25 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- क्षेत्रवाद के विचार का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- भारत में क्षेत्रवाद को स्वायत्तता की मांग के रूप में समझाइये।
- क्षेत्रवाद को समतामूलक विकास की आकांक्षा के रूप में वर्णित कीजिये।
- एक विवेकपूर्ण टिप्पणी के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।
|
परिचय:
क्षेत्रीयता का आशय किसी क्षेत्र की विशिष्ट पहचान की चेतना या उसके प्रतिपादन से है, जिसके साथ-साथ राजनीतिक स्वायत्तता या विकासात्मक न्याय की माँगें जुड़ी होती हैं। भारत में, क्षेत्रीयता एक जटिल शक्ति के रूप में उभरी है जो एक ओर अधिक स्वशासन की इच्छा को दर्शाती है और दूसरी ओर संसाधनों तथा अवसरों के समान वितरण की आवश्यकता को भी रेखांकित करती है।
मुख्य भाग:
स्वायत्तता की मांग के रूप में क्षेत्रवाद
- राज्य आंदोलन: क्षेत्रीय अविकास और प्रशासनिक उपेक्षा के आधार पर तेलंगाना का गठन (वर्ष 2014) और गोरखालैंड, विदर्भ या बुंदेलखंड की निरंतर मांग क्षेत्रवाद के राजनीतिक स्वायत्तता आयाम का उदाहरण है।
- सांस्कृतिक स्वायत्तता: मैतेई, नगा या तमिल जैसे समुदाय प्रायः सांस्कृतिक संरक्षण और भाषा, लिपि एवं स्थानीय रीति-रिवाजों के संरक्षण के माध्यम से क्षेत्रवाद का दावा करते हैं।
- संविधान का अनुच्छेद 371 और छठी अनुसूची विषम संघीय व्यवस्था प्रदान करती है जो ऐसी मांगों को स्वीकार करती है।
- उप-क्षेत्रीय स्वायत्तता: पूर्वोत्तर भारत में, कई जातीय समूह स्वायत्त ज़िला परिषदों के तहत स्वायत्तता चाहते हैं, वे जनजातीय पहचान की रक्षा के लिये भूमि, वन और शिक्षा पर नियंत्रण की मांग करते हैं।
समतामूलक विकास की मांग के रूप में क्षेत्रवाद
- अंतर-क्षेत्रीय असमानताएँ: भारत के विकास पथ ने उत्तरी राज्यों बनाम दक्षिणी राज्यों या पिछड़े बनाम प्रगतिशील ज़िलों जैसे विभाजन उत्पन्न किये हैं। हाल के वर्षों में दक्षिणी राज्यों ने वित्त आयोग द्वारा संसाधनों के वितरण (Devolution) को लेकर आपत्ति जताई है। उनका तर्क है कि जनसंख्या नियंत्रण जैसे विकासशील उपायों को अपनाने के बावजूद उन्हें संसाधनों में अपेक्षाकृत कम हिस्सा मिल रहा है, जो 'प्रदर्शन करने वाले राज्यों' के साथ अन्याय है।
- आर्थिक संघवाद और राजकोषीय स्वायत्तता: GST प्रतिपूर्ति में विलंब, उपकर अधिभार और राजस्व केंद्रीकरण जैसे मुद्दों ने केंद्र एवं राज्यों के बीच टकराव को जन्म दिया है। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार नीतियाँ बनाने के लिये अधिक राजकोषीय स्वतंत्रता की मांग की है।
- पिछड़े क्षेत्रों की उपेक्षा: विदर्भ, मराठवाड़ा और पूर्वांचल जैसे क्षेत्र राज्य की अर्थव्यवस्था में योगदान देने के बावजूद बुनियादी अवसंरचना, सिंचाई, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा में निरंतर उपेक्षा का शिकार हैं।
चुनौतियाँ और आगे की राह
यद्यपि क्षेत्रीयता स्थानीय सरोकारों को स्वर देने के माध्यम से संघीय संरचना को सुदृढ़ बना सकती है, परंतु यदि इसे अनियंत्रित छोड़ दिया जाये तो यह संकीर्णता या क्षेत्रीय दंभ का रूप ले सकती है। अतः वर्तमान समय की मांग है—
- सहकारी संघवाद को सशक्त करना, विशेषकर अंतर-राज्यीय परिषद, NITI आयोग तथा क्षेत्रीय परिषदों जैसे संस्थागत तंत्रों के माध्यम से।
- विकेंद्रीकृत शासन को बढ़ावा देना और आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम जैसी योजनाओं के अंतर्गत क्षेत्र-विशेष विकास योजना को प्राथमिकता देना।
- क्षेत्रीय वित्तीय विषमताओं का समाधान करना, जिसमें वित्तीय संसाधनों के न्यायसंगत वितरण और संस्थानात्मक क्षमता निर्माण की पहलें शामिल हों।
निष्कर्ष:
ग्रैनविल ऑस्टिन के शब्दों में, "भारतीय संविधान संघवाद, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की एक निर्बाध संरचना है।"
क्षेत्रीयता इन तीनों ही मूल्यों की अभिव्यक्ति करती है। जब इसे रचनात्मक दिशा में प्रयुक्त किया जाता है, तब यह समावेशी विकास और जनसहभागी शासन का साधन बनती है। ऐसी दृष्टि ही भारत को सतत् विकास लक्ष्यों— SDG10 (असमानताएँ कम करना) और SDG16 (शांति एवं न्याय और सशक्त संस्थाएँ) की ओर अग्रसर कर सकती है।