देश-देशांतर: जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33(7) को चुनौती; एक उम्मीदवार-एक सीट | 07 Apr 2018

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
चुनाव का अधिकार ही वह अधिकार है, जो लोकतंत्र और तानाशाही में अंतर करता है। भारतीय चुनाव व्यवस्था में किसी एक प्रत्याशी को कई सीटों से चुनाव लड़ने की छूट है, लेकिन अब चुनाव आयोग इस प्रकार की व्यवस्था को खत्म करने का मन बना चुका है। 

हाल ही में किसी भी प्रत्याशी के एक से अधिक सीट से चुनाव लड़ने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका पर अपना पक्ष रखते हुए चुनाव आयोग ने 'एक उम्मीदवार-एक सीट' पर चुनाव लड़ने का समर्थन किया। 

मामला क्या है?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता (भाजपा नेता और वकील अश्वनी उपाध्याय) ने जनहित याचिका दाखिल कर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33(7) को चुनौती देते हुए अपील की है कि संसद या विधानसभा सहित सभी स्तरों पर प्रत्याशी केवल एक ही सीट से चुनाव लड़े। 
  • धारा 33(7) में यह व्यवस्था की गई है कि कोई व्यक्ति दो सीटों से आम चुनाव अथवा कई उपचुनाव अथवा द्विवार्षिक चुनाव लड़ सकता है।
  • मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, ए.एम. खानविलकर और डी.वाई. चंद्रचूड़ की पीठ ने इस मामले में भारत के अटार्नी जनरल को अपनी राय देने का निर्देश दिया है।

क्या है चुनाव आयोग का रुख?

  • 1996 से पूर्व कोई प्रत्याशी कितनी भी सीटों से चुनाव लड़ सकता था। 
  • वर्तमान में कोई भी प्रत्याशी लोकसभा तथा विधानसभा के लिये दो सीटों से चुनाव लड़ सकता है और दोनों जगह से जीतने पर एक सीट उसे छोड़नी पड़ती है।  
  • चुनाव आयोग ने स्वीकार किया कि जब एक प्रत्याशी दो सीट पर चुनाव लड़ता है, तो वह दूसरी सीट से इस्तीफा दे देता है, जिसके कारण वहाँ पर दोबारा चुनाव होता है और खर्चा बढ़ता है।
  • इससे पहले चुनाव सुधार की प्रक्रिया में चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को अपनी सिफारिश में कहा था कि एक प्रत्याशी को दो सीटों से चुनाव लड़ने की छूट नहीं होनी चाहिये। एक उम्मीदवार के दो सीटों से चुनाव लड़ने का प्रावधान समाप्त किया जाए। 
  • चुनाव आयोग ने कहा कि यदि सरकार इस प्रावधान को बनाए ही रखना चाहती है तो उपचुनाव का खर्च उठाने की ज़िम्मेदारी सीट छोड़ने वाले प्रत्याशी पर डाली जाए। 
  • विधानसभा व विधान परिषद के उपचुनाव के मामले में राशि 5 लाख रुपए और लोकसभा उपचुनाव में राशि 10 लाख रुपए होनी चाहिये। सरकार इसे समय-समय पर बढ़ा सकती है।
  • दो सीटों पर चुनाव लड़ने से संसाधन की बर्बादी होती है क्योंकि 6 महीने के अंदर एक सीट खाली करनी ही होती है। 

चुनाव कौन लड़ सकता है?

