्त रूप से कहा:

"भारत में विकेंद्रीकरण की विफलता खराब संरचना के कारण नहीं, बल्कि कमज़ोर क्रियान्वयन और स्थानीय क्षमताओं पर विश्वास की कमी के कारण हुई है।"

गांधीजी के ग्राम स्वराज के दृष्टिकोण को साकार करने के लिये भारत को प्रतीकात्मक सत्ता हस्तांतरण से आगे बढ़ते हुए वास्तविक स्वायत्तता, पर्याप्त वित्तीय संसाधनों और नागरिक केंद्रित शासन के प्रति प्रतिबद्ध होना होगा। तभी विकेंद्रीकरण वास्तव में समावेशी लोकतंत्र और विकास का एक सशक्त माध्यम बन सकेगा।