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दिवस -9: “नए मीडिया के उदय ने भारत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रकृति को बदल दिया है।” सामाजिक सामंजस्य के लिये इसके निहितार्थों का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

25 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण: 

  • नई मीडिया का संक्षेप में परिचय दीजिये।
  • चर्चा कीजिये कि नई मीडिया ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के परिदृश्य को किस प्रकार बदल दिया है।
  • सामाजिक सामंजस्य के लिये इसके निहितार्थों का विश्लेषण कीजिये।
  • एक विवेकपूर्ण टिप्पणी के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय: 

नई मीडिया, जिसमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स (फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम), मैसेजिंग ऐप (व्हाट्सएप, टेलीग्राम) और वीडियो प्लेटफॉर्म (यूट्यूब) शामिल हैं, के आगमन ने भारत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रकृति को बदल दिया है। जहाँ पारंपरिक मीडिया विनियामक मानदंडों और संपादकीय नियंत्रण के तहत संचालित होती है, वहीं नई मीडिया बहुत हद तक अनियमित, उपयोगकर्त्ता द्वारा संचालित और एल्गोरिदम द्वारा क्यूरेट की जाती है। यह परिवर्तन भारत की सामाजिक एकता पर दूरगामी प्रभाव डालता है। 

मुख्य भाग: 

भारत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का बदलता स्वरूप

  • भौतिक से डिजिटल गतिशीलता की ओर बदलाव: 
    • पूर्व में सांप्रदायिक तनाव प्रायः पर्चों, भड़काऊ भाषणों और राजनीतिक या धार्मिक समूहों द्वारा आयोजित जनसभाओं के माध्यम से फैलाया जाता था।
    • अब डिजिटल युग में यह ध्रुवीकरण सोशल मीडिया मंचों जैसे WhatsApp, Facebook, YouTube और Twitter (X) के माध्यम से कहीं अधिक तेज़ी एवं व्यापकता से फैलता है।
  • सांप्रदायिक हिंसा के उत्प्रेरक के रूप में सोशल मीडिया:
    • मुज़फ्फरनगर दंगे (वर्ष 2013): व्हाट्सएप के माध्यम से प्रसारित एक मॉर्फ किया गया वीडियो तनाव और हिंसा को भड़काने में निर्णायक भूमिका में रहा।
    • दिल्ली दंगे (वर्ष 2020): भड़काऊ सोशल मीडिया पोस्ट और नफरत से भरे वीडियो वायरल हुए, जिससे सांप्रदायिक हिंसा और गहरी हो गयी।
    • आज फर्ज़ी समाचार और भ्रामक सूचनाएँ ‘वर्चुअल माचिस की तीली’ बन चुकी हैं, जो वास्तविक दुनिया में दंगे भड़काती हैं।
  • एल्गोरिदम और डिजिटल इको चैम्बर्स की भूमिका: 
    • प्लेटफॉर्मों (जैसे: यूट्यूब, इंस्टाग्राम) के एल्गोरिद्म उपयोगकर्त्ता को एक जैसे विचारों के कंटेंट लगातार दिखाते हैं, जिससे विचारों का संकुचित दायरा बनता है जिसे ‘इको चैंबर’ कहा जाता है।
    • इससे उपयोगकर्त्ताओं को बार-बार सांप्रदायिक आख्यानों का सामना करना पड़ता है, जो पूर्वाग्रहों और ‘हम बनाम वे’ जैसी मानसिकता को मज़बूत करते हैं।  
    • घृणा एवं भावनात्मक रूप से उत्तेजक विषय-वस्तु को अधिक सहभागिता मिलने से ध्रुवीकरण बढ़ता है और कंटेंट के प्रसार को प्रोत्साहन मिलता है।
  • विकेंद्रीकरण और व्यक्तिगत प्रचारकों का उदय:
    • अब सांप्रदायिक प्रचार संगठित राजनीतिक या धार्मिक समूहों तक सीमित नहीं रह गया है।
    • एक साधारण व्यक्ति भी स्मार्टफोन और इंटरनेट की सहायता से डिजिटल प्रचारक बन सकता है और समाज में वैमनस्य फैला सकता है।   
  • कानूनी खामियाँ और जवाबदेही की कमी:
    • सोशल मीडिया पर गुमनामी और जवाबदेही का अभाव, उपयोगकर्त्ताओं को दंड के भय के बिना घृणा फैलाने वाली कंटेंट पोस्ट करने के लिये उकसाता है।
    • WhatsApp व Telegram जैसे प्लेटफॉर्मों पर ‘एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन’ के कारण कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ अपराधियों तक पहुँच नहीं बना पातीं।
    • वहीं दूसरी ओर, कानूनी कार्यढाँचे की कमज़ोरियाँ और धीमी न्यायिक प्रक्रियाएँ भी बार-बार अपराध करने वालों को रोकने में विफल रहती हैं।

सामाजिक सामंजस्य के लिये निहितार्थ

  • विश्वास का ह्रास: जब विभिन्न समुदायों के बीच आपसी संदेह बढ़ता है, तो साधारण घटनाएँ भी सांप्रदायिक रूप ले लेती हैं।  
    • सह-अस्तित्व के स्थान पर पारस्परिक संदेह के कारण अंतर-समुदाय संवाद में कमी आ रही है।
  • चुनावी ध्रुवीकरण: सांप्रदायिक आख्यानों के आधार पर मतदान व्यवहार प्रभावित होता है, जिससे लोकतांत्रिक विमर्श का तार्किक स्वरूप कमज़ोर पड़ता है।
  • युवा कट्टरपंथ: ऑनलाइन नफरत से भरे कंटेंट से नवयुवक प्रभावित होते हैं, जो वास्तविक हिंसा को जन्म दे सकती है। 
    • वर्ष 2024 में भारत में ऑनलाइन घृणा-प्रसार में 74% की वृद्धि हुई, जिसमें अधिकतर घटनाएँ अल्पसंख्यकों को लक्षित कर सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाई गईं।

आगे की राह 

  • नियमन और जवाबदेही: प्रस्तावित डिजिटल इंडिया अधिनियम जैसे कड़े डिजिटल कानूनों के माध्यम से प्लेटफॉर्मों पर कंटेंट मॉनिटरिंग को मज़बूती दी जानी चाहिये और उन्हें उत्तरदायी बनाया जाना चाहिये।
  • मीडिया साक्षरता: विद्यालय स्तर पर डिजिटल साक्षरता को पाठ्यक्रम में शामिल कर नागरिकों को फर्ज़ी समाचारों और घृणा फैलाने वाले कंटेंट की पहचान करना सिखाया जाना चाहिये।
  • नागरिक समाज की भागीदारी: डिजिटल कथा-वाचन और समुदाय आधारित ऑनलाइन अभियानों के माध्यम से अंतर-धार्मिक सौहार्द को बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • स्वतंत्र निगरानी निकाय: सोशल मीडिया की निगरानी के लिये तटस्थ और स्वतंत्र नियामक संस्थाओं की स्थापना की जानी चाहिये।

निष्कर्ष: 

नई मीडिया स्वाभाविक रूप से विभाजनकारी नहीं है, परंतु यदि उसके उपयोग के लिये नैतिक कार्यढाँचा न हो तो यह सामाजिक सौहार्द की संरचना को विखंडित कर सकता है। जैसा कि संचार-वैज्ञानिक मैनुअल कैस्टेल्स कहते हैं, "आज की सत्ता संवाद की भाषा में निहित है।" इसलिये डिजिटल रूप से जुड़े भारत को, नैतिक रूप से सजग और सामाजिक रूप से एकजुट भी होना चाहिये।