द बिग पिक्चर : बैंकों के बढ़ते एनपीए की समस्या | 01 Jan 2018

संदर्भ

रिज़र्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट तथा घरेलू रेटिंग एजेंसी 'केयर रेटिंग्स' और क्रिसिल की हालिया रिपोर्टों में देश की अर्थव्यवस्था के मॉडल और सरकार की आर्थिक नीतियों पर चिंता जताने के साथ-साथ बैंकों, विशेषकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बढ़ते एनपीए पर चिंता जताई गई है।

पृष्ठभूमि 

सुरसा के मुँह की तरह बढ़ते जा रहे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बढ़ते एनपीए के लिये रिज़र्व बैंक ने इसका बड़ा कारण परियोजनाओं के लिये कर्ज़ देते समय उनकी ठीक से जांच-परख नहीं करने के लिये मर्चेंट (निवेश) बैंकरों के बीच हितों के टकराव को बताया।

रिज़र्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट

  • रिज़र्व बैंक की इस रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बैंकों का एनपीए चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (30 सितंबर) के अंत तक लगभग 7.34 लाख करोड़ रुपये पर पहुँच गया। 
  • निजी बैंकों का एनपीए इसी अवधि में अपेक्षाकृत काफी कम लगभग 1.03 लाख करोड़ रुपये रहा। 
  • गैर-निष्पादित आस्तियों (Non-Performing Assets-NPA) के मामले में कुल कर्ज़ के 10 प्रतिशत से अधिक के अनुपात के साथ ब्रिक्स देशों में भारत शीर्ष पर है।  
  • बैंकों के सर्वाधिक एनपीए स्तर के मामले में विश्व में भारत का पाँचवाँ स्थान है।
  • इसमें सबसे अधिक योगदान कॉरपोरेट क्षेत्र के डिफाल्टरों का रहा और इसमें लगभग 77 प्रतिशत हिस्सेदारी शीर्ष औद्योगिक घरानों के पास फंसे कर्ज़ का है। 
  • इस साल सितंबर तिमाही में सकल एनपीए छह माह पहले के  कुल कर्ज़ के 9.6 प्रतिशत से बढ़कर 10.2 प्रतिशत पर पहुँच गया। 
  • बैंकों के कुल एनपीए अनुपात में 19.3 प्रतिशत वृद्धि हुई है और इसमें सबसे ज्यादा हिस्सेदारी धातु, बिजली, इंजीनियरिंग, बुनियादी ढांचा और निर्माण क्षेत्रों की है।

ये हैं सबसे बड़े कारक: बेसिक धातुओं और धातु उत्पादों के क्षेत्र का सकल एनपीए में 44.5 प्रतिशत हिस्सा रहा है, जबकि निर्माण क्षेत्र का 26.7 प्रतिशत, ढांचागत क्षेत्र का 19.6 प्रतिशत और इंजीनियरिंग क्षेत्र का सकल एनपीए बढ़कर 31 प्रतिशत तक पहुँच गया। इन सभी में परियोजना मूल्यांकन भी शामिल है।

  • रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि मार्च तिमाही तक बैंकों का कुल एनपीए 10.8 प्रतिशत तक पहुँच सकता है और सितंबर 2018 तक यह 11.1 प्रतिशत हो सकता है।
  • कुल एनपीए में इस वृद्धि में निजी  क्षेत्र के बैंक भी शामिल हैं, जो अपनी बैलेंस शीट को मज़बूत दिखाने के लिये फंसे कर्ज़ के आँकड़े को कम करके बताते रहे हैं।

पुख्ता जाँच नहीं हुई: रिपोर्ट में रिज़र्व बैंक ने कहा है कि बैंकों में एनपीए का जो संकट खड़ा हुआ है, उससे दीर्घावधि परियोजनाओं के लिये कर्ज़ देते समय उनकी  जांच-परख में खामियां उजागर हुई हैं। इस तरह की परियोजनाओं में बैंकों के समूह ने ऋण देने की मंजूरी पेशेवर मर्चेंट बैंकरों से सलाह-मशविरा करके दी है और इसमें पहले से ही हितों का टकराव शामिल है, क्योंकि आकलन करने वाले मर्चेंट बैंकरों को ऋण लेने वाले पहले से भारी भुगतान कर देते हैं।

