पॉलिसी वाच : नई कृषि निर्यात नीति | 01 Sep 2018

संदर्भ

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री ने नई कृषि निर्यात नीति को बहुत जल्द लागू किये जाने की घोषणा की| भारत पहली बार नीति की ओर कदम बढ़ा रहा है| इस नीति के माध्यम से किसान वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा कर सकते हैं| प्रधानमंत्री ने कहा कि कृषि क्षेत्र में उत्पाद को बाज़ार में ले जाने की रणनीति में एक उल्लेखनीय बदलाव आएगा|

प्रस्तावित राष्ट्रीय कृषि निर्यात नीति देश के कृषि निर्यात को 2022 तक दोगुना अर्थात् 60 अरब डॉलर तक करने का लक्ष्य रखती है, जिससे भारत के लिये शीर्ष 10 कृषि निर्यातकों में शामिल होने का मार्ग प्रशस्त होगा, साथ ही निर्यात नियमों में स्थिरता को बढ़ावा मिल सकेगा| अंतर-मंत्रालयी स्तर पर इसकी जाँच की जा रही है और जल्द ही मंज़ूरी के लिये इसे केंद्रीय मंत्रिमंडल के समक्ष रखा जाएगा।

कृषि निर्यात बढ़ाने संबंधी नीति की ज़रूरत क्यों? 

  • विदित हो कि बीते तीन वर्षों में कृषि निर्यात लगातार कम हुआ है। वर्ष 2013-14 के 42.9 अरब डॉलर से घटकर यह वर्ष 2016-17 में 33.4 अरब डॉलर रह गया है और इस गिरावट को रोकना आवश्यक है। 
  • दरअसल यह इसलिये चिंतित करने वाला है, क्योंकि कृषि जिंसों के मामले में भारत घाटे से अधिशेष वाला देश बन चुका है और उसे अपनी अतिरिक्त उपज के लिये नए बाज़ारों की आवश्यकता है। 
  • कमज़ोर घरेलू कीमतों और किसानों की बढ़ती निराशा के बीच निर्यात के ठिकानों की सख्त आवश्यकता है। हाल के दिनों में बंपर पैदावार के बाद भी किसानों को फसलों के उचित दाम नहीं मिले, इससे भी निर्यात बढ़ाने की ज़रूरत उजागर होती है।

टीम दृष्टि इनपुट

भारत में कृषि निर्यात की चुनौतियाँ 

  • 1991 में अर्थव्यवस्था में तेज़ी आने के दो दशक से अधिक समय तक भारत के कृषि निर्यात में तेज़ रफ्तार आई थी। 1991-92 और 2013-14 के बीच भारत के कृषि व्यापार अधिशेष में दस गुना वृद्धि दर्ज की गई। तीन साल बाद तस्वीर काफी अलग है।
  • 2013-14 और 2016-17 के बीच कृषि निर्यात में 22% की कमी आई, जबकि आयात में 62% की वृद्धि हुई। नतीजतन, व्यापार अधिशेष 70% गिर गया।
  • निर्मला सीतारमण ने भारत की कमजोर कृषि निर्यात आय को मुद्रा में उतार-चढ़ाव के चलते अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में गिरावट और प्रतिस्पर्धात्मकता में कमी का कारण बताया और निकट भविष्य में इसमें सुधार की संभावना नहीं है।
  • इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) और फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन ऑन द एग्रीकल्चरल आउटलुक की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि प्राथमिक वस्तुओं की कीमतों में गिरावट की प्रवृत्ति आगे भी बनी रहेगी।
  • कपास, चीनी और चावल के लिये स्थिति विशेष रूप से निराशाजनक है, जो भारत के कृषि निर्यात बास्केट के प्रमुख घटक हैं।
  • घरेलू अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति के दबाव को रोकने के लिये सरकार महत्त्वपूर्ण खाद्य वस्तुओं पर निर्यात प्रतिबंध लगाती है जो कि अनुचित है| नीति अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उच्च कीमतों को प्राप्त करने के लिये किसानों को वंचित करती है| साथ ही आय अनिश्चितता का एक तत्त्व भी इससे जुड़ा होता है। 
  • अगर अंतर्राष्ट्रीय निर्यात के उच्च स्तर पर सरकार निर्यात प्रतिबंध लगाती है, तो किसान निर्यात योग्य फसलों की खेती के लिये प्रोत्साहित नहीं होंगे। पिछले आर्थिक सर्वेक्षणों ने भी इसी तरह के तर्क दिये हैं। 
  • देश में प्रसंस्कृत कृषि उत्पादों के निर्यात का दायरा बहुत बड़ा है, लेकिन इसके लिये हमें प्रभावी कोल्ड चेन की आवश्यकता है। यदि निर्यात में वृद्धि करनी है तो सरकार को बुनियादी ढाँचे में निवेश करने की ज़रूरत है|
  • वेयरहाउसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार से मानसून की बारिश जैसे मौसमी कारकों के चलते मुद्रास्फीति की चिंताओं का सामना किया जा सकता है| उत्तर प्रदेश और पंजाब राज्यों में देश का लगभग 50% कोल्ड स्टोरेज क्षमता है।शेष राज्यों में वेयरहाउसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थिति क्या है इससे समझा जा सकता है|
  • कृषि उत्पादों को लागत प्रभावी बनाने के लिये हमें कृषि वस्तुओं को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्द्धी बनाने की आवश्यकता है| 
  • कृषि निर्यात को गति देने के लिये टेक्नोलॉजी नीति, एक्सिम नीति, मूल्य नीति तथा अन्य गैर-मूल्य कारकों को ध्यान में रखते हुए निर्यात नीति बनानी चाहिये|
  • वास्तव में अमेरिकी आपत्ति जो कि हाल ही में WTO में दाखिल की गई है, वह बहुत अधिक निर्यात से संबंधित नहीं है, अतः कठिनाई WTO में नहीं दिखाई देती| यह कठिनाई आतंरिक है| मुख्य मुद्दा प्रमुख चावल उत्पादक राज्यों में जल का संकट है|
  • भारत से 6 बिलियन चावल का निर्यात गैर बासमती चावल का होता है जहाँ जल संकट के समाधान के लिये नीति बनाए जाने की आवश्यकता है|
  • केंद्र और राज्य सरकारों को किसानों, पशुपालकों और मछुआरों को शिक्षित बनाना होगा ताकि वे कीटनाशकों और एंटीबायोटिक का उचित इस्तेमाल करके अपनी उपज को इनके घातक असर से बचाएँ। इनकी अधिकता के चलते कई बार निर्यात रद्द करना पड़ता है। 

