आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 | 01 Mar 2021

  अध्याय 1  

सदी में विरले ही आने वाले संकट में जीवन और आजीविका को बचाना 

(Saving Lives and Livelihoods amidst a Once-in-a-Century Crisis)

कोविड -19 महामारी ने वर्ष 2020 में सदी में विरले ही आने वाले वैश्विक संकट को जन्म दिया है जिसने एक अद्वितीय मंदी की स्थिति उत्पन्न की है जहाँ 90 प्रतिशत देशों की जीडीपी में संकुचन का अनुमान है। महामारी की शुरुआत में अभूतपूर्व अनिश्चितता का सामना करते हुए भारत ने दीर्घकालिक लाभ के लिये अल्पकालिक नुकसान का रास्ता अपनाया तथा जीवन और आजीविका को बचाने पर ध्यान केंद्रित किया है। 

प्रमुख बिन्दु :

  • इस वायरस ने नीति-निर्माण के लिये विश्व स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर एक अभूतपूर्व चुनौती पेश की है क्योंकि इसने अनिश्चित, तरल, जटिल और गतिशील स्थितियों से निपटने के लिये नीति-निर्माताओं  की सूक्ष्मता का परीक्षण किया, जिसमें दूरगामी सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ समाहित हैं।
  •  इसने चिकित्सा विज्ञान की सीमा का भी परीक्षण किया है क्योंकि इसने एक वर्ष के भीतर एक प्रभावी टीका विकसित करने की चुनौती पेश की। 
  • महामारी की रोकथाम के लिये एकमात्र रणनीति जो व्यवहार्य थी उसमें सक्रिय निगरानी, प्रारंभिक पहचान, अलगाव और मामलों का  प्रबंधन, संपर्क अनुरेखण और सामाजिक दूरी  एवं सुरक्षा सावधानियों का अभ्यास करके आगे के प्रसार की रोकथाