ईरान-अमेरिका तनाव और भारत के हित | 26 Jun 2019

संदर्भ

इधर पिछले कुछ समय से ईरान और अमेरिका के बीच तनाव अपने चरम पर पहुँच चुका है और स्थिति लगभग युद्ध के कगार तक पहुँच चुकी है। सैन्य हमले की तैयारी करने के बाद बेशक अमेरिका इससे पीछे हट गया, लेकिन इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले दिनों में यह खतरा और बढ़ सकता है। अमेरिका और ईरान के बीच तनाव इतना अधिक है कि कई लोग सोच रहे हैं कि क्या इराक के खिलाफ विनाशकारी युद्ध में बमबारी करने के डेढ़ दशक बाद अमेरिका एक दुखद ऐतिहासिक गलती को दोहराने जा रहा है। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने निश्चित रूप से इस प्रकार के संघर्ष की संभावना को बढ़ा दिया है।

पृष्ठभूमि

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता सँभालने के बाद जब अमेरिका ने वैश्विक महाशक्तियों के साथ हुए समझौते से बाहर निकलने का ऐलान किया था, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि हालात दिन-पर-दिन बिगड़ते ही जाने वाले हैं। अमेरिका अपनी चौधराहट छोड़ देगा, ऐसा किसी को सपने में भी गुमान न था...और न ही कोई यह सोच रहा था कि तमाम प्रतिबंधों और दबावों के बाद ईरान हाथ जोड़ता हुआ अमेरिका के चरणों में जा गिरेगा।

अमेरिका के समझौते से हटने के बाद शुरू हुआ तनाव

दोनों देशों के बीच तनातनी तभी से ज़्यादा बढ़ी है, जब अमेरिका ने ईरान के साथ किये परमाणु समझौते (संयुक्त कार्रवाई व्यापक योजना-Joint Comprehensive Plan Of Action-JCPOA) से अपने को अलग कर लिया था। इस समझौते में अमेरिका के सहयोगी देशों ने शुरू में तो इसे राष्ट्रपति ट्रंप की हठधर्मिता बताते हुए अलग हटने से इनकार किया था, लेकिन बाद में विभिन्न प्रतिबंधों के मद्देनज़र अमेरिकी नीति का अनुसरण करने में ही अपनी भलाई समझी।

ईरान यह मानता है कि अमेरिका लंबे समय से उसे परमाणु हथियार बनाने की आड़ में विवाद में फँसाकर उस पर हमला करने की तैयारी में है। ठीक ऐसा ही उसने इराक के साथ किया था, जब इराक पर जैविक हथियार बनाने का आरोप लगाकर उस पर हमला किया गया, लेकिन बाद में इराक के पास जैविक हथियार जैसा कुछ नहीं मिला था। एक अनुमान यह भी जताया जा रहा है कि इराक की तरह ही ईरान के तेल पर भी अमेरिका कब्ज़ा करना चाहता है, लेकिन यह इसलिये संभव नहीं हो पा रहा क्योंकि ईरान के साथ रूस खड़ा है और चीन भी अमेरिका के खिलाफ है। ऐसे में ईरान पर सैन्य आक्रमण करना आसान नहीं है।

तेज़ी से बदलता हालिया घटनाक्रम

तेल टैंकरों पर हमले और इसके बाद अमेरिकी ड्रोन को मार गिराए जाने के पश्चात् अमेरिका ने प्रतिबंधों को और कड़ा कर दिया तथा अब ईरान के सर्वोच्च नेताओं को भी इसके दायरे में ले लिया है। इन प्रतिबंधों के तहत ईरान के सर्वोच्च नेता तथा अन्य अधिकारियों को बैंकिंग सुविधा का लाभ लेने से वंचित किया जाएगा। अमेरिका का कहना है कि हम ईरान या किसी अन्य देश के साथ संघर्ष नहीं चाहते, लेकिन यह तय है कि हम कभी भी ईरान को परमाणु हथियार नहीं बनाने देंगे। इसके बाद अमेरिका ने ईरान पर साइबर अटैक करने का दावा किया, जिसका ईरान ने खंडन किया।

