द बिग पिक्चर/विशेष/इन-डेप्थ: SC-ST एक्ट पर विवाद क्यों? | 05 Apr 2018

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम (SC-ST Act) पर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले को लेकर दलित समुदाय में काफी आक्रोश है। न्यायालय ने यह फैसला दिया था कि इस कानून में केवल प्राथमिकी के आधार पर जो गिरफ्तारी होती है, वह गलत है। केंद्र ने इस निर्णय के विरोध में पुनर्विचार याचिका दायर की, लेकिन न्यायालय ने अपने फैसले पर रोक लगाने से इनकार करते हुए कहा, "एससी-एसटी एक्ट को तो हाथ भी नहीं लगाया गया है, केवल निर्दोषों को बचाने की व्यवस्था करते हुए फैसले में संतुलन कायम किया गया है।" दूसरी ओर, दलित संगठनों का मानना है कि इस फैसले के बाद उनके खिलाफ अत्याचार के मामले और बढ़ जाएंगे। न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने भारत बंद आहूत किया जिसमें जान-माल की व्यापक क्षति हुई।

यह अधिनियम 11 सितंबर, 1989 को अधिनियमित किया गया था और 30 जनवरी, 1990 से जम्मू-कश्मीर को छोड़कर संपूर्ण भारत में लागू है।

मामला क्या है?
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय डॉक्टर सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य और एएनआर मामले में आया है। मामला 2009 का है...महाराष्ट्र के सातारा ज़िले के गवर्नमेंट फार्मेसी कॉलेज में एक दलित कर्मचारी ने प्रथम श्रेणी के दो अधिकारियों के खिलाफ इस कानून के तहत मामला दर्ज कराते हुए अपने वरिष्ठ अधिकारियों पर वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने का आरोप लगाया। इसके बाद पुलिस अधिकारी ने जाँच के लिये उच्चाधिकारियों से लिखित निर्देश मांगे, लेकिन इंस्टीट्यूट के प्रभारी डॉक्टर सुभाष काशीनाथ महाजन ने लिखित में कोई निर्देश नहीं दिया। 

तब दलित कर्मचारी ने सुभाष महाजन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। सुभाष महाजन ने बॉम्बे उच्च न्यायालय से FIR रद्द करने की अपील की, जिसे नामंज़ूर कर दिया गया। इसके बाद सुभाष महाजन ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें उन्होंने कहा कि यदि किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो सामान्य कामकाज कैसे चलेगा। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त फैसला देते हुए उनके खिलाफ FIR हटाने के निर्देश दिये। न्यायालय ने एससी-एसटी एक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए आदेश दिया कि गिरफ्तारी न की जाए, बल्कि अग्रिम  ज़मानत मंज़ूर की जाए।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  • सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को समझना होगा, जिसके बारे में उसका कहना है कि जो इसका विरोध कर रहे हैं उन्होंने फैसला पढ़ा ही नहीं है। 
  • शीर्ष न्यायालय ने कहा कि उसने एससी-एसटी एक्ट के प्रावधानों को छुआ भी नहीं है, केवल तुरंत गिरफ्तार करने की पुलिस की शक्तियों पर लगाम लगाई है। 
  • इस मामले में केस दर्ज करने, मुआवज़ा देने के प्रावधान जस-के-तस बने हुए हैं। 
  • गिरफ्तार करने की शक्ति आपराधिक दंड संहिता से आती है एससी-एसटी कानून से नहीं और न्यायालय ने इस प्रक्रियात्मक कानून की व्याख्या की है, एससी-एसटी एक्ट की नहीं। 
  • निर्दोषों को सज़ा नहीं मिलनी चाहिये और न्यायालय ने उन निर्दोष लोगों की चिंता की बात कही जो जेलों में बंद हैं। 

क्या है न्यायालय का फैसला?

  • अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ कानून के अंतर्गत मामला दर्ज होता है तो शुरुआती जाँच की जाए, जिसे सात दिन में पूरा किया जाए।
  • शुरुआती जाँच हो या मामला दर्ज कर लिया गया हो, अभियुक्त की गिरफ्तारी ज़रूरी नहीं है।
  • यदि अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ्तारी के लिये उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति ज़रूरी होगी।
  • अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ्तारी के लिये एसएसपी की सहमति ज़रूरी होगी।
  • एससी-एसटी एक्ट की धारा 18 में अग्रिम ज़मानत की मनाही है, लेकिन अदालत ने अपने आदेश में अग्रिम ज़मानत की इजाज़त देते हुए कहा कि पहली नज़र में अगर ऐसा लगता है कि कोई मामला नहीं है या जहाँ न्यायिक समीक्षा के बाद लगता है कि कानून के अंतर्गत शिकायत में दुर्भावना है, वहाँ अग्रिम ज़मानत पर संपूर्ण रोक नहीं है।
  • अदालत ने कहा कि एससी-एसटी एक्ट का यह मतलब नहीं कि जाति व्यवस्था जारी रहे क्योंकि ऐसा होने पर समाज में सभी को साथ लाने में और संवैधानिक मूल्यों पर असर पड़ सकता है। संविधान बिना जाति या धर्म के भेदभाव के समानता की बात कहता है।
  • इस कानून को संसद ने इसलिये नहीं बनाया था कि किसी को ब्लैकमेल करने या निजी बदले के लिये इसका इस्तेमाल किया जाए। इसका उद्देश्य यह नहीं है कि सरकारी कर्मचारियों को काम करने से रोका जाए। हर मामले में (झूठे और सही दोनों) अग्रिम ज़मानत को मना कर दिया गया तो निर्दोष लोगों को बचाने वाला कोई नहीं होगा। 
  • अदालत ने यह भी कहा कि अगर किसी के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो वह निष्क्रिय नहीं रह सकती। ऐसे में यह ज़रूरी है कि मूल अधिकारों के हनन और नाइंसाफ़ी को रोकने के लिये नए साधनों और रणनीति का इस्तेमाल हो।
  • एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज होने वाले केसों में अग्रिम  ज़मानत को भी मंज़ूरी दे दी गई, जबकि मूल कानून में अग्रिम  ज़मानत की व्यवस्था नहीं की गई है। 
  • दर्ज मामले में गिरफ्तारी से पहले डिप्टी एसपी या उससे ऊपर के रैंक का अधिकारी आरोपों की जाँच करेगा और फिर कार्रवाई होगी। 
  • एफआईआर दर्ज होने से पहले भी ज्यादती का शिकार हुए कथित पीड़ित को मुआवज़ा दिया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने केवल 7 दिन की सीमा तय की है, जिसके भीतर आरोपों की जाँच पूरी कर ली जाए।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में 2015 के एनसीआरबी (National Crime Record Bureau) के डेटा का उल्लेख किया जिसके अनुसार 15-16% मामलों में पुलिस ने जाँच के बाद क्लोज़र रिपोर्ट फाइल कर दी। 
  • अदालत में गए 75% मामलों को या तो खत्म कर दिया गया, या उनमें अभियुक्त बरी हो गए, या फिर उन्हें वापस ले लिया गया। 

मानवाधिकार संगठन हमेशा से यह कहते रहे हैं कि यदि किसी भी गैर-नृशंस अपराध में केवल FIR के आधार पर गिरफ्तारी का प्रावधान है, तो उसका दुरुपयोग होना निश्चित है। दहेज विरोधी कानून इसकी जीवंत मिसाल है और ऐसा ही दुरुपयोग एससी-एसटी एक्ट के कुछ मामलों में भी होता ही होगा। लेकिन हमें दलित समुदाय की पीड़ा को भी समझना होगा। आज़ादी के इतने साल बाद भी उन्हें सामाजिक स्तर पर जिस भेदभाव और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है, वह किसी भी सभ्य कहलाने वाले समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। जिस दिन भारत बंद का आयोजन हुआ, उसी दिन अखबारों में यह खबर थी कि एक दलित युवा घोड़ी पर चढ़कर अपनी शादी के लिये जाना चाहता है और गाँव में उच्च जातियों के लोगों को यह स्वीकार नहीं। प्रशासन भी उसकी मदद में असमर्थ था।

(टीम दृष्टि इनपुट)

एनसीआरबी के आँकड़ों के अनुसार...