भारत के संदर्भ में WTO से संबंधित मुद्दे

  • संयुक्त राज्य अमेरिका व्यापार प्रतिनिधि (USTR)  की प्रमुख शिकायत यह है कि भारत सब्सिडी और काउंटरवेलिंग उपायों (Agreement on Subsidies and Countervailing Measures : SCM Agreement) के समझौते के तहत  की गई अपनी प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन कर रहा है।
  • USTR ने इस संदर्भ में भारत की 5 निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं (निर्यात उन्मुख इकाइयों की योजनाएँ व क्षेत्र-विशिष्ट योजनाएँ) का उल्लेख किया है, जो कि निम्नलिखित हैं-
  • इलेक्ट्रॉनिक्स हार्डवेयर प्रौद्योगिकी पार्क योजना (electronics hardware technology parks scheme)। 

♦ भारत से मर्चेंडाइज़ निर्यात के लिये योजना (merchandise exports from India scheme)। 
♦ निर्यात संवर्द्धन कैपिटल गुड्स संबंधी योजना (export promotion capital goods scheme)। 
♦ विशेष आर्थिक क्षेत्र (special economic zones)। 
♦ शुल्क मुक्त आयात अधिकार-पत्र योजना (Duty free import authorization scheme)।

  • USTR का मुख्य तर्क यह है कि भारत की उपरोक्त पाँच निर्यात संवर्द्धन  योजनाएँ, एससीएम समझौते के प्रावधान 3.1 (ए) और 3.2 का उल्लंघन करती हैं, क्योंकि ये दोनों प्रावधान निर्यात सब्सिडी देने पर रोक लगाते हैं।
  • उल्लेखनीय है कि 2015 तक भारत को निर्यात सब्सिडी का उपयोग करने की मनाही नहीं थी क्योंकि भारत इस समझौते की अनुसूची VII (annex VII) में शामिल 20 विकासशील देशों में सम्मिलित था।  अनुसूची VII में उन देशों को शामिल किया गया है, जिन्हें तब तक सब्सिडी का उपयोग करने की अनुमति दी गई है, जब तक लगातार तीन वर्षों तक उनका प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) 1000 डॉलर की सीमा को पार नहीं कर जाता है।
  • अनुसूची VII का यह प्रावधान विकासशील देशों द्वारा निर्यात सब्सिडी को समाप्त करने के लिये लाए  गए विशेष प्रावधानों का अपवाद था, इस प्रावधान को विशेष और विभेदीकृत उपचार (special and differential treatment) के तौर पर जाना जाता है। अनुसूची VII में शामिल विकासशील देशों को छोड़कर, अन्य सभी विकासशील देशों को निर्यात सब्सिडी को खत्म करने के लिये 1995 के विश्व व्यापार संगठन समझौते के लागू होने (बाद में शामिल हुए देशों के लिये, उन देशों के विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने) से 8 साल की अवधि तक की अनुमति दी गई थी।
  • विश्व व्यापार संगठन सचिवालय ने 2017 में की गई अपनी गणना में पाया कि भारत 2015 में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) 1000 डॉलर की सीमा को पार कर गया था।
  • प्रस्तावित कृषि निर्यात नीति WTO के मानदंडों के अनुरूप होगी| भारत सरकार की ओर से यह अच्छा प्रयास है कि सरकार एक ऐसी नीति बना रही है जिसकी स्वीकृति मंत्रिमंडल देगी| यह नीति स्थिर होगी ताकि इसमें समय-समय पर बदलाव की कोई गुंजाईश न रहे| 

