डिजिटल मान्यता संस्कृति की नैतिक जटिलताएँ | 30 May 2025

"साइबरस्पेस एक सहमतिपूर्ण मतिभ्रम है जिसे प्रत्येक देश में अरबों वैध ऑपरेटरों द्वारा प्रतिदिन अनुभव किया जाता है" - विलियम गिब्सन का यह उद्धरण डिजिटल क्षेत्र के सम्मोहक आकर्षण को प्रदर्शित करता है। वर्तमान के हाइपर-नेटवर्क वाले विश्व में, सोशल मीडिया ने प्रामाणिकता और भ्रम के बीच की सीमाओं को ओझल कर दिया है। जो चीज संपर्क के साधन के रूप में शुरू हुई थी, वह अब मनोवैज्ञानिक कमज़ोरियों को बढ़ावा दे रही है, तथा सार्वजनिक मान्यता के माध्यम से आत्म-मूल्य को आकार दे रही है। आकर्षक सेल्फी और वायरल पोस्ट के पीछे प्रायः मौन संघर्ष छिपे होते हैं, जहाँ प्रदर्शनीय जीवनशैली अंतर्मन की व्यथा पर पर्दा डाल देती है। सोशल मीडिया मान्यता पर नैतिक बहस केवल स्क्रीन टाइम तक सीमित नहीं है- यह हमारी पहचान, आत्म-अधिकार और उस कीमत से जुड़ी होती है जो हम उन अंतहीन तालियों के लिये चुकाते हैं जिनकी गूँज कभी थमती नहीं, क्योंकि यह विश्व कभी लाॅग ऑफ नहीं होता।

सोशल मीडिया मान्यता संस्कृति से जुड़े नैतिक विमर्श क्या हैं?

  • कमज़ोर आत्म-मूल्य: सोशल मीडिया मान्यता प्रायः आत्म-मूल्य को आभासी लोकप्रियता और अनुमोदन से मापती है।
    • यह अंतर्निहित आत्म-सम्मान को कमज़ोर कर देता है और उसकी जगह अस्थिर ऑनलाइन लोकप्रियता पर निर्भरता बना देता है।
  • युवा और मानसिक स्वास्थ्य: आत्मसम्मान के लिये लाइक और कमेंट पर निर्भरता के कारण किशोरों में दुश्चिंता और अवसाद की समस्या बढ़ जाती है।
    • मीशा अग्रवाल की आत्महत्या (सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स की संख्या में कमी के कारण) ने प्रभावशाली व्यक्ति पर छद्म पूर्णता और सार्वजनिक मान्यता के अदृश्य बोझ को दुखद रूप से उज़ागर किया।
  • डोपामाइन व्यसन चक्र: लाइक से डोपामाइन-चालित आनंद चक्र का निर्माण होता है, जो व्यक्ति को व्यसनात्मक जुड़ाव की ओर उन्मुख करता है।
    • इस प्रकार की न्यूरोकेमिकल निर्भरता जुआ या मादक द्रव्यों के सेवन पर आधारित व्यसनों में देखी जाने वाली विवशताओं को प्रतिबिंबित करती है।
  • एल्गोरिदमिक प्रकलन: सोशल प्लेटफॉर्म उपयोगकर्त्ता की असुरक्षा का फायदा एल्गोरिदम के माध्यम से उठाते हैं, जो विवादास्पद और क्यूरेटेड सामग्री को प्राथमिकता देते हैं।
    • इससे विकृत वास्तविकताओं को बल मिलता है, तथा उपयोगकर्त्ताओं पर मान्यता के लिये सतही प्रवृत्तियों के अनुरूप चलने का दबाव पड़ता है।
  • अनैतिक तुलना: ऑनलाइन व्यक्तित्व को प्रायः अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया जाता है, जिससे उपयोगकर्त्ता अपने वास्तविक जीवन की तुलना चुनिंदा पलों से करने लगते हैं।
    • यह "तुलना का दुष्चक्र" हीन भावना, ईर्ष्या और पहचान से जुड़ी दुविधाओं को जन्म देता है, विशेष रूप से उन उपयोगकर्त्ताओं में जो पहले से ही संवेदनशील स्थिति में होते हैं।
  • सतहीपन का बढ़ता प्रभाव: जब मान्यता मिथ्यापूर्ण कथानकों और कृत्रिम जीवनशैली को बढ़ावा देती है, तो नैतिक सत्यता संकट में पड़ जाती है।
    • उन्होंने वैकल्पिक चिकित्सा और पोषण का उपयोग करके मस्तिष्क कैंसर पर विजय पाने का मिथ्यापूर्ण दावा करके अपने पाठकों को गुमराह किया।
    • बेले गिब्सन (ऑस्ट्रेलियाई प्रभावशाली व्यक्ति) प्रकरण, जिसमें उसने प्रसिद्धि पाने के लिये कैंसर का नाटक किया था, डिजिटल प्रशंसा पाने के परिणामों को दर्शाता है।
  • पहचान का वस्तुकरण: आत्म-मूल्य एक विपणन योग्य परिसंपत्ति बन जाता है, जहाँ लोग अपनी पहचान इस तरह तैयार करते हैं कि वे अधिक ध्यान और ब्रांड सहयोग हासिल कर सकें।
    • विशेष रूप से प्रभावशाली संस्कृति में इससे प्रामाणिकता और प्रदर्शन के बीच की नैतिक रेखा ओझल हो जाती है।
  • सफलता के त्वरित मार्ग: प्रशंसा और मान्यता पर आधारित व्यवहार त्वरित सफलता के रास्ते को बढ़ावा देता है, जिससे कठिन परिश्रम, धैर्य और नैतिकता के मूल्य कम हो जाते हैं।
    • इस तरह का व्यवहार त्वरित संतुष्टि और सक्रियता के पक्ष में प्रयास के नैतिक महत्त्व को कमज़ोर कर देता है।
  • संवेदनशीलता का शोषण: सोशल मीडिया के प्रभावशाली लोग प्रायः झूठी उम्मीद या हानिकारक सलाह देकर भावनात्मक रूप से संवेदनशील व्यक्तियों का शोषण करते हैं।
  • शून्यात्मक समुदायिक संबंध: डिजिटल मान्यता से संबंध का आभास तो होता है, लेकिन प्रायः इसमें सहानुभूति और नैतिक जुड़ाव का अभाव होता है।
    • एस्सेना ओ'नील (ऑस्ट्रेलियाई प्रभावशाली व्यक्ति) ने बताया कि किस प्रकार इस तरह के "समर्थन" से असुरक्षा, एकाकीपन और आत्म-संदेह की भावना छिप जाती है।
  • डिजिटल मान्यता के माध्यम से दुष्प्रचार: राज्य की नीतियों को वैध बनाने के लिये सोशल मीडिया मान्यता का उपयोग करना गलत सूचना के बारे में गंभीर नैतिक चिंताओं को जन्म देता है।
    • यह बताया गया है कि पाकिस्तान ने राज्य प्रायोजित आख्यानों को आगे बढ़ाने और वैश्विक धारणा को नया आकार देने के लिये भारतीय प्रभावशाली लोगों (जैसे ज्योति मल्होत्रा) एवं पश्चिमी प्रभावशाली लोगों को शामिल किया है।

दार्शनिक दृष्टिकोण हमें सोशल मीडिया मान्यता संस्कृति को समझने में कैसे मदद करते हैं?

  • उपयोगितावाद और हानि: उपयोगितावादी दृष्टिकोण से, मान्यता तभी नैतिक है जब यह कल्याण को बढ़ाता है और हानि को कम करता है।
    • लेकिन बढ़ती दुश्चिंता, भ्रम और आत्महत्या के मामले संकेत देते हैं कि इसका शुद्ध प्रभाव प्रायः नैतिक रूप से हानिकारक होता है।
  • काण्टीय नीतिशास्त्र और प्रामाणिकता: काण्टीय कर्तव्यशास्त्र (Deontology) में छल साधन के माध्यम से बाह्य स्वीकृति के स्थान पर सत्यनिष्ठा और स्वायत्तता पर बल दिया गया है।
    • लाइक पाने के लिये छद्म व्यक्तित्व धारण करना स्वयं और दूसरों के प्रति नैतिक कर्तव्य का उल्लंघन है तथा इससे स्वीकृति नीतिपरक रूप से दोषपूर्ण हो जाती है।
  • अबद्धता पर अस्तित्ववादी दृष्टिकोण: अस्तित्ववाद में व्यक्तियों से सामाजिक अपेक्षाओं या प्रशंसा से अबद्ध/स्वतंत्र होकर प्रयोजन को परिभाषित किये जाने का आह्वान है।
    • मान्यता प्राप्त करने की चाहत वास्तविक स्वतंत्रता को कमज़ोर करती है, तथा व्यक्तियों को जनमत के बंधन में ला देती है।
  • स्वतंत्रता पर जॉन स्टुअर्ट मिल: मिल का हानि सिद्धांत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करता है जब तक कि इससे दूसरों या समाज को हानि न पहुँचे।
    • मान्यता-आधारित गलत सूचना (जैसे स्वास्थ्य संबंधी धोखाधड़ी) अप्रत्यक्ष क्षति पहुँचाकर नैतिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है।
  • कन्फ्यूशियस नैतिकता और संबंध: कन्फ्यूशियस मूल्य सतही मान्यता की तुलना में वास्तविक संबंधों पर ज़ोर देते हैं।
    • डिजिटल मान्यता वास्तविक संबंध को नष्ट कर देती है, तथा उसके स्थान पर नैतिक तत्त्व से रहित प्रदर्शनात्मक अंतःक्रियाएँ स्थापित कर देती है।
  • आसक्ति पर बौद्ध दृष्टिकोण: बौद्ध धर्म स्पृहा और आसक्ति को दुख और नैतिक असंतुलन का मूल मानता है।
    • मान्यता की लालसा अस्थायी डिजिटल प्रशंसा के प्रति लगाव का प्रतीक है, जो आंतरिक अशांति का कारण बनती है।
  • नीत्शे की शक्ति की इच्छा: नीत्शे ने समूह की स्वीकृति की अपेक्षा आत्म-नियंत्रण और व्यक्तिगत उत्कृष्टता को अधिक महत्त्व दिया।
    • मान्यता की आकांक्षा रचनात्मक व्यक्तित्व को कम करती है और सामाजिक प्रशंसा के तहत अनुरूपता को जन्म देती है।
  • नारीवादी नैतिकता और भावनात्मक ईमानदारी: नारीवादी देखभाल नैतिकता प्रामाणिकता, सहानुभूति और पारस्परिक सम्मान पर ज़ोर देती है।
    • मान्यता की संस्कृति, विशेष रूप से महिलाओं और युवाओं पर, पूर्णता का आरोपण कर भावनात्मक ईमानदारी को कम करती है।

