इनसाइट/द बिग पिक्चर/देश-देशांतर: भारतीय बैंकों पर संकट क्यों? | 13 Apr 2018

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि

ऊँची ब्याज दर और अनुकूल माहौल न मिल पाने की वज़ह से उद्योगों की कॉरपोरेट ऋण चुकाने संबंधी क्षमता को लेकर पिछले कुछ वर्षों से जताए जाने वाले संदेह अब सच होते दिखाई दे रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में क़र्ज़ चुकाने में असमर्थता जताने वाली कंपनियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है और ऐसी कंपनियों का प्रतिशत पिछले वर्ष के 2.6% से बढ़कर 3.4% हो गया  है।  इसके अलावा देश के अलग-अलग हिस्सों में हालिया कुछ दिनों में अलग-अलग बैंकों से जुड़े घोटाले के कई नए मामले सामने आए हैं। अभी नीरव मोदी और मेहुल चोकसी के पंजाब नेशनल बैंक (PNB) के 11 हज़ार 400 करोड़ रुपए के घोटाले को लोग भूले भी नहीं थे कि एक नया मामला ICICI बैंक को लेकर सामने आया। इससे पहले रोटोमैक पैन के मालिक विक्रम कोठारी का सात सरकारी बैंकों के साथ किया गया घोटाला, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स का घोटाला और राजस्थान के बाड़मेर में पीएनबी की शाखा में प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के नाम पर किया घोटाला भी सामने आया। पूर्व में उद्योगपति विजय माल्या द्वारा बैंकों के हज़ारों करोड़ रुपए का घपला कर भारत से भाग जाने का मामला सामने आया था।

ICICI बैंक मामला क्या है?

  • वीडियोकॉन के मालिक वेणुगोपाल धूत ने वर्ष 2008 से 2011 के बीच चंदा कोचर के पति दीपक कोचर को अपनी एक कंपनी महज़ कुछ लाख रुपए में बेच दी। बाद में 2012 में ICICI बैंक ने वीडियोकॉन समूह को 3,250 करोड़ रुपए का कर्ज़ दिया और 2017 में इसमें से लगभग 2800 करोड़ रुपए को एनपीए घोषित कर दिया।

हितों के टकराव का है मामला 

बैंकों द्वारा नियमों को ताक पर रखकर निजी कंपनियों को दिये जाने वाले कर्जों पर उठ रहे सवालों के बीच आईसीआईसीआई बैंक की मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ चंदा कोचर के हितों के टकराव से जुड़ा नया मामला सामने आया है। आईसीआईसीआई बैंक ने वीडियोकॉन कंपनी को ऋण दिया, जिसके प्रमुख वेणुगोपाल धूत के चंदा कोचर के पति दीपक कोचर से कारोबारी संबंध हैं। 2008 में धूत ने दीपक कोचर और चंदा के दो अन्य रिश्तेदारों के साथ एक कंपनी (एनयूपावर रिन्यूएबल्स प्राइवेट लिमिटेड) खोली, उसके बाद इस कंपनी को अपनी एक कंपनी द्वारा 64 करोड़ रुपए का लोन दिया। इसके बाद उस कंपनी (जिसके द्वारा लोन दिया गया था) का स्वामित्व केवल 9 लाख रुपयों में एक ट्रस्ट को सौंप दिया, जिसके प्रमुख दीपक कोचर हैं। इससे ठीक 6 महीने पहले वीडियोकॉन को आईसीआईसीआई बैंक द्वारा 3,250 करोड़ रुपए का कर्ज़ दिया गया था। यहीं पर हितों के टकराव का सवाल खड़ा होता है क्योंकि वीडियोकॉन द्वारा इस लोन का 86% हिस्सा चुकाया नहीं गया और साल 2017 में वीडियोकॉन के खाते को एनपीए घोषित कर दिया गया।

कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर सवाल

ग्लोबल क्रेडिट रेटिंग एजेंसी फिच के अनुसार वीडियोकॉन समूह को आईसीआईसीआई बैंक द्वारा दिये गए कर्ज़ में हितों के टकराव से बैंक के कॉर्पोरेट गवर्नेंस मानकों पर भी सवाल उठे हैं। इसकी वजह से बैंक की साख प्रभावित होती है और नए खतरे पैदा होते हैं। परिसंपत्तियों के लिहाज़ से भारत के दूसरे सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई को फिच ने बीबीबी रेटिंग दी है, जो इन्वेस्टमेंट ग्रेड की सबसे कम रेटिंग है। फिच ने भारत को भी बीबीबी रेटिंग दी है। फिच के अनुसार, दिसंबर 2017 में बैंक का कोर कैपिटलाइज़ेशन 14.2% था जो बैंकिंग सेक्टर में सबसे अधिक था। 