अन्य मुद्दे 

1. कृषि सब्सिडी व बौद्धिक संपदा

  • कृषि के क्षेत्र में विकसित देशों ने छोटे कृषकों के हितों की पूर्णतः अनदेखी की है। कृषि और बौद्धिक संपदा, दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर विकसित देशों द्वारा एकतरफा नियम बनाए जाने से भारत जैसे विकासशील देश परेशान हैं।
  • भारत की मांग है कि विकासशील देशों को अपने देश के गरीब वर्ग को सब्सिडी पर भोजन उपलब्ध कराने के बारे में नियम बनाने का पूर्ण अधिकार होना चाहिये। वहीं विकसित देश इसे स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा  का उल्लंघन मानते हैं और इसे संगठन के नियमों के विरुद्ध बताते हैं।
  • वर्तमान में भारत की मांग को ‘पीस क्लॉज़‘ के तहत स्वीकार कर लिया गया है, किंतु भारत की मांग है कि खाद्य सुरक्षा के लिये गरीब वर्ग को सब्सिडी पर भोजन उपलब्ध कराने हेतु संगठन द्वारा हमेशा के लिये  स्वीकृति मिलनी चाहिये। इस पर अभी कोई निर्णय नहीं हो सका।

2. व्यापार को सरल बनाने का विषय 

  • व्यापार को सरल बनाने (Trade Facilitation) के लिये देशों के बीच व्यापार सुविधा समझौते की रूपरेखा का निर्माण किया गया है। इसमें उन सभी क्षेत्रों को शामिल किया गया, जिसमें आपसी व्यापार के शुल्क को कम किया जा सके।  साथ ही, इस समझौते में देशों को अपने सीमा शुल्क एवं सुविधाओं में परिवर्तन भी करना होगा। 
  • गरीब देशों के लिये यह एक मुश्किल काम है, क्योंकि सीमा पर आधुनिक सेवाओं के लिये धन लगाना उनके लिये संभव नहीं है। विकासशील देशों ने शुरुआत में इसका विरोध करते हुए भी इसे बाली सम्मेलन में स्वीकृति दे दी।

3. ई-कॉमर्स और निवेश को विश्व व्यापार संगठन में शामिल करने का विषय  

  • 2017 में ब्यूनस आयर्स में संपन्न हुई 11वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में इलेक्ट्रॉनिक, ई-कॉमर्स और निवेश को भी शामिल करने का प्रस्ताव किया गया है। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि इससे छोटे दर्जे के व्यापारियों के लिये नए बाज़ार खुल जाएंगे। 
  • ई-कॉमर्स से व्यापार के परंपरागत तरीकों को बदला जा सकेगा। समस्या यह है कि वर्तमान में विकासशील और गरीब देशों में इंटरनेट का उपयोग बहुत कम किया जाता है। इससे ई-कॉमर्स का वाकई लाभ उठाने पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। विकासशील देशों ने ई-कामर्स के ज़रिये दूसरे देशों के बाज़ारों से जुड़ने हेतु उनके संसाधनों में भी वृद्धि करने की मांग की है। 
  • निवेश पर भी देश आपस में बँटे हुए हैं। विकासशील देशों ने पहले भी इस पर सवाल उठाए थे कि निवेशक देश के अगर निवेश किये जाने वाले मेजबान देश से कुछ विवाद हैं, तो उन्हें किस अंतर्राष्ट्रीय  पैनल में सुलझाया जाएगा? ई-कॉमर्स और निवेश को विश्व व्यापार संगठन में शामिल करने से अमीर एवं गरीब देशों के बीच तनाव पहले से और बढ़ गया है।

टीम दृष्टि इनपुट 

वैश्विक कृषि निर्यात में भारत की स्थिति 

  • भारत दुनिया में कृषि उत्पादों के 15 प्रमुख निर्यातकों में से एक है। यह देश में चावल, माँस, मसाले, कच्चा कपास और चीनी जैसे कुछ कृषि वस्तुओं में एक महत्त्वपूर्ण निर्यातक के रूप में उभरा है। भारत ने बासमती चावल, ग्वार गम और अरंडी के तेल की तरह कुछ विशिष्ट कृषि उत्पादों में निर्यात प्रतिस्पर्द्धा विकसित की है।
  • वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के तहत काम करने वाले डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ कमर्शियल इंटेलीजेंस एंड स्टैटिस्टिक्स (DGCIS) के आँकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2016-17 में भारत से कृषि एवं सहायक उत्पादों का निर्यात 25 प्रतिशत कम होकर 24.69 अरब डालर रह गया, जबकि वित्त वर्ष 2014 में यह आंकड़ा 32.95 अरब डालर था। 
  • इसके उलट इस दौरान इन उत्पादों का कुल आयात 13.49 अरब डालर से बढ़कर 23.20 डालर हो गया। 
  • कृषि वस्तुओं का वैश्विक निर्यात 1.4 बिलियन डालर है जिसमें भारत का हिस्सा लगभग 2.2 प्रतिशत है| भारत से निर्यात होने वाली प्रमुख कृषि वस्तुएँ बासमती चावल (लगभग 6 बिलियन डालर), समुद्री उत्पाद तथा भैस का मांस (लगभग 4 बिलियन डालर) हैं|

क्या यह व्यापक नीति होगी?

  • यह नीति बीफ के निर्यात पर कोई बात नहीं करती| नीति में कृषि उत्पादों के निर्यात पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है| नीति में कृषि क्षेत्र के अन्य अनुभागों जैसे बागवानी आदि पर अधिक ज़ोर नहीं दिया गया है|
  • जहाँ तक प्रमुख घरेलू उत्पादों का संबंध है तो यह देश में पर्याप्त है| देश में चावल और गेहूँ का पर्याप्त उत्पादन होता है| जब प्याज का दाम बढ़ा था तब सरकार ने न्यूनतन समर्थन मूल्य बढ़ा दिये थे| एक समय प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी गई| इस तरह के रोक अन्य अनेक वस्तुओं पर भी लगाई गई है|
  • निर्यात बाज़ार में भारतीय निर्यातकों का विदेशी आयातकों के साथ संबंध होता है और जब वस्तुओं पर प्रतिबंध लग जाते हैं तो इन संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| इसलिये नीति में स्थिरता के साथ इस पहलू पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये|
  • कृषि निर्यात में गिरावट सरकार की कृषि संबंधी विदेश व्यापार नीतियों में अस्थिरता की वजह से आई है। निर्यात पर अक्सर प्रतिबंध लगाए जाते रहे हैं, निर्यात शुल्क और न्यूनतम समर्थन मूल्य ऐसे नहीं हैं कि एक स्थिर निर्यात बाज़ार तैयार किया जा सके। 
  • चावल, गेहूँ और चीनी जैसी थोक निर्यात वाली जिंस ऐसी ही नीतियों की शिकार हैं। इससे भारत की भरोसेमंद निर्यातक की छवि को भी धक्का पहुँचता है और विदेशी खरीदार इनकी नियमित आपूर्ति के लिये दूसरे देशों का रुख करते हैं। 
  • आश्चर्य नहीं कि अनेक प्रतिस्पर्द्धी मूल्य वाली कृषि जिंसों में दुनिया का अग्रणी उत्पादक होने के बावजूद वैश्विक कृषि व्यापार में भारत की हिस्सेदारी महज़ 2.2  फीसदी है।

कृषि निर्यात नीति की संभावनाएँ

  • कृषि क्षेत्र में अधिक उत्पादन निर्यात की नई संभावनाएँ प्रस्तुत कर रहा है| इसके प्रमुख कारणों में सरकार द्वारा घोषित की गई नई कृषि निर्यात नीति है, जिसके तहत सरकार ने कृषि निर्यात बढ़ाने के लिये उदार प्रोत्साहन निर्धारित किये हैं|
  • दूसरा प्रमुख कारण अमेरिका और चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध से भारत के लिये उत्पन्न हुई निर्यात संभावनाएँ हैं। चूँकि भारत भी चीन को निर्यात कर रहा है और भारतीय वस्तुओं पर चीन ने कोई आयात शुल्क नहीं बढ़ाया है। इसलिये चीन को भारत के निर्यात बढ़ेंगे। 
  • तीसरा कारण हाल ही में आयोजित भारत और चीन के बीच संयुक्त आर्थिक समूह की बैठक में भारत से चीन को कृषि निर्यात बढ़ाने के परिदृश्य का उभरना है।
  • कृषि निर्यात की मसौदा नीति में राज्यों की कृषि निर्यात में ज़्यादा भागीदारी, बुनियादी ढाँचे और लॉजिस्टिक्स में सुधार तथा नए कृषि उत्पादों के विकास के लिये शोध एवं विकास गतिविधियों को प्रोत्साहन पर ज़ोर दिया गया है।

क्या बदलाव किये जाने की आवश्यकता है?