  • देश में प्रत्येक 15 मिनट में दलित उत्पीड़न की एक घटना सामने आती है
  • प्रतिदिन 6 दलित महिलाएँ दुष्कर्म का शिकार होती हैं 
  • 2007-2017 के दशक में देशभर में दर्ज दलित उत्पीड़न के मामलों में 66% की वृद्धि हुई

देश में दलित सदियों से कई तरह की मनोवैज्ञानिक हिंसा को झेलते आए हैं। ऐसे में, उन्हें एससी-एसटी एक्ट एक औज़ार की तरह लगता है, जो कई तरह की मानसिक हिंसा से उनका बचाव कर सकता है। इसलिये इस प्रावधान को हल्का बनाया जाना उन्हें किसी भी तरह से स्वीकार नहीं। 

राष्‍ट्रीय अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा तथा उनके कल्याण हेतु उपाय सुझाने के लिये पहले एक ही आयोग था, जिसका नाम राष्‍ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग था। बाद में संविधान (89वाँ संशोधन) अधिनियम 2003 के माध्‍यम से अनुच्‍छेद 338 को संशोधित कर तथा संविधान में नया अनुच्‍छेद 338ए शामिल करके राष्‍ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्‍थापना की गई। इस संविधान संशोधन से पूर्ववर्ती राष्‍ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग की जगह दो नए आयोग--राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग तथा राष्‍ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग 19 फरवरी, 2004 को बनाए गए।

(टीम दृष्टि इनपुट)

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 भारतीय समाज को परंपरागत विश्वासों के अंधानुकरण तथा अतार्किक लगाव से मुक्त करने के उद्देश्य से लाया गया था। लेकिन दलितों के हितों की रक्षा के लिये सबसे पहले 1955 में अस्पृश्यता (अपराध निवारण) अधिनियम लाया गया था, जिसकी कमियों एवं कमज़ोरियों के कारण सरकार को इसमें व्यापक सुधार करना पड़ा। सुधारों और संशोधनों के बाद 1976 से इस अधिनियम का नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम के रूप में पुनर्गठन किया गया। 

अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार के अनेक उपाय करने के बावजूद उनकी स्थिति दयनीय बनी रही। उन्हें अपमानित एवं उत्पीड़ित किया जाता रहा। उन्होंने जब भी अस्पृश्यता के विरुद्ध अपने अधिकारों का प्रयोग करना चाहा, उन्हें दबाने एवं आतंकित करने जैसी घटनाएँ सामने आईं। अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों का उत्पीड़न रोकने तथा दोषियों पर कार्रवाई करने के लिये विशेष अदालतों के गठन को आवश्यक समझा गया। उत्पीड़न के शिकार लोगों को राहत, पुनर्वास उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती थी। 

इसी पृष्ठभूमि में अनुच्छेद 17 के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 बनाया गया था। इस अधिनियम का स्पष्ट उद्देश्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय को सक्रिय प्रयासों से न्याय दिलाना था ताकि समाज में वे गरिमा के साथ रह सकें। इस अधिनियम में 2015 में संशोधन कर इसके प्रावधानों को और कठोर बनाया गया। वर्तमान में इसमें पाँच अध्याय और 23 धाराएँ हैं।

