25 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारतीय समाज पर वैश्वीकरण के दोहरे प्रभाव की संक्षेप में व्याख्या करते हुए उत्तर लेखन आरंभ कीजिये।
- दी गई सामाजिक संस्थाओं और मापदंडों के संदर्भ में इस पर चर्चा कीजिये।
- एक विवेकपूर्ण टिप्पणी के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
वैश्वीकरण भारत में सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त कारक रहा है। अर्थव्यवस्था, सूचना और संस्कृति के अपने परस्पर जुड़े नेटवर्क के साथ, इसने पारंपरिक मानदंडों को चुनौती दी है तथा व्यक्तिगत स्वायत्तता एवं पहचान के लिये नए मार्ग प्रशस्त किये हैं। यद्यपि, इसने अनेक पारंपरिक संस्थाओं को बाधित किया है, तथापि विवाह, परिवार एवं पीढ़ीगत संबंधों जैसे क्षेत्रों में यह पारंपरिक सामाजिक श्रेणियों को आधुनिक रूपों में संरक्षित और पुनर्परिभाषित भी कर रहा है।
मुख्य भाग:
पारंपरिक संस्थाओं का विघटन
- विवाह प्रथाएँ: वैश्वीकरण के प्रभाव से मीडिया, शिक्षा और डिजिटल माध्यमों के माध्यम से उदार विचारों का प्रसार बढ़ा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि विशेषकर शहरी क्षेत्रों में प्रेम विवाहों, अंतर-जातीय तथा अंतर-धार्मिक विवाहों की प्रवृत्ति में वृद्धि देखने को मिली है।
- आजकल Shaadi.com जैसे वैवाहिक प्लेटफॉर्मों पर जाति के अतिरिक्त रुचियों और शैक्षिक पृष्ठभूमि के आधार पर भी वरीयताएँ निर्धारित करने के विकल्प उपलब्ध हैं।
- 'लोक फाउंडेशन' के एक सर्वेक्षण (वर्ष 2018) के अनुसार शहरी युवाओं में लगभग 15% ने अंतर-जातीय विवाह को प्राथमिकता दी, जो पिछले दशकों की तुलना में एक उल्लेखनीय वृद्धि है।
- इसके अतिरिक्त, विशेष विवाह अधिनियम अंतर-धार्मिक विवाहों को कानूनी वैधता प्रदान करता है, जो पारंपरिक मानदंडों के स्थान पर व्यक्तिगत चयन को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति का संकेत है।
- पारिवारिक संरचना: संयुक्त परिवार प्रणाली के स्थान पर अब नगरीय क्षेत्रों में मुख्यतः एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है, जिसका मुख्य कारण कॅरियर की गतिशीलता, सीमित आवासीय स्थान तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता है।
- कामकाजी महिलाएँ, विलंबित विवाह तथा दोहरी आय वाले परिवार पारंपरिक पितृसत्तात्मक नियंत्रण को चुनौती दे रहे हैं।
- एकल अभिभावक परिवारों की वृद्धि, 'लिव-इन' रिलेशनशीप की स्वीकृति तथा अविवाहित महिलाओं द्वारा दत्तक ग्रहण जैसे प्रवृत्तियाँ सामाजिक मान्यताओं में परिवर्तन को दर्शाती हैं।
- पीढ़ीगत मूल्य परिवर्तन: वैश्वीकरण ने युवाओं में व्यक्तिवाद, योग्यता आधारित मूल्य प्रणाली तथा उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया है।
- अब युवा पीढ़ी की आकांक्षाएँ पारिवारिक विरासत की अपेक्षा वैश्विक बाज़ार से अधिक प्रभावित होती हैं।
- उद्यमशीलता, गिग इकॉनमी और लचीले कार्य स्वरूपों की लोकप्रियता सरकारी नौकरी की स्थिरता वाले पारंपरिक आदर्श से एक स्पष्ट विचलन है।
- सोशल मीडिया तथा जन-संस्कृति (पॉप-कल्चर) ने वस्त्र, संबंध तथा कॅरियर जैसे मुद्दों पर बुज़ुर्गों की नैतिक सत्ता को कमज़ोर किया है।
पदानुक्रमिक आधार का सुदृढ़ीकरण
- जाति और वैवाहिक प्राथमिकताएँ:
- भले ही सामाजिक परिवर्तन हुए हों, परंतु विवाह के क्षेत्र में जातीय एंडोगैमी (अंतर्विवाह) आज भी वैवाहिक प्राथमिकताओं पर हावी है।
- भारत मानव विकास सर्वेक्षण (सत्र 2011–12) के अनुसार, 95% विवाह आज भी जाति के भीतर ही संपन्न होते हैं।
- अंतर-जातीय विवाहों के विरुद्ध होने वाली ‘ऑनर किलिंग’ तथा जाति आधारित हिंसा यह संकेत देती है कि विवाह के माध्यम से सामाजिक गतिशीलता को आज भी गंभीर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है।
- परिवारों में लिंग आधारित पदानुक्रम:
- यद्यपि महिलाएँ अब कार्यबल में भागीदारी कर रही हैं, फिर भी उन्हें ‘दोहरे बोझ’ अर्थात् वेतनहीन घरेलू श्रम और पितृसत्तात्मक अपेक्षाओं का सामना करना पड़ता है।
- ग्लास सीलिंग, घरेलू हिंसा और असमान उत्तराधिकार कानून इन संरचनात्मक विषमताओं को और दृढ़ करते हैं।
- विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में बुज़ुर्ग पुरुषों का वर्चस्व आज भी निर्णायक बना हुआ है।
- अतीत का सांस्कृतिक आधिपत्य:
- मूल्य प्रणालियाँ विकसित होने के बावजूद, पारंपरिक मानदण्डों को प्रायः आधुनिक रूपों में पुनः प्रस्तुत किया जाता है।
- रियलिटी टीवी आधारित विवाह कार्यक्रम प्रायः विषमलैंगिकता और जाति-आधारित रूढ़ियों को ही पुष्ट करते हैं।
- उपभोक्तावाद भी एक प्रकार की स्थिति-आधारित प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देता है, जो किसी न किसी रूप में पुराने वर्ग एवं जाति भेद को ही प्रतिबिंबित करता है।
निष्कर्ष
भारतीय समाज पर वैश्वीकरण का प्रभाव एकरैखिक नहीं, बल्कि बहुस्तरीय और विरोधाभासी है। यह केवल पश्चिमीकरण नहीं, बल्कि परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सतत् संवाद है। समाजशास्त्री दिपांकर गुप्ता के अनुसार, “भारत में आधुनिकता परंपरा का विघटन नहीं, बल्कि परंपरा का पुनर्निर्माण है।"
यदि समाज में वास्तविक परिवर्तन सुनिश्चित करना है, तो केवल आर्थिक उदारीकरण पर्याप्त नहीं, नीतिगत ध्यान को सामाजिक समता की दिशा में भी विस्तारित करने की भी आवश्यकता है, विशेषतः सीमांत समुदायों के लिये।