ये बैंक रहे सबसे आगे

  • भारतीय स्टेट बैंक का एनपीए सर्वाधिक 1.86 लाख करोड़ रुपये रहा, जबकि इसके बाद पंजाब नेशनल बैंक 57,630 करोड़ रुपये, बैंक ऑफ इंडिया 49,307 करोड़ रुपये, बैंक ऑफ बड़ौदा 46,307 करोड़ रुपये, केनरा बैंक 39,164 करोड़ रुपये और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का 38,286 करोड़ रुपये का स्थान रहा।
  • निजी बैंकों में आईसीआईसीआई बैंक 44,237 करोड़ रुपये के एनपीए के साथ शीर्ष पर रहा।  इसके बाद एक्सिस बैंक 22,136 करोड़ रुपये, एचडीएफसी बैंक का एनपीए 7,644 करोड़ रुपये रहा।

उल्लेखनीय है कि ऋण बाजार में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का दबदबा है और इसमें भी भारतीय स्टेट बैंक सबसे आगे है। वह इस तरह के ऋणों की मंजूरी के लिये अपनी  मर्चेंट बैंकिंग इकाई एसबीआई कैप्स का इस्तेमाल करता है और इसकी सलाह ऋण पुनर्गठन के लिये भी लेती है।

नरसिम्हन समिति

एनपीए के मामले में 1990 के पूर्व भारतीय बैंकों का रुख स्पष्ट नहीं था। बैंकों के कामकाज में पारदर्शिता लाने तथा अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप भारतीय बैंकों के कार्यकलाप में बदलाव लाने के इरादे से 1991 में गठित की गई एम. नरसिम्हन समिति की रिपोर्ट के आधार पर एनपीए के विविध मानकों का निर्धारण 31 मार्च, 1993 को किया गया था। इसके तहत ऋण खातों में यदि दो तिमाही (180 दिनों) तक ब्याज व किस्त या फिर दोनों जमा नहीं होने पर उन्हें एनपीए में बदल दिया जाता था। इसके बाद 1995 में एनपीए मानकों को और कठोर बनाया गया, जिनके तहत किसी खाते में 90 दिनों तक ब्याज या किस्त या फिर दोनों तरह की रकम जमा न होने पर  उसका वर्गीकरण एनपीए के रूप में किया जाने लगा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

60 साल के न्यूनतम स्तर पर क्रेडिट ग्रोथ 

एनपीए के बढ़ते बोझ से बेहाल सरकारी बैंक ऋण देने में सावधानी बरत रहे हैं। रिज़र्व बैंक की ओर से जारी आँकड़ों से पता चलता है कि एनपीए के ऊँचे स्तर के अलावा कमज़ोर कॉरपोरेट मांग के चलते देश में क्रेडिट ग्रोथ 60 साल के निचले स्तर पर आ गई है। बीते वित्त  वर्ष 2016-17 में बैंकों की ओर से कर्ज़ देने की यह रफ्तार गिरकर केवल पांच प्रतिशत रह गई। इससे पहले कर्ज़ वृद्धि की न्यूनतम दर 1953-54 में रिकॉर्ड की गई थी, तब यह केवल 1.7 प्रतिशत थी। इन आंकड़ों के अनुसार बीते वित्त वर्ष में 31 मार्च, 2017 तक बैंकों की ओर से दिया गया कुल कर्ज़ 78.82 लाख करोड़ रुपए था। इसमें से 3.16 लाख करोड़ रुपए का कर्ज़  मार्च के अंतिम 15 दिनों में बांटा गया।