सोशल मीडिया और उसके प्रभावों को कौन से कानूनी प्रावधान नियंत्रित करते हैं?

  • निजता का अधिकार: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 डिजिटल पहचान संरक्षण सहित निजता के अधिकार की गारंटी देता है।
    • मान्यता की आकांक्षा प्रायः व्यक्तिगत जानकारी को साझा करने को बाध्य करती है, जिससे बिना सूचित सहमति के व्यक्तिगत डेटा का दुरुपयोग हो सकता है।
  • IT नियम, 2021: सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम ऑनलाइन प्लेटफार्मों को विनियमित करते हैं।
    • इनमें विषय-वस्तु पर नियंत्रण और शिकायत निवारण की आवश्यकता होती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर स्पष्ट नियंत्रण का अभाव होता है।
  • ASCI दिशानिर्देश: भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (ASCI) ने अनिवार्य किया है कि प्रभावशाली विज्ञापनों में सशुल्क साझेदारी का उल्लेख किया जाना चाहिये।
    • मान्यता की अभिलाषा प्रायः इस पारदर्शिता का उल्लंघन करती है, जैसा कि अघोषित समर्थन के मामलों में देखा गया है।
  • SEBI और फिनफ्लुएंसर विनियमन: SEBI ने उन फिनफ्लुएंसरों पर रोक लगाई है जो सामाजिक मान्यता का दिखावा कर बिना पंजीकरण के निवेश से जुड़ी सलाह देते हैं।
    • यह उन मामलों से उद्गमित हुआ है जहाँ फिनफ्लुएंसरों ने वित्तीय विशेषज्ञता के बजाय लोकप्रियता का उपयोग करके जनमत के विश्वास को प्रभावित किया।
  • CCPA और उपभोक्ता संरक्षण: केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण भ्रामक विज्ञापन और भ्रामक डिजिटल प्रचारों की निगरानी करता है।
    • यदि मान्यता-संचालित प्रभावशाली व्यक्ति गलत सूचना का प्रचार करते हैं या उपभोक्ताओं को भ्रमित करते हैं तो वे इसके अंतर्गत उत्तरदायी होंगे।
  • IIGC और स्व-नियमन: इंडिया इन्फ्लुएंसर गाइडलाइंस काउंसिल रेटिंग और व्यवहार मानकों के माध्यम से नैतिक डिजिटल आचरण को बढ़ावा देती है।
    • हालाँकि, ये गैर-बाध्यकारी हैं और स्वैच्छिक अनुपालन पर निर्भर हैं, जो नैतिक मानदंडों के प्रवर्तन को कमज़ोर करता है।
  • बच्चे और डिजिटल सुरक्षा: IT अधिनियम और पॉक्सो फ्रेमवर्क बच्चों को हानिकारक डिजिटल सामग्री से सीमित सुरक्षा प्रदान करता है।
    • मान्यता की मांग युवा उपयोगकर्त्ताओं को असमान रूप से प्रभावित करती है, लेकिन भारत में ऑनलाइन बच्चों की भलाई के लिये मज़बूत सुरक्षा उपायों का अभाव है।
  • वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ: ब्रिटेन जैसे देश "ऑनलाइन सुरक्षा विधेयक" लागू करते हैं, जो संवेदनशील उपयोगकर्त्ताओं के प्रति प्लेटफार्मों की देखभाल के कर्त्तव्य को अनिवार्य बनाता है।
    • भारत में नियामकीय विलंबता का अर्थ यह है कि मान्यता चक्रों से उत्पन्न मनोवैज्ञानिक जोखिमों को कानून में अपर्याप्त रूप से संबोधित किया गया है।

निष्कर्ष

डिजिटल प्रशंसा से प्रेरित विश्व में, नैतिक आत्मनिरीक्षण आवश्यक हो जाता है। सोशल मीडिया मान्यता से हमारे आत्म-मूल्य या नैतिक दिशा-निर्देश को पुनर्परिभाषित नहीं किया जाना चाहिये। प्रामाणिकता को अपनाकर, सजग सहभागिता को बढ़ावा देकर, तथा विनियामक सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ बनाकर, समाज डिजिटल स्थानों को मनगढ़ंत पुष्टिकरण के दर्पण के बजाय सशक्तिकरण के उपकरण के रूप में पुनः प्राप्त कर सकता है।