  • पहला बदलाव जो आवश्यक है वह है मनोदशा से संबंधित। उपभोक्ताओं द्वारा किसानों का समर्थन करने के लिये बाज़ार की कीमतों को दबाने के बजाय, सरकार को लक्षित बिना शर्त आय हस्तांतरण के ज़रिये उनकी रक्षा करनी चाहिये। 
  • दूसरा, पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करते समय नीति निर्माताओं को कृषि निर्यात का समर्थन करना चाहिये। समुद्री उत्पाद, मांस, तेल, मूँगफली, कपास, मसाले, फल और सब्जियाँ पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न नहीं करती हैं, चावल के निर्यात का उचित मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
  • पंजाब या हरियाणा में एक किलोग्राम चावल पैदा करने के लिये लगभग 5000 लीटर पानी की सिंचाई के लिये ज़रूरत होती है। जिसके कारण भूमिगत जल के दोहन से भूजल तालिका में 70 से 110 सेमी/वर्ष तक भारी गिरावट आई है। इस क्षेत्र द्वारा बड़ी मात्रा में चावल का निर्यात, अरबों घन मीटर पानी के निर्यात के समान है। इसे सुधारने का सबसे अच्छा तरीका धीरे-धीरे बिजली और सिंचाई सब्सिडी को चरणबद्ध करना होगा| 
  • तीसरा, सरकार को कुशल वैश्विक मूल्य श्रृंखला विकसित करनी होगी और सभी राज्यों में भूमि पट्टा बाज़ार को उदार बनाना होगा। इसे अनुबंध-कृषि के मध्यम से दीर्घकालिक आधार पर प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • निर्यातक और प्रोसेसर को किसान-उत्पादक संगठनों (FPO) से सीधे खरीदने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये| निजी क्षेत्र ऐसे मूल्य श्रृंखला बनाने में एक प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन इसे संस्थागत सुधारों द्वारा सक्षम किया जाना चाहिये। इन निवेशों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर गुणात्मक प्रभाव हो सकता है। 
  • इनमें से अधिकतर सुधार राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। यदि सरकार इन सुझावों को अमल में लाती है, तो कृषि निर्यात बढ़ेगा और ऐसे में किसानों की आय भी बढ़ेगी। 
  • लेकिन 2022-23 तक 60 अरब डालर या 100 अरब डॉलर के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो यह  इस बात पर निर्भर करेगा कि सुधार कितने व्यापक हैं और इनका कार्यान्वयन कितना कुशलता पूर्वक किया जाता है। अब तक सरकार का रिकॉर्ड बहुत ही आशाजनक नहीं रहा है। 

निष्कर्ष 

इसमें दोराय नहीं कि शीतगृहों के निर्माण की दिशा में कुछ प्रगति हुई है, लेकिन अभी भी उनकी तादाद 4.2 करोड़ शीतगृहों की वास्तविक आवश्यकता से काफी कम है। इसी तरह, फिलहाल देश में 250 पैक हाउस हैं, जबकि ज़रूरत 70,000 की है। सरकार की खाद्य प्रसंस्करण नीति मौजूदा स्वरूप में बड़ी परियोजनाओं और खाद्य आधारित क्लस्टरों के पक्ष में झुकी हुई है। इसमें छोटी-मझोली इकाइयों के लिये खास जगह नहीं है। गौरतलब है कि सरकार एक दशक से बड़े फूड पार्कों का समर्थन करती आई है, लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा नहीं नज़र आया है। वर्ष 2008-09 से जिन 40 मेगापार्कों को मंजूरी दी गई है उनमें से कुछ ही पूरे हुए हैं।

एपीडा ने खराब होने वाली निर्यातोन्मुख सामग्री के हवाई परिवहन पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की दर को मौजूदा 18 फीसदी से कम कर 5 फीसदी करने की मांग की है, इस पर भी विचार होना चाहिये। जब तक इन मुद्दों को हल नहीं किया जाता  कृषि निर्यात प्रभावित होता रहेगा।