सरकारी बैंकों का निजीकरण समस्या का समाधान नहीं

  • सरकारी बैंकों में कामकाज करने के तरीके में खामियाँ सामने आने के बाद कुछ लोगों का यह मत सामने आया है कि सरकारी बैंकों का निजीकरण कर दिया जाए यानी बैंकों को निजी हाथों में सौंप देना इस समस्या से निपटने का सही तरीका है। 
  • यह सही है कि हाल में कई बैंक घोटाले सामने आए हैं और बैंकों के कुल कॉर्पोरेट कर्ज़ में से 15-20% एनपीए हो गया है तथा इससे बैंकों की लाभप्रदता कम हो गई है। ये समस्याएँ तो हैं, लेकिन इसका निदान निजीकरण तो कतई  नहीं है। 
  • सरकारी बैंकों की कार्यप्रणाली सुधारने की ज़रूरत है और उनमें मौजूद कई तरह की समस्याओं को दूर करने की ज़रूरत है ताकि वे बेहतर काम कर सकें। सरकारी बैंकों का निजीकरण कर देना कुछ कंपनियों या कुछ बाहरी कारणों से हुए नुकसान से थक कर समस्या को और भी बड़ा कर देना है और ऐसा करने पर इसके दायरे में आम लोग भी आ जाएंगे। 
  • ऐसा नहीं है कि निजी बैंकों में एनपीए नहीं है, लेकिन सरकारी बैंकों में एनपीए का कारण उनकी उनका अपना बिज़नेस मॉडल है। ऊपर से सरकारी नीतियां ऐसी हैं जिनसे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर अवसंरचना निर्माण क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों को कर्ज़ देने के लिये राजनीतिक दबाव भी रहता है। भारत में मौजूद 2-3 बैंकों को छोड़कर अधिकतर बैंक रिटेल लोन ही देते हैं और यदि सरकारी बैंक भी रिटेल लोन पर ही ध्यान देते तो उनका एनपीए भी इतना अधिक नहीं होता।

(टीम दृष्टि इनपुट)

बेहतर पारदर्शी जोखिम प्रबंधन की ज़रूरत

  • बैंकिंग व्यवसाय में जोखिम से बचना असंभव है तथा इस कारण किसी सक्षम बैंक के लिये बेहतर जोखिम प्रबंधन फ्रेमवर्क बेहद ज़रूरी है। 
  • जोखिम प्रबंधन का लक्ष्य है प्रभावी रूप से जोखिम-प्रतिफल ट्रेड-ऑफ में संतुलन बनाए रखना अर्थात् 'दिये गए जोखिम के लिये अधिकतम प्रतिफल' तथा 'दिये गए प्रतिफल के लिये न्‍यूनतम जोखिम।'  
  • किसी बैंक की जोखिम वहन करने की क्षमता के निर्धारण की ज़िम्मेदारी उसके बोर्ड तथा शीर्ष प्रबंधन के कंधों पर होती है। 
  • यदि बैंक के सम्मुख आने वाले प्रत्येक प्रकार के जोखिम के लिये जोखिम सीमा तथा बैंक की समग्र जोखिम वहन करने की क्षमता निर्धारित नहीं की गई है तो जोखिम का मापन या निगरानी कर पाना संभव ही नहीं है। 
  • किसी भी बैंक की सफलता के लिये जोखिम प्रबंधन बहुत ही महत्वपूर्ण है, अत: बैंकों के शीर्ष प्रबंधन को बाज़ार के बदलते समीकरणों तथा विनियमन दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखते हुए एक प्रभावी जोखिम प्रबंधन फ्रेमवर्क लागू करने का प्रयास करना चाहिये।

क्या होगा विपरीत प्रभाव?

अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये सभी सरकारों द्वारा कॉरपोरेट जगत को विशेष सुविधा दी जाती है और कॉरपोरेट जगत से उम्मीद की जाती है कि वे आर्थिक सुधार की बुनियाद खड़ी करेंगे। लेकिन देश के अधिकांश बैंक आज स्वयं कर्ज़ में डूब गए हैं या डूबने के कगार पर हैं। विकास के लिये निजी क्षेत्र में निवेश आवश्यक है, लेकिन बढ़ते एनपीए से उद्योग जगत के लिये पूंजी जुटाना मुश्किल हो गया है, क्योंकि बैंक अब उद्योग जगत को कर्ज़ देने में अत्यधिक सावधानी बरतने लगे हैं। जबकि अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने और विकास दर में इज़ाफा करने के लिये आवश्यक है कि बैंक कंपनियों को कर्ज़ देने में कोताही न बरतें क्योंकि उद्योग जगत को कर्ज़ मिलने से ही विनिर्माण क्षेत्र में तेज़ी, रोज़गार में बढ़ोतरी, विविध उत्पादों की बिक्री में तेज़ी आदि संभव हो सकता है।