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 84(क) में यह परिकल्पित है कि कोई व्यक्ति संसद में सीट को भरने के लिये चुने जाने हेतु तब तक पात्र नहीं होगा जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो। संविधान के अनुच्छेद 173(क) में राज्य विधानसभाओं के लिये इसी प्रकार का प्रावधान है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 84(ख) में यह प्रावधान है कि लोकसभा निर्वाचन हेतु अभ्यर्थी होने के लिये न्यूनतम आयु 25 वर्ष होगी। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 36(2) के साथ पठित संविधान के अनुच्छेद 173(ख) के द्वारा विधानसभाओं के अभ्यर्थी होने के लिये यही प्रावधान है।
  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 4(घ) व्यक्ति को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करती है जब तक कि वह किसी संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में एक निर्वाचक न हो। 
  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 5(ग) में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिये यही प्रावधान है।
  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 4(C), 4(CC) तथा 4(CCC) के अनुसार असम, लक्षद्वीप तथा सिक्किम को छोड़कर कोई भी मतदाता देश में किसी भी निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ सकता है।
  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(3) के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध का दोषी है तथा उसे 2 वर्ष या इससे अधिक की सज़ा दी गई है, तो वह चुनाव लड़ने के लिये अपात्र होगा।
  • यद्यपि कोई व्यक्ति दोष सिद्ध‍होने के पश्चात् जमानत पर है, तथा उसकी अपील निपटान के लिये लंबित है, तो उसे भारत निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किये गए दिशा-निर्देशों के अनुसार चुनाव लड़ने से निरर्हित किया जाता है।
  • जन प्रतिनिधित्व, अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) के अनुसार, जेल में बंद कोई भी व्यक्ति निर्वाचन में मत नहीं डालेगा, चाहे वह कारावास की सज़ा के अधीन हो या देश निकाला हो या पुलिस की कानूनी हिरासत में हो।

चुनाव सुधारों पर विधि आयोग की रिपोर्ट
मार्च 2015 में विधि आयोग ने चुनाव सुधारों पर अपनी 211 पन्नों की 255वीं रिपोर्ट सरकार को सौंपते समय चुनाव सुधार के अनेक उपाय सुझाए थे। इससे पहले भी चुनाव सुधारों पर विधि आयोग ने अपनी एक अन्य रिपोर्ट राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिये दागियों को चुनाव से बाहर रखने के बारे में दी थी।

  • विधि आयोग ने उम्मीदवारों को एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने से रोकने और निर्दलीय उम्मीदवारों की उम्मीदवारी प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके लिये जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 33 (7) को संशोधित करने की बात कही, जिसमें अभी उम्मीदवार को दो सीटों से चुनाव लड़ने की अनुमति है।
  • मौजूदा व्यवस्था में चुनाव में बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवार उतरते हैं, जिनमें से अधिकतर डमी उम्मीदवार होते हैं तथा कई तो एक ही नाम के होते हैं जिनका उद्देश्य मतदाताओं में भ्रम फैलाना होता है। 
  • विधि आयोग ने मुख्य चुनाव आयुक्त एवं दो अन्य आयुक्तों की नियुक्तियाँ निर्वाचन मंडल (कॉलेजियम) के ज़रिये करने की सिफारिश की थी। 
  • चुनाव में शुचिता बरकरार रखने के लिये सदन का कार्यकाल समाप्त होने की तारीख से छह महीने पहले से ही सरकार प्रायोजित विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाया जाए। 
  • फिलहाल उम्मीदवारों को नामांकन के दिन से चुनाव परिणाम आने तक अपने चुनावी खर्चों का लेखा-जोखा देना होता है, लेकिन इस अवधि को बढ़ाए जाने की ज़रूरत है। उम्मीदवारों अथवा उनके चुनाव एजेंटों से अधिसूचना जारी होने के दिन से परिणाम आने के दिन तक का चुनावी खर्चों का हिसाब मांगा जाना चाहिये।
  • चुनाव खर्चों का ब्योरा नहीं देने वाले उम्मीदवारों को तीन साल के बजाय पाँच साल के लिये चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराए जाने की सिफारिश की गई। इससे ऐसे उम्मीदवार कम-से-कम अगला चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। 
  • किसी राजनीतिक दल को कंपनी की ओर से चंदा दिये जाने की अनुमति से संबंधित प्रावधानों को संशोधित करने के लिये कंपनी अधिनियम में संशोधन की सिफारिश भी की। इसके लिये निदेशक मंडल की बैठक के बजाय कंपनी की वार्षिक आमसभा में फैसला लिया जाना चाहिये। 
  • कानून में बदलाव करके निर्वाचन आयोग में पंजीकृत पार्टियों को ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव लड़ने की अनुमति देने की सिफारिश की गई थी। इसके लिये जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 4 और 5 में संशोधन का सुझाव दिया गया। 
  • विधि आयोग अनिवार्य मतदान को लागू करने के पक्ष में नहीं है। आयोग ने इसे अलोकतांत्रिक, अवांछनीय और राजनीतिक जागरूकता एवं भागीदारी को सुधारने में मददगार नहीं होना करार दिया।
  • विधि आयोग ने राइट टू रिकॉल के अधिकार की मांग के साथ विजयी प्रत्याशी को मिले मत यदि उपर्युक्त में से कोई नहीं (नोटा) से कम हो तो विजेता को खारिज करने का समर्थन नहीं किया। 
  • विधि आयोग ने देश की वर्तमान आर्थिक दशा को देखते हुए सरकार की ओर से चुनावी खर्च का भी समर्थन नहीं किया है। 