संशोधन के बाद प्रमुख प्रावधान 

  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध किये जाने वाले नए अपराधों में निम्नलिखित शामिल हैं:
  • सिर और मूंछ के बालों का मुंडन कराना 
  • अत्याचारों में समुदाय के लोगों को जूते की माला पहनाना
  • सिंचाई सुविधाओं तक जाने से रोकना या वन अधिकारों से वंचित रखना
  • मानव और पशु नरकंकाल को निपटाने और लाने-ले जाने के लिये बाध्य करना
  • कब्र खोदने के लिये बाध्य करना
  • सिर पर मैला ढोने की प्रथा का उपयोग और अनुमति देना
  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं को देवदासी के रूप में समर्पित करना
  • जातिसूचक शब्द कहना
  • जादू-टोना अत्याचार को बढ़ावा देना
  • सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार करना
  • चुनाव लड़ने में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उम्मीदवारों को नामांकन दाखिल करने से रोकना
  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं को वस्त्रहरण कर आहत करना
  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के किसी सदस्य को घर-गाँव और आवास छोड़ने के लिये बाध्य करना
  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पूजनीय वस्तुओं को विरूपित करना
  • अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्य के विरुद्ध यौन दुर्व्यवहार करना, यौन दुर्व्यवहार भाव से उन्हें छूना और भाषा का उपयोग करना 

10 वर्ष से कम की सज़ा का प्रावधान वाले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों को आहत करने, उन्हें पीड़ा पहुँचाने, धमकाने और उपहरण करने जैसे अपराधों को अधिनियम में अपराध के रूप में शामिल किया गया। इसे पूर्व अधिनियम के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर किये गए अत्याचार के मामलों में 10 वर्ष और उससे अधिक की सज़ा वाले अपराधों को ही अपराध माना जाता था। 

मामलों को तेज़ी से निपटाने के लिये अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत आने वाले अपराधों में विशेष रूप से मुकदमा चलाने के लिये विशेष अदालतें बनाना और विशेष लोक अभियोजक को निर्दिष्ट करना।

विशेष अदालतों को अपराध का प्रत्यक्ष संज्ञान लेने की शक्ति प्रदान करना और जहाँ तक संभव हो आरोप-पत्र दाखिल करने की तिथि से दो महीने के अंदर सुनवाई पूरी करना। 

अन्य संवैधानिक प्रावधान 

  • संविधान के अनुच्छेद 46 में राज्‍य से अपेक्षा की गई है कि वह समाज के कमज़ोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों का ध्‍यान रखते हुए उन्‍हें सामाजिक अन्‍याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित रखेगा।
  • शैक्षणिक संस्‍थानों में आरक्षण का प्रावधान अनुच्‍छेद 15(4) में किया गया है।
  • पदों एवं सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान संविधान के अनुच्‍छेद 16(4), 16(4क) और 16(4ख) में किया गया है।
  • मूल अधिकारों के अलावा अनुच्छेद 330, 332 और 335 में केंद्र और राज्यों की विधायिकाओं में इन समुदायों के लिये विशेष प्रतिनिधित्व एवं सीटों के आरक्षण के लिये तात्कालिक प्रावधान हैं। 
  • अनुच्छेद 338 से 342 और संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची अनुच्छेद 46 में दिये गए लक्ष्यों हेतु विशेष प्रावधानों के संबंध में कार्य करते हैं।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों के विरुद्ध किये गए अपराधों के निवारण के लिये है। यह अधिनियम ऐसे अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने तथा ऐसे अपराधों से पीड़ित व्यक्तियों के लिये राहत एवं पुनर्वास का प्रावधान करता है। 

इस अधिनियम के तहत किये गए अपराध सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आने से पहले तक गैर- ज़मानती, संज्ञेय तथा अशमनीय थे। न्यायालय का मानना है कि इस कानून में इन प्रावधानों का दुरुपयोग हो रहा है, अतः संतुलन कायम करने और पुलिस की शक्तियाँ कम करने के लिये ऐसा किया गया है। यह पहली बार नहीं है जब सर्वोच्च न्यायालय के किसी निर्णय का इस प्रकार सडकों पर विरोध हुआ। हाल ही में फिल्म 'पद्मावत' को लेकर भी ऐसी ही उग्र स्थिति बन गई थी। आदर्श स्थिति तो यह होती और स्वस्थ लोकतंत्र का तकाज़ा भी यही है कि ऐसे फैसलों को या तो स्वीकार कर लिया जाता या उनके खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की जाती, जैसा कि सरकार ने किया भी। लेकिन इस सवाल का जवाब कभी सरल नहीं रहा कि यदि किसी प्रावधान का दुरुपयोग होता है, तो क्या एकमात्र विकल्प उसे हटाना है?