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दिवस- 7:  जाति आधारित जनगणना समता सुनिश्चित करने की दिशा में एक आवश्यक कदम है, किंतु यह जातिगत पहचान को और अधिक दृढ़ भी कर सकती है।" भारत में जाति आधारित जनगणना कराए जाने के लाभों एवं हानियों की समालोचनात्मक समीक्षा कीजिये। (250 शब्द)

23 Jun 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भारतीय समाज

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण: 

  • भारत में जाति की परिभाषा और जाति-आधारित जनगणना का संक्षेप में परिचय दीजिये।
  • भारत में जाति-आधारित जनगणना कराने के गुण और दोष का परीक्षण कीजिये।
  • आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

प्रख्यात भारतीय समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास जाति को एक ऐसी वंशानुगत, अंतर्जातीय (एंडोगैमस) और सामान्यतः स्थानीय सामाजिक इकाई के रूप में परिभाषित करते हैं, जो पारंपरिक रूप से किसी विशेष पेशे से जुड़ी होती है तथा एक निश्चित सामाजिक श्रेणीक्रम में स्थित रहती है। जातिगत जनगणना का तात्पर्य है— राष्ट्रव्यापी जनसंख्या गणना के दौरान व्यक्तियों की जातिगत पहचान से संबंधित जानकारी का व्यवस्थित संग्रह। हाल ही में भारत सरकार ने स्थगित जनगणना- 2021 में जाति-आधारित गणना को सम्मिलित करने की स्वीकृति दी है, जिससे वह परंपरा पुनः जीवित हो रही है जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बंद कर दिया गया था।

मुख्य भाग:

जाति आधारित जनगणना के लाभ

  • वर्तमान डेटा अंतराल: यद्यपि अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिये कुछ डेटा भले ही मौजूद हों, परंतु अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) व अन्य जातीय समुदायों के बारे में कोई अद्यतन एवं व्यापक राष्ट्रीय आँकड़ा नहीं है, जिससे प्रभावी नीति निर्माण में बाधा आ रही है। 
  • पिछले सर्वेक्षणों से चुनौतियों का समाधान: भारत में वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) को व्यापक एवं मानकीकृत जाति सूची की कमी के कारण काफी आलोचना का सामना करना पड़ा, जिससे डेटा संग्रह तथा विश्लेषण के दौरान कई समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
    • आगामी जातिगत जनगणना का उद्देश्य अधिक सटीक और समावेशी प्रक्रिया सुनिश्चित करके इन मुद्दों का समाधान करना है। 
  •  संवैधानिक अधिदेश और विधिक तर्क: जातिगत जनगणना अनुच्छेद 15(4), 16(4) और 340 के अनुरूप है, जो सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करते हैं।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने भी इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) के ऐतिहासिक निर्णय में ‘पिछड़ेपन’ को चिह्नित करने के लिये जाति को एक वैध कसौटी माना।
  • सकारात्मक कार्रवाई को नया स्वरूप देना: जातिगत जनगणना आरक्षण कोटा और सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों के पुनर्मूल्यांकन के लिये अद्यतन आँकड़े उपलब्ध करा सकती है। 
    • जातिगत आँकड़ों के अभाव के कारण अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या का अनुमान अस्पष्ट है; वर्ष 1931 की जनगणना के अंतिम उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52% थी, जिसने मंडल आयोग की वर्ष 1980 की आरक्षण अनुशंसाओं को प्रभावित किया था।
    • बिहार के वर्ष 2023 के जाति सर्वेक्षण में पाया गया कि अन्य पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़े वर्ग (EBC) राज्य की आबादी का 63% से अधिक हिस्सा बनाते हैं, जिससे आरक्षण एवं सामाजिक कल्याण पर नीतिगत निर्णयों को निर्देशित करने के लिये राष्ट्रीय स्तर के जातिगत आँकड़ों की मांग बढ़ गई है। 
  • व्यापक समूहों के भीतर उप-वर्गीकरण: विस्तृत डेटा अन्य पिछड़ा वर्ग के उप-वर्गीकरण को सक्षम बनाता है, जैसा कि रोहिणी आयोग (वर्ष 2017) द्वारा अनुशंसित किया गया है, ताकि आरक्षण लाभों का समान वितरण सुनिश्चित किया जा सके। 
  • राजनीतिक और चुनावी निहितार्थ: सटीक जातिगत आँकड़े सीमांत समूहों को बेहतर राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान कर सकते हैं, विशेषकर राज्य एवं राष्ट्रीय चुनावों में। 