अपनी इस रिपोर्ट में विधि आयोग ने जिन चुनाव सुधारों के बारे में विचार किया, उनमें चुनाव का सरकार की ओर से वित्त-पोषण, राजनीति में साम्प्रदायिकता, नकारात्मक मतदान, उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड के विषय शामिल थे।

(टीम दृष्टि इनपुट)

टी.एस. कृष्णमूर्ति ने भी सुझाए थे चुनाव सुधार के उपाय
फरवरी 2004 से मई 2005 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी.एस. कृष्णमूर्ति ने चुनाव सुधारों के तहत चुनावों में सरकारी धन के इस्तेमाल का समर्थन करते हुए राजनीतिक दलों के धन के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की बात कही थी।

  • उन्होंने अपनी सिफारिशों में राष्ट्रीय चुनाव कोष गठित करने का सुझाव भी दिया था, जिसके तहत कंपनियां और अन्य लोग अपना योगदान दे सकें और यह 100%  करमुक्त हो। 
  • सर्वदलीय बैठक के ज़रिये तय किया जा सकता है कि विभिन्न चुनावों के लिये इस धन का इस्तेमाल कैसे किया जाए।
  • चुनावों के सरकारी वित्त-पोषण के बाद किसी भी दल को चुनाव में धन खर्च करने की अनुमति नहीं होनी चाहिये।
  • इसके बाद भी यदि राजनीतिक दल धन का भुगतान करते हैं तो 10 साल की कैद और उम्मीदवार को अयोग्य करार देने का प्रावधान हो। 
  • राजनीतिक दलों के लिये एक पृथक कानून होना चाहिये, जिसके तहत नियमन की रूपरेखा बने और इसके ज़रिये उनकी समीक्षा एवं निगरानी हो सके। इसमें उनके आंतरिक चुनावों और वित्तीय प्रबंधन की समीक्षा तथा निगरानी भी शामिल है।
  • अगर कोई अदालत (पुलिस नहीं) पाँच साल या इससे ज्यादा की सज़ा वाले अपराध के संदर्भ में आरोप-पत्र तय कर देती है तो ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दे दिया जाना चाहिये। गलत उम्मीदवार इसलिये चुनावी दौड़ में आ जाते हैं, क्योंकि धनबल और बाहुबल चुनावों में अहम भूमिका निभाते हैं।
  • सदन के कार्यकाल का 50 प्रतिशत पूरा हो जाने के बाद प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान भी किया जा सकता है। यदि सदन का कार्यकाल पाँच साल का है तो किसी व्यक्ति को ढाई साल शांति से काम करने की अनुमति होनी चाहिये। 
  • यदि किसी व्यक्ति पर हत्या, बलात्कार या भ्रष्टाचार का आरोप है तो उसे वापस बुलाने का अधिकार लोगों के पास होना चाहिये। हालाँकि वापस बुला लेना कोई हल नहीं हो सकता, लेकिन प्रतिरोधक हो सकता है। ऐसा करने से बेहतर बर्ताव के लिये निर्वाचित प्रतिनिधियों की कुछ तो ज़िम्मेदारी तय होगी।

चुनाव सुधारों पर गठित  विभिन्न समितियों की प्रमुख सिफारिशें 
भारत में चुनाव प्रणाली को महत्त्व प्रदान करते हुए इसमें सुधार हेतु समय-समय पर कई समितियों का गठन किया गया। इन विभिन्न समितियों की प्रमुख सिफारिशों को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:

तारकुंडे समिति 

  • वयस्क मताधिकार की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना। इसे संविधान के 61वें संशोधन द्वारा मूर्त स्वरूप प्रदान किया गया।
  • निर्वाचन के लिये अधिकतम व्यय योग्य राशि का निर्धारण करना। 
  • राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के चुनाव व्यय का लेखा-जोखा निर्वाचन आयोग के सामने प्रस्तुत करें।
  • चुनाव प्रत्याशी एक निश्चित नामांकन राशि जमा करें।
  • इन सिफारिशों में बूथ कैप्चरिंग तथा बोगस वोटिंग जैसी समस्याओं का समाधान नहीं किया गया। इसी संदर्भ में दिनेश गोस्वामी समिति गठित की गई।

दिनेश गोस्वामी समिति 

  • अवैध रूप से लूटे गए बूथों पर फिर से मतदान की व्यवस्था हो।
  • मतदान के लिये इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग किया जाए।
  • बोगस मतदान की समस्या से बचने के लिये मतदाता फोटो पहचान पत्र की व्यवस्था की जाए।
  • निर्वाचन से संबंधित याचिका की शीघ्र सुनवाई की जाए।
  • यदि केंद्रीय या राज्य स्तर के सदन का कोई स्थान खाली हो जाए तो 6 माह के अंदर निर्वाचन की व्यवस्था की जाए।
  • इस समिति की सिफारिशों से बूथ कैप्चरिंग तथा बोगस वोटिंग जैसी समस्याओं का समाधान हुआ। किंतु अभी भी चुनाव व्यय से संबंधित समस्या  विद्यमान थी, इस संदर्भ में इंद्रजीत गुप्त समिति का गठन किया गया।

इंद्रजीत गुप्त समिति 

  • लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव का व्यय सरकार द्वारा वहन किया जाए।
  • ऐसे प्रत्याशी जो अपना वार्षिक आयकर रिटर्न दाखिल करने में असफल हैं, को चुनावों में आर्थिक सहायता न दी जाए।
  • 10,000 से अधिक चंदे की राशि ड्राफ्ट अथवा चेक के माध्यम से प्रदान किये जाने की व्यवस्था हो।
  • इंद्रजीत गुप्त समिति के बाद चुनाव सुधारों के लिये के. संथानम समिति का गठन हुआ।

के. संथानम समिति 

  • निर्वाचन में शामिल होने वाले उम्मीदवारों के लिये न्यूनतम अर्हता की व्यवस्था हो।
  • सभी राजनीतिक दलों का निबंधन हो।
  • समय-समय पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाए।
  • निर्वाचन मंडलों के अंदर आने वाले नागरिकों की नामावली को अद्यतन बनाया जाए।

(टीम दृष्टि इनपुट)

गौरतलब है कि कई बड़े दिग्गज नेता एक बार में दो जगह से चुनाव लड़ते हैं।  जैसे-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के आम चुनाव में वाराणसी और वडोदरा से चुनाव लड़ा था। उन्होंने दोनों जगहों से जीत दर्ज की थी, लेकिन वाराणसी सीट को अपने पास रखा था। इसके अलावा पूर्व में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित कई बड़े नेता दो जगहों से चुनाव लड़ चुके हैं। प्रायः देखा यही गया है कि विशेषकर वही नेता दो सीटों पर चुनाव लड़ते हैं, जो मुख्‍यमंत्री या प्रधानमंत्री जैसे बड़े पद के दावेदार होते हैं।

चुनाव सुधारों में न्यायपालिका का योगदान
संसद द्वारा पारित कानून और इनकी पूर्ति के लिये बने नियम तथा आयोग के निर्देशों की समीक्षा समय-समय पर विभिन्न महत्त्वपूर्ण मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई है। शीर्ष न्यायालय ने इन कानूनों को पूरक रूप देने तथा निर्वाचन प्रणाली के सुधार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 

  • मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य निर्वाचन आयुक्त मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि निर्वाचन आयोग संविधान सृजक के रूप में संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की प्रतिपूर्ति वहाँ कर सकता है जहाँ कानून ने हमारे जैसे विशाल लोकतंत्र में चुनाव संचालन के दौरान उत्पन्न किसी स्थिति  के संबंध में कोई पर्याप्त प्रावधान नहीं किया है। इन शक्तियों का उपयोग करते हुए आयोग आदर्श आचार संहिता लागू कर रहा है। यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिये स्वयं राजनीतिक दलों द्वारा किया गया अनूठा योगदान है। 
  • इसी प्रकार पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद या राज्य विधानसभाओं के चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को हलफनामे में उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि यदि कोई हो, उसकी, पति/पत्नी और आश्रित बच्चों की परिसंपत्ति, उसकी शैक्षणिक योग्यताओं का ब्योरा देना होगा ताकि निर्वाचक अपना प्रतिनिधि चुनते समय अपनी पसंद व्यक्त कर सके। 
  • रिसर्जेंस इंडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि निर्वाचन अधिकारी द्वारा बताने या स्मरण कराने के बावजूद यदि कोई उम्मीदवार हलफनामे में आवश्यक जानकारी नहीं देता है तो उसके नामांकन पत्र के जांच के समय निर्वाचन अधिकारी नामांकन पत्र को नामंज़ूर कर सकता है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुनाव कानून से संबंधित एक अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल मामले में किया गया। इस मामले में न्यायालय ने कहा कि मतदाता को निर्वाचन क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों के प्रति असंतोष व्यक्त करने तथा नकारात्मक मत देने का अधिकार है। इस निर्णय को लागू करने के लिये निर्वाचन आयोग ने ईवीएम में 'नोटा' का बटन जोड़ा। इस बटन को दबाकर मतदाता यह व्यक्त कर सकता है कि वह किसी भी उम्मीदवार के लिये मत देना नहीं चाहता। यह व्यवस्था मतदाताओं को गोपनीय रूप से अपनी इच्छा व्यक्त करने योग्य बनाती है। 
  • सुब्रमण्यम स्वामी मामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक ईवीएम के साथ वोटर वैरीफाइबल पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) का प्रावधान किया ताकि मतदाता द्वारा वोट डालने के बाद एक मुद्रित पर्ची निकले जिसमें मतदाता द्वारा व्यक्त पसंद के उम्मीदवार का नाम तथा चुनाव चिह्न होता है। इससे मतदाता स्वयं संतुष्ट हो जाता है कि उसके द्वारा दिया गया मत उचित तरीके से रिकॉर्ड हुआ है और उसने अपनी पसंद के उम्मीदवार को मत दिया है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: भारत ने संसदीय प्रणाली की सरकार की ब्रिटिश वेस्टमिन्सटर प्रणाली अपनाई है। हमारे जन प्रतिनिधित्व कानून में यह अधिकार दिया गया है कि कोई व्यक्ति लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव या फिर उपचुनाव में एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ सकता है। 1996 से पहले दो से अधिक स्थानों पर चुनाव उम्मीदवारी की छूट थी और कोई व्यक्ति कितनी भी सीटों से चुनाव लड़ सकता था। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के मकसद से 1996 में जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके अधिकतम दो सीटों से चुनाव लड़ने का नियम बनाया गया। मगर इससे भी निर्वाचन आयोग को छोड़ी गई सीटों पर दुबारा चुनाव कराने के लिये बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार दोबारा वही प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती है, फिर से पैसे खर्च करने पड़ते हैं। प्रशासन को नाहक अपना तय कामकाज रोक कर चुनाव प्रक्रिया में भाग−दौड़ करनी पड़ती है। आम जनता भी इससे परेशान होती है, इसलिये लंबे समय से मांग की जाती रही है कि इस नियम में बदलाव कर एक उम्मीदवार-एक सीट का सिद्धांत लागू होना चाहिये। अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिये दो स्थानों से चुनाव लड़ना और जीत जाने के बाद किसी एक स्थान से इस्तीफा दे देना हमारी चुनाव प्रक्रिया की बड़ी खामी है, जिस पर रोक लगाने से लोकतंत्र और मज़बूत होगा।