दुश्मनी का बहुत पुराना इतिहास

वर्ष 1979 की इस्लामिक क्रांति से पहले का शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी द्वारा शासित ईरान किसी भी मायने किसी यूरोपीय देश से कम नहीं था, लेकिन इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान में नए नेता अयातुल्लाह रुहोल्लाह ख़ुमैनी का आगमन हुआ, जो इस्लामिक क्रांति से पहले तुर्की, इराक़ और पेरिस में निर्वासित जीवन जी रहे थे। वह शाह पहलवी के नेतृत्व में ईरान के पश्चिमीकरण और अमेरिका पर बढ़ती निर्भरता के घोर विरोधी थे। वर्ष 1953 में अमेरिका और ब्रिटेन ने ईरान में लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग को अपदस्थ कर शाह पहलवी को सत्ता सौंप दी थी।

ईरान में हुई वर्ष 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद वहाँ रूढ़िवादिता ने अपने पैर पसार लिये और ख़ुमैनी की उदारता में भी अचानक से परिवर्तन आया। उन्होंने विरोधी आवाज़ों को दबाना शुरू कर दिया और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान की लोकतांत्रिक आवाज़ कहीं खो सी गई। इस क्रांति के तत्काल बाद ईरान और अमेरिका के राजनयिक संबंध समाप्त हो गए। राजधानी तेहरान में ईरानी छात्रों के एक समूह ने अमेरिकी दूतावास को अपने क़ब्ज़े में ले लिया और 52 अमेरिकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया। माना जाता है कि इसमें ख़ुमैनी का भी मौन समर्थन था। ईरान ने अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर से शाह पहलवी को ईरान वापस भेजने की मांग की थी, जो इलाज कराने न्यूयॉर्क गए थे। क्रांतिकारियों ने अमेरिकी बंधकों को तब तक रिहा नहीं किया, जब तक रोनाल्ड रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं बन गए। इस दौरान शाह पहलवी की मिस्र में मौत हो गई और खुमैनी ने अपनी ताकत को और धर्म केंद्रित कर लिया।

(टीम दृष्टि इनपुट)

तेल टैंकरों पर हमला

हालात उस समय और बिगड़ना शुरू हुए जब इसी महीने के मध्य में ओमान की खाड़ी में दो तेल टैंकरों में धमाके हुए जिसका आरोप ईरान पर लगाने में अमेरिका ने कोई देरी नहीं की। लेकिन दूसरी तरफ ईरान का कहना था कि उसने कोकुका करेजियस टैंकर से 21 लोगों को और फ्रंट अल्टायर से 23 लोगों को सुरक्षित बचाया। गौरतलब है कि इससे एक महीना पहले संयुक्त अरब अमीरात के चार तेल टैंकरों पर हमले की घटना सामने आई थी। ओमान की खाड़ी को दुनिया का सबसे व्यस्त तेल रूट माना जाता है और यह हमला होरमुज़ जलडमरूमध्य के पास हुआ, जो फारस की खाड़ी का संकरा गलियारा है। यह ईरान और ओमान का जल क्षेत्र है जो 33 किलोमीटर चौड़ा है। इसी की एक धारा ओमान की खाड़ी की ओर निकलती है, जहाँ से पूरी दुनिया के टैंकर और पोत निकलते हैं। होरमुज़ जलडमरूमध्य को अंतर्राष्ट्रीय पारगमन (ट्रांज़िट) रूट के तौर पर देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यूएई, सऊदी अरब और नॉर्वे ने पिछले हफ़्ते संयुक्त रूप से एक रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने बताया कि गोताखोरों द्वारा यह विस्फोट किया गया, लेकिन उन्होंने इसके लिये किसी देश को दोषी नहीं ठहराया था।

ईरान ने मार गिराया अमेरिकी ड्रोन

अभी कुछ दिन पहले ईरान ने अमेरिका के शक्तिशाली RQ-4 ग्लोबल हॉक सर्विलांस ड्रोन को मार गिराया। इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने ईरान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई को मंज़ूरी दे दी थी और अमेरिकी सेना Cocked & Loaded थी, जो ईरान में तीन साइटों को हिट करने के लिये तैयार थी। अमेरिका का अति उन्नत यह ड्रोन खासतौर पर पानी और तटीय क्षेत्रों में इंटेलीजेंस सर्विलांस के लिये उपयुक्त था। यह ड्रोन किसी भी मौसम में...दिन हो या फिर रात हाई क्वॉलिटी तस्वीरें लेने में सक्षम था अमेरिका ने इसका इस्तेमाल कई महत्त्वपूर्ण ऑपरेशंस में किया था। ईरान ने इस ड्रोन को अपने इलाके में होने का दावा करते हुए मार गिराया था तथा उसके इस दावे का समर्थन रूस ने भी किया था।

पश्चिम एशिया में तनाव की स्थिति

ईरान पर सैन्य कार्रवाई करने से अमेरिका भले पीछे हट गया हो, लेकिन फारस की खाड़ी में जिस तरह अत्याधुनिक परमाणु मिसाइलों से सुसज्जित विशालकाय अमेरिकी नौसेना के बेड़े खड़े हैं, युद्धक विमान रह-रहकर आकाश में मंडरा रहे हैं, यह दुनिया के लिये कोई शुभ संकेत तो नहीं ही है। इस तनाव के चलते युद्ध से ज़्यादा खतरनाक हालात क्षेत्र में बने हुए हैं। ईरान अपना यूरेनियम संवर्द्धन का काम तेज़ करने की बात कह चुका है। राष्ट्र की सुरक्षा के लिये परमाणु हथियार बनाने की दिशा में उसके कदम अब और तेज़ी से बढ़ेंगे। तब कैसे शांति के बारे में सोचा जा सकता है?

ऐसा तब है जब दुनिया में सबसे ज़्यादा तेल टैंकर फारस की खाड़ी से होकर गुज़रते हैं, इस लिहाज़ से भी यह बेहद संवेदनशील इलाका है। युद्ध जैसी किसी भी स्थिति का सबसे बड़ा और पहला संकट अंतर्राष्ट्रीय तेल कारोबार पर आएगा, इसे अमेरिका भी बखूबी समझता है और युद्ध करने से बच रहा है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का एजेंडा कुछ अलग प्रतीत होता है। वह अगले साल राष्ट्रपति चुनाव में फिर मैदान में होंगे और कुछ दिन पहले फ्लोरिडा में अपना प्रचार अभियान शुरू भी कर चुके हैं। इसलिये वह ईरान के मुद्दे को अभी जीवित रखेंगे, ताकि अमेरिका जनता को पहले की तरह ही यह भरोसा दिला सकें कि ईरान जैसे देश से निपटने की ताकत उसमें है।

पश्चिम एशिया की बड़ी ताकत है ईरान

अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद ईरान ने अपना यूरेनियम संवर्द्धन कार्यक्रम तेज़ करने का ऐलान किया है। ईरान ने घोषणा की कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तय सीमा से ज़्यादा बढ़ाएगा। ज्ञातव्य है कि वर्ष 2015 में हुए परमाणु समझौते के मुताबिक ईरान के यूरेनियम संवर्द्धन पर सीमा तय की गई थी और इसके बदले ईरान पर लगे कुछ प्रतिबंधों को हटा लिया था। ईरान को तेल निर्यात करने की इजाज़त दे दी गई थी, जो कि ईरान सरकार की आमदनी का मुख्य ज़रिया है। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमेरिका इस समझौते से बाहर निकल गया और प्रतिबंध फिर से लगा दिये। इससे ईरान की अर्थव्यवस्था प्रभावित होने लगी, यहाँ तक कि उसकी मुद्रा में भी रिकॉर्ड गिरावट दर्ज हुई और विदेशी निवेशक अपने हाथ खींचने लगे।

शुरुआत में इन प्रतिबंधों का असर इसलिये कुछ कम रहा, क्योंकि भारत सहित आठ देशों को इनमें आंशिक छूट दी गई थी। लेकिन इसी वर्ष 22 अप्रैल को राष्ट्रपति ट्रंप ने इस छूट को खत्म करने की घोषणा कर दी। ईरान से तेल निर्यात को ‘शून्य कर देने’ की अमेरिकी नीति ने ईरान सरकार के सामने एक बड़ा आर्थिक संकट पैदा कर दिया है।