जाति आधारित जनगणना के नुकसान

  • जातीय पहचान का पुनर्पुष्टि: आलोचकों का मत है कि जातियों की गणना से जातिगत भेदों को एक प्रकार की वैधता मिल सकती है, जो दीर्घकालिक रूप से 'जाति उन्मूलन' के उद्देश्य के विपरीत है। 
    • यह जनगणना सार्वजनिक जीवन में जातीय चेतना को कम करने की बजाय उसे और संस्थागत रूप दे सकती है।
  • राजनीतिक शोषण और प्रतिस्पर्द्धात्मक पिछड़ापन: सटीक जातिगत आँकड़े वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे पार्टियाँ चुनावी लाभ के लिये नीतियाँ बना सकती हैं। 
    • इससे राजनीतिक रूप से प्रभावशाली या उच्च जाति समूहों द्वारा OBC/ST/SC दर्जे की मांग तीव्र हो सकती है, जिससे आरक्षण कोटे पर दबाव बढ़ सकता है। 
    • इससे ‘प्रतिस्पर्द्धात्मक पिछड़ापन’ उत्पन्न हो सकता है, जहाँ समूह लाभ के लिये निम्न दर्जा चाहते हैं। 
  •  डेटा चुनौतियाँ और सटीकता संबंधी चिंताएँ: वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) में 46 लाख जातियों का उल्लेख हुआ, जिनमें अनेक अशुद्धियाँ जैसे वर्तनी त्रुटियाँ और अपुष्ट प्रविष्टियाँ थीं—जिससे वह नीति-निर्माण के लिये अनुपयोगी सिद्ध हुई। 
    • डेटा मानकीकरण, सत्यापन और पारदर्शिता सुनिश्चित करना एक तार्किक और प्रशासनिक चुनौती है।  ऐसे आँकड़ों का मानकीकरण, सत्यापन और पारदर्शिता सुनिश्चित करना प्रशासनिक दृष्टि से एक कठिन कार्य है।
  • प्रतिनिधित्व का असंतुलन: नई जाति-संबंधी जानकारी वर्ष 1931 के आँकड़ों पर आधारित वर्तमान नीतियों को चुनौती दे सकती है। इससे जातीय अनुपात के अनुरूप आरक्षण की माँगें उठ सकती हैं तथा वर्ष 1992 के इंदिरा साहनी निर्णय द्वारा निर्धारित 51% की सीमा को पुनः विचार के लिये विवश किया जा सकता है।
  •  सामाजिक एकता पर संकट:
    • जिन समूहों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है या जिन्हें बहिष्कृत किया गया है, वे अलग-थलग महसूस कर सकते हैं।
    • इससे आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्गों के बीच तनाव बढ़ सकता है, जैसा कि मराठा और पाटीदार आंदोलनों में देखा गया था।

आगे की राह: 

  • जातिवार सूची को तैयार करने का कार्य भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा किया जाना चाहिये, जिसे शिक्षाविदों, नागरिक समाज, जातीय समूहों, राजनीतिक दलों तथा आम जनता से व्यापक विचार-विमर्श के बाद अंजाम दिया जाये। 
  • स्थानीय मान्यता और सार्वजनिक विश्वास के लिये सामुदायिक स्तर पर निगरानी शामिल होनी चाहिये। स्थानीय सत्यापन तथा सार्वजनिक विश्वास के लिये समुदाय-स्तरीय निगरानी को भी शामिल किया जाना चाहिये। 
  • आधार को इसमें जोड़ने से पहचान की पुष्टि मज़बूत होगी तथा दोहराव से बचा जा सकेगा।
  • सटीक वर्गीकरण, आँकड़ों की छँटाई तथा प्रतिरूपों की पहचान के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) तथा मशीन लर्निंग (ML) का प्रयोग किया जाना चाहिये। 
  • OBC वर्ग के उपवर्गीकरण हेतु न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाना चाहिये।
  • जाति से संबंधित आँकड़ों को बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) तथा सामाजिक संकेतकों से पूरक बनाया जाना चाहिये। 
  • राज्यों को यह स्वतंत्रता दी जानी चाहिये कि वे अपनी विशिष्ट जातीय-जनसांख्यिकीय संरचना के अनुसार कल्याणकारी योजनाओं को रूप दें। 
  • जातिगत जनगणना का प्रयोग एक विकासपरक उपकरण के रूप में होना चाहिये, न कि मतों की राजनीति के लिये।
  • जाति-संबंधी विवादों के समाधान हेतु एक पारदर्शी शिकायत निवारण तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये। 

निष्कर्ष

जैसा कि समाजशास्त्री आंद्रे बेतेले ने चेतावनी दी थी, "यद्यपि शासन के लिये जाति एक आवश्यक श्रेणी हो सकती है, पर नागरिकता के लिये यह एकमात्र उपागम नहीं होना चाहिये।" 

सतत् विकास लक्ष्यों जैसे: SDG10 (असमानताएँ कम करना) तथा लक्ष्य SDG16 (शांति एवं न्याय और सशक्त संस्थाएँ) के अनुरूप, जातिगत जनगणना का उद्देश्य विभाजन नहीं, बल्कि समता को बढ़ावा देना होना चाहिये। इसका लक्ष्य होना चाहिये— आँकड़ों पर आधारित विकास, न कि आँकड़ों से प्रेरित विघटन।