कल तक ठोस धरातल पर खड़े अधिकतर सार्वजनिक बैंकों की हालत नाजुक हो गई है। जहाँ एनपीए का स्तर बेकाबू होता जा रहा है, वहीं धोखाधड़ी और फर्जी ऋण वितरण के चलते बैंकों को करोड़ों रुपयों का नुकसान हो रहा है। सरकारी बैंकों की तुलना में निजी बैंकों को अधिक जागरूक और सक्रिय माना जाता है, लेकिन पूंजी बाज़ार में निजी बैंकों की लगभग 30%  भागीदारी होने के बावजूद बैंकों में धोखाधड़ी से होने वाले नुकसान में उनकी भागीदारी अधिक है। देश का आर्थिक विकास इस कदर प्रभावित हो रहा है कि इन लाखों करोड़ रुपए को देश में आधारभूत सुविधाओं के विस्तार में खर्च किया जा सकता है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

रिज़र्व बैंक ने उठाए कदम 

देश के बैंकों में लगातार हो रहे घोटालों के बाद अब भारतीय रिज़र्व बैंक ने कई कड़े कदम उठाए हैं। वर्तमान में, 21 सरकारी बैंकों में से 11 बैंकों पर प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (PCA) फ्रेमवर्क के तहत बैंकों के लोन देने पर रिज़र्व बैंक नज़र बनाए हुए है। वह इन दिशा-निर्देशों को इसलिये लागू करता है ताकि बैंक बंद न हो जाएँ और वे इससे बचने के लिये सही समय पर ज़रूरी कदम उठा सकें।

  • भारतीय रिज़र्व बैंक को अधिकार दिया गया है कि वह एकल बैंकों की गैर लाभकारी परिसंपत्तियों की समस्‍या के समाधान के लिये प्रत्‍यक्ष रूप से हस्‍तक्षेप कर सकता है, यह भविष्‍य के लिये एक बेहद सकारात्‍मक कदम है। अभी तक ऐसा होता आ रहा था कि इस प्रकार के बैंकों के प्रबंधन डिफॉल्‍ट करने वाली कंपनियों के समूहों पर कोई निर्णयात्‍मक ठोस कार्रवाई करने से बचते थे।
  • बैंक प्रबंधनों के खिलाफ भ्रष्‍टाचार के भविष्‍य के आरोपों का डर उनके खिलाफ कदम न उठाने की प्रमुख वजहों में था क्योंकि बैड लोन के किसी भी निपटान में किसी-न-किसी पर कार्रवाई होनी लाजिमी थी। 
  • अब भारतीय रिज़र्व बैंक के डिफॉल्‍ट करने वाली कंपनियों के खिलाफ निर्णयात्‍मक भूमिका में आ जाने से बैंकों के प्रबंधन ऐसे बड़े कॉरपोरेट कर्ज़दारों के खिलाफ कदम आसानी से उठा सकेंगे।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक से सरकार को अपनी इक्विटी अंतरित करने के लिये राष्ट्रीय आवास बैंक अधिनियम में संशोधन किया गया है। भारतीय डाकघर अधिनियम, भविष्य निधि अधिनियम तथा राष्ट्रीय बचत प्रमाण-पत्र अधिनियम एकीकृत किये जा रहे हैं तथा कुछ अतिरिक्त लोकोपयोगी उपाय शुरू किये जा रहे हैं। 
  • भारतीय रिज़र्व बैंक को अधिक लिक्विडिटी के प्रबंधन का माध्यम बनाने, भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम को गैर-रेहनीय जमा सुविधा के रूप में संस्थाकित करने हेतु संशोधित किया जा रहा है। 
  • भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड अधिनियम 1992, प्रतिभूति संविदा (विनियमन) अधिनियम 1956 तथा डिपोजिट्रीज़ अधिनियम, 1996 को संशोधित किया गया है ताकि विवेचना प्रक्रिया सुचारू बन सके और कुछ उल्लंघनों की स्थिति में दण्डात्मक प्रावधान हो सकें।      

क्या हो सकता है समाधान?

सबसे पहले यह समझना होगा कि बैंकिंग घोटालों का संबंध सिर्फ कर्जे से नहीं है, बल्कि इनका संबंध संचालनगत जोखिम (Operational Risk) से भी हो सकता है, जिसमें कर्मचारियों या बाहरी लोगों द्वारा व्यवस्थाओं या कार्य-प्रणालियों को नष्ट किया जाना शामिल होता है। जैसे-कोई व्यक्ति बैंक की आईटी प्रणाली को हैक कर ले और ग्राहक के खाते से फंड हस्तांतरित कर दे, तो बैंकों को उस नुकसान की भरपाई करनी पड़ेगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि कितनी भी विशिष्‍ट कार्रवाइयाँ तब तक सफल नहीं हो सकतीं, जब तक पूरी व्‍यवस्‍था में गंभीरता का एक समग्र वातावरण सृजित नहीं होता और यह आभास नहीं होता कि सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक इसके प्रति पूरी तरह संजीदा हैं।

  • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एनपीए के मामले को सुलझाने के लिये सरकार निरंतर प्रयास कर रही है। वस्तुतः व्यवस्था के अंतर्गत दो तरह के कर्ज़दार होते हैं--पहले वे जो घरेलू और वैश्विक मंदी या अन्‍य कारणों से बकाए का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं और दूसरे वे जो बैंकों के बिना सोचे-समझे दिये गए कर्ज़ का जानबूझकर भुगतान नहीं कर रहे हैं।
  • सरकार ने इन दोनों श्रेणियों के बकायेदारों से निपटने के लिये कई उपाय किये हैं।  आर्थिक मंदी के कारण जिन कर्ज़ों का भुगतान नहीं हो पा रहा है उनके लिये सरकार ने कई योजनाएँ बनाई हैं। 
  • सार्वजनिक बैंकों के अध्‍यक्ष और प्रबंध निदेशकों सहित शीर्ष प्रबंधन की नियुक्ति में पारदर्शिता और पेशेवरपन लाया गया है। 
  • बिना किसी तरह के हस्‍तक्षेप के व्‍यावसायिक निर्णय लेने के लिये सरकार ने बैंक प्रबंधन पेशेवरों को पूरी स्‍वायत्‍तता देने के कई उपाय किये गए हैं। 
  • वसूली कार्यवाही को और अधिक कारगर तथा तीव्र बनाने के लिये सरफेसी तथा ऋण वसूली न्यायाधिकरण अधिनियम में संशोधन किया गया है। 
  • बकाए ऋण की वसूली के लिये सरकार ने सुझाव दिया है कि बैंकों को ज़मानत देने वालों के खिलाफ विभिन्न कानूनों के तहत कार्रवाई करनी चाहिये।
  • पारदर्शिता लाने के लिये बैंकों से उन कर्ज़दारों की सूची जारी करने के लिये कहा गया है, जिनके कर्ज़ माफ किये गए हैं। 
  • जानबूझकर कर्ज़ वापसी न करने वाले कर्ज़दारों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जानी चाहिये ताकि भविष्‍य में इस तरह की घटनाएँ न हों। 
  • किसानों की मदद के लिये उनके कर्ज़ों को पुनर्गठित किया गया है और कुछ राज्यों में किसानों के कर्ज़ माफ़ भी किये गए हैं।
  • सरकार ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि कुछ उद्योगपतियों द्वारा जानबूझकर कर्ज़ न चुकाने का खामियाजा अन्य उद्योगपतियों को न भुगतना पड़े।
  • इसके अतिरिक्त दिवालियापन संहिता, 2016 लाई गई है। इसके लागू होने से ऋणों की वसूली में अनावश्यक देरी और उससे होने वाले नुकसानों से बचा जा सकेगा।
  • ऋण न चुका पाने की स्थिति में कंपनी को अवसर दिया जाएगा कि वह एक निश्चित समय में अपने ऋण चुका दे, अन्यथा स्वयं को दिवालिया घोषित करे। 

टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जैफरसन ने किसी ज़माने में कहा था, “मेरा मानना है कि बैंकिंग संस्थाएँ हमारी नागरिक स्वतंत्रताओं के लिये स्थायी फौज़ से भी ज़्यादा खतरनाक हैं। यदि अमेरिकी जनता ने बैंकों को अपनी मुद्रा पर नियंत्रण दिया तो कभी मुद्रास्फीति तो कभी मुद्रा-संकुचन द्वारा बैंक और उनके बनाए कॉरपोरेट जनता को उसकी सारी संपत्ति से वंचित कर देंगे।” यह कथन आज बेशक अतिशयोक्ति प्रतीत होता है, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि लोग बैंकों में अपनी बचत इसलिये रखते हैं कि ज़रूरत पड़ने पर उनको पूरा पैसा सुरक्षित मिल जाएगा। और इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी अर्थव्‍यवस्‍था में ऋण का प्रवाह शरीर में रक्‍त प्रवाह जितना ही महत्त्वपूर्ण है। जैसे रक्‍त प्रवाह बंद हो जाने पर शरीर की प्रणाली ध्‍वस्‍त हो जाती है, ठीक उसी प्रकार बढ़ती गैर-लाभकारी परिसंपत्तियाँ भी ऐसा ही कर सकती हैं और ऋण के प्रवाह को अवरुद्ध कर सकती हैं। अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत के लिये बैंकों का मज़बूत होना बहुत ज़रूरी होता है और भारत के बैंकों का डूबता कर्ज़ तथा घोटाले अर्थव्यवस्था के लिये अच्छा संकेत नहीं है।