रोज़गार विहीन विकास का खतरा

  • घरेलू रेटिंग एजेंसी केयर रेटिंग्स ने देश में रोज़गार विहीन वृद्धि की आशंका जताई है। इसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि रोज़गार के अवसर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के अनुरूप नहीं बढ़ रहे हैं, जो चिंता का एक प्रमुख कारण है। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने भी रोज़गार में कम वृद्धि की बात स्वीकार की है और इसके लिये कार्यबल का गठन किया है।
  • रोज़गार विहीन वृद्धि ऐसी स्थिति है जहां अर्थव्यवस्था नरमी से तो उबरती है, लेकिन रोज़गार के क्षेत्र में स्थिति जस-की-तस बनी रहती है।
  • एजेंसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि क्षेत्रवार आधार पर सेवा क्षेत्र ने कुछ राहत दी है, लेकिन हाल में विनिर्माण क्षेत्र रोज़गार सृजन में विफल रहा है।
  • बैंक, आईटी, खुदरा और स्वास्थ्य क्षेत्र में लगातार रोज़गार सृजित हो रहे हैं और आगे भी होंगे, जबकि खनन, बिजली और दूरसंचार क्षेत्र में रोज़गार में कमी  दर्ज़ की गई है।

बैंकों का पुनर्पूंजीकरण (री-कैपिटलाइजेशन)

सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में बढ़े फंसे क़र्ज़ से जूझ रही है और उन्हें मज़बूत करने के लिये उनमें भारी मात्रा में पूंजी डाल रही है।  हाल ही में अर्थव्यवस्था को गति देने, रोज़गार सृजन और बैंकिंग तंत्र को मज़बूत बनाने के उद्देश्य से सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को 2 लाख 11 हज़ार करोड़ रुपए की पूंजी उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। केंद्र द्वारा संकटग्रस्त सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण से बैंकों को एनपीए के दुष्चक्र से उबरने में सहायता मिलेगी। पिछले दो सालों में भारत की कमज़ोर पड़ रही अर्थव्यवस्था में नई जान फूँकने और इसकी गतिशीलता को बनाए रखने के लिये सरकार प्रयासरत है और इन्हीं प्रयासों के तहत विमुद्रीकरण और जीएसटी लागू करने के फैसले लिये गए हैं।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रवृत्तियाँ दिखनी आरंभ हो गई हैं और ऐसे में भारत को भी आर्थिक विकास के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करना होगा। आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये निवेश होना चाहिये, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की खस्ता हालत को देखते ऐसा होने की संभावनाएँ अत्यंत ही कम हैं। अतः बैंकों में पूँजी डालना अनिवार्य हो गया। यह इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कॉर्पोरेट क्षेत्र की बैलेंस शीट से एनपीए बढ़ता है। अतः एनपीए की इस समस्या के समाधान हेतु कॉर्पोरेट बैलेंस शीट के प्रभाव को कम करना बेहद  है।

समस्या भी हो सकती है: बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराने का निर्णय निश्चित ही सराहनीय है, लेकिन आज एनपीए चिंताजनक स्तर तक बढ़ चुका है। यदि अर्थव्यवस्था को एक जहाज़ माना जाए तो एनपीए इस जहाज़ में हो चुके छेद के समान है। अब पुनर्पूंजीकरण रूपी पंप से जितना पानी उलीच कर बाहर फेंका जाएगा, यदि उतना ही पानी यदि एनपीए रूपी छेद से फिर अंदर आता जाएगा तो पुनर्पूंजीकरण के उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो सकेगी।

इसके अलावा  नई पूंजी के आवंटन की प्रासंगिकता इस बात पर भी निर्भर होगी कि बैंक इसका इस्तेमाल कितने प्रभावी ढंग से कर रहे हैं और एनपीए से कैसे निपट रहे हैं। भारी पैमाने पर किया जाने वाला पुनर्पूंजीकरण सरकारी बैंकों को ऋण संबंधी चुनौतियों से निपटने में मदद तो करेगा, लेकिन इससे बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी और ज़्यादा बढ़ेगी, जबकि सरकार इसे कम करना चाहती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

कारपोरेट क्षेत्र में रोज़गार की स्थिति का अध्ययन: केयर रेटिंग्स एजेंसी ने पिछले पांच साल के लिये कारपोरेट क्षेत्र में रोज़गार की स्थिति का भी अध्ययन किया है।