खाड़ी तक ही सीमित नहीं है यह संकट

खाड़ी का बढ़ता भू-राजनीतिक संकट वेनेज़ुएला और लीबिया में बढ़ती मुश्किलों के साथ और गहरा गया है। ईरान के कच्चे तेल के निर्यात को ‘शून्य’ करने से ईरान से आने वाला 15 लाख बैरल से अधिक कच्चा तेल बाज़ार में नहीं आ पा रहा, जबकि स्थानीय राजनीतिक अस्थिरता के चलते वेनेज़ुएला के कच्चे तेल का उत्पादन रोज़ाना लगभग पाँच लाख बैरल घट गया है। लीबिया में जनरल हफ्तार की सेना के संघर्ष से वहाँ भी उत्पादन में बाधा आई है। तेल-आपूर्ति में आई इस रुकावट को अमेरिका में शेल-तेल उत्पादन या फिर सऊदी उत्पादन में बढ़ोतरी से दूर करना संभव नहीं है।

भारत पर क्या होगा प्रभाव?

खाड़ी क्षेत्र में बढ़ता तनाव क्षेत्रीय सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक तो है ही, ऊर्जा सुरक्षा को भी जबर्दस्त चोट पहुँचा सकता है। कच्चे तेल की कीमत में तेजी से भारत के बजट और चालू खाता घाटे पर नकारात्मक असर पडे़गा। अमेरिका ने ईरान पर बैंकिंग प्रतिबंध भी लगा दिये हैं। इन प्रतिबंधों के चलते ईरान से तेल का आयात करना लगभग असंभव हो गया है। हालाँकि भारत के समक्ष इराक, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) का विकल्प उपलब्ध है, लेकिन ईरान से प्राप्त होने वाला तेल भारत के लिये सस्ता है, साथ ही समीप होने के कारण परिवहन लागत भी अन्य स्रोतों की अपेक्षा कम पड़ती है। ईरान से तेल सप्लाई बाधित होने का असर भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति पर पड़ना तय है।

सऊदी अरब कह चुका है कि वह ओपेक और रूस के नेतृत्व वाले गैर-ओपेक उत्पादक देशों द्वारा उत्पादन कटौती को लेकर बनी सहमति को जारी रखने का इच्छुक है। इन देशों की अगली बैठक 2 जुलाई को होने वाली है। यह स्पष्ट है कि उत्पादन में कटौती से तेल की कीमत और बढ़ेगी। कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि का मतलब है, भारत पर सालाना एक लाख करोड़ से अधिक रुपए का अतिरिक्त बोझ।

खाड़ी का यह संकट ऐेसे वक्त में गहरा गया है, जब अफगानिस्तान में स्थिति बदतर है और मध्य-पूर्व में शांति-प्रक्रिया ठप है। अफगानिस्तान की स्थिरता भारत की सुरक्षा के लिये काफी मायने रखती है। इसके अलावा, अफगानिस्तान तक पहुँचने के लिये भारत ईरान में चाबहार बंदरगाह विकसित कर रहा है। ऐसे में इस क्षेत्र में अशांति का माहौल भारत के हितों को प्रभावित कर सकता है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

इस बात को ट्रंप भी जानते हैं और दुनिया के सारे ताकतवर देश भी कि परमाणु हथियारों के युग में युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। युद्ध का मतलब है- मानव जाति का विनाश। ऐसे में युद्ध टालने और शांति के उपाय खोजने में ही मानव कल्याण है। अमेरिकी प्रतिबंध ईरान के साथ किये गए समझौते का उल्लंघन तथा एकपक्षीय होने के कारण यूरोपीय संघ, रूस तथा चीन इन प्रतिबंधों को सही नहीं मानते हैं। यह वैश्विक रवैया भारत, रूस और चीन के लिये उपयोगी हो सकता है। साथ ही यह वैश्विक मत इन देशों को प्रोत्साहित कर सकता है कि किस प्रकार इन प्रतिबंधों को निष्प्रभावी किया जा सकता है। इन प्रयासों में यूरोपीय संघ की भी सहायता ली जा सकती है, जो पहले ही अमेरिकी नीतियों का विरोध करने का मन बना चुका है। भारत को इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है कि ऐसे प्रयास मिलकर ही किये जाने चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: खाड़ी देशों में बढ़ रहा तनाव ईरान को तो प्रभावित कर ही रहा है, भारत के आर्थिक-सामरिक हितों पर भी इसकी आँच आ सकती है। विवेचना कीजिये।