  • इस अध्ययन के अनुसार वित्त वर्ष 2016-17 में कुल 1473 कंपनियों में 51.8 लाख रोज़गार सृजित हुए जो 2014-15 में 50.1 लाख थे। 
  • रोज़गार में प्रतिवर्ष एक प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई, जबकि वृद्धि दर लगभग 7 प्रतिशत रही।
  • रोज़गार सृजन के मामले में बैंकिंग क्षेत्र सबसे आगे रहा और रोज़गार सृजन में इसका हिस्सा 21.3 प्रतिशत रहा। इसके बाद क्रमश: आईटी, खनन, स्वास्थ्य और कपड़ा क्षेत्र का स्थान रहा।
  • वित्त वर्ष 2016-17 में जिन क्षेत्रों में रोज़गार में कमी दर्ज की गयी, उसमें एफएमसीजी (रोज़मर्रा के इस्तेमाल की वस्तुएँ) बनाने वाली कंपनियाँ, मीडिया और मनोरंजन तथा कागज़ क्षेत्र शामिल हैं।

शिक्षा ऋण में भी बढ़ रहा एनपीए

  • बैंकों के लिये शिक्षा ऋण भी अब समस्या बनता जा रहा है, जो मार्च 2017 में कुल का एनपीए का 7.67 प्रतिशत हो गया, यह दो साल पहले 5.7 प्रतिशत था। 
  • भारतीय बैंक संघ के आँकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2016-17 के अंत में कुल शिक्षा ऋण 67,678.50 करोड़ रुपये पहुँच गया, जिसमें से 5,191.72 करोड़ रुपये एनपीए हो गया। 
  • वित्त वर्ष 2014-15 में एनपीए 5.7 प्रतिशत थी जो 2015-16 में 7.3 प्रतिशत तथा पिछले वित्त वर्ष में 7.67 प्रतिशत पहुँच गया। 

योजना में किया गया था बदलाव: उल्लेखनीय है कि सरकार ने कुछ समय पूर्व शिक्षा ऋण योजना के मॉडल में इसके तहत जो बदलाव किये गए, उसमें भुगतान की अवधि बढ़ाकर 15 साल करना तथा 7.5 लाख रुपये तक के शिक्षा ऋण के लिये क्रेडिट गारंटी फंड स्कीम फॉर एजुकेशन लोन की शुरुआत शामिल हैं, जो क़र्ज़ में चूक होने पर 75 प्रतिशत की गारंटी उपलब्ध कराता है।

उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार शिक्षा ऋण के मामले में सार्वजनिक क्षेत्र के इंडियन बैंक का एनपीए मार्च 2017 के अंत में सर्वाधिक 671.37 करोड़ रुपये रहा. उसके बाद क्रमश: एसबीआई 538.17 करोड़ रुपये तथा पंजाब नेशनल बैंक 478.03 करोड़ रुपये का स्थान रहा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

क्या किया जा रहा है?

  • 5/25 योजना: इसके तहत ऋण परिशोधन की अवधि को 25 वर्षों तक बढ़ा दिया जाता है एवं प्रत्येक 5 वर्षों की अवधि के पश्चात् ब्याज दरों को पुनः परिवर्तित करने का प्रावधान किया जाता है।
  • एस.डी.आर. (Strategic Debt Restructuring)– इसके अन्तर्गत बैंक एनपीए से संबंधित कंपनियों को दिये गए ऋण को इक्विटी में बदलकर उसके प्रबंधन पर नियंत्रण कर सकते हैं, साथ ही बैंक 18 महीनों के अंदर  इक्विटी को बेचकर अपने पैसे वापस ले  सकते हैं।
  •  एस.4 ए: जून, 2016 में इसे (Scheme of Sustainable Structuring of Stressed Assets-S4A)  लागू किया गया, जिसके अनुसार बैंक अपने द्वारा दिये गए ऋण की कुल मात्र को सतत् (Sustainable) एवं असतत् (Unsustainable) में बाँटकर निपटान करता है।
  • पुनर्गठन (Restructuring: यदि किसी कंपनी की समस्या में सुधार नहीं हो रहा है और बैंक को यह पता है कि कंपनी जानबूझकर ऐसा नहीं कर रही यानी विलफुल डिफॉल्टर नहीं है और न ही कंपनी ऋण को किसी और प्रयोजन में खर्च कर रही है, तब ऐसी स्थिति में बैंक कंपनी द्वारा लिये गए ऋण को पुनर्गठित कर सकती है, जिसके लिये ब्याज दर घटाकर ऋण चुकाने की अवधि को बढ़ाया जा सकता है।

प्रतिभूति हित प्रवर्तन एवं ऋणों की वसूली  के कानून एवं विविध प्रावधान (संशोधन) कानून, 2016

इस कानून के तहत बैंकों को ऋण अदायगी नहीं किये जाने पर गिरवी रखी गई संपत्ति को कब्ज़े में लेने का अधिकार दिया गया है। खेती की ज़मीन को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। शिक्षा ऋण की अदायगी में हुई चूक को बट्टे खाते में नहीं डाला जाएगा तथा इसकी वसूली के ‘सहानुभूति का दृष्टिकोण’ अपनाया जाएगा। उपरोक्त कानून  के ज़रिये चार मौज़ूदा कानूनों--प्रतिभूतिकरण एवं वित्तीय संपत्तियों के पुनर्गठन एवं प्रतिभूति हित प्रवर्तन अधिनियम 2002 (सरफेसी कानून), ऋण वसूली न्यायाधिकरण अधिनियम 1993, भारतीय स्टांप शुल्क अधिनियम 1899 और डिपॉजिटरी अधिनियम 1996 के कुछ प्रावधानों में संशोधन किये गए हैं ताकि ऋण वसूली की व्यवस्था को और कारगर बनाया जा सके।

(टीम दृष्टि इनपुट)

अचानक उत्पन्न नहीं हुई यह समस्या

रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के कार्यकाल में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एनपीए को नियंत्रित करने की पहल की गई थी। उन्होंने बैंकों को विवश किया कि वे अपने कुल कर्ज़ में एनपीए के वास्तविक आँकड़े को सामने रखें, जो तब तक उनकी बैलेंस शीट से बाहर नहीं आ पाता था। बैंकों की सेहत सुधारने की इस कवायद के तहत बैंकों से मार्च, 2017 तक अपनी बैलेंस शीट सुधारने को कहा गया था। तब यह भी कहा गया था कि बैंकों को क्रेडिट ग्रोथ की जगह एनपीए कम करने की तरफ ध्यान देना चाहिये, क्योंकि एनपीए पर काबू पाने के बाद बैंक अपनी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेने में समर्थ हो सकते हैं।

निष्कर्ष: भारत की  बैंकिंग प्रणाली ऐसी चुनौती भरी पृष्ठभूमि में अपेक्षाकृत लंबे समय से कार्य कर रही है जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की आस्ति गुणवत्ता, पूंजी पर्याप्तता तथा लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इनके मद्देनज़र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में वैश्विक जोखिम मानदंडों के अनुरूप उनकी पूंजी ज़रूरतों को पूरा करने और क्रेडिट ग्रोथ को बढ़ावा देने के लिये पूंजी लगा रही है। लेकिन एनपीए का स्तर 7 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो जाने के कारण चिंता होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि किसी काम की नहीं है। यदि इस राशि की वसूली हो जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इज़ाफा, लाखों लोगों को रोज़गार, नीतिगत दर में कटौती का लाभ कारोबारियों तक पहुँचना, आधारभूत संरचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मजबूती, विकास को गति देना आदि संभव हो सकेगा। यह भी स्पष्ट है कि एनपीए को कम करने का उपाय उसके मर्ज़ में छिपा है। बैंक में व्याप्त अंदरूनी तथा अन्य खामियों का इलाज, बैंक के कार्यकलापों में बेवजह दखलंदाज़ी पर रोक, मानव संसाधन में बढ़ोतरी  आदि की मदद से बढ़ते एनपीए पर निश्चित रूप से काबू पाया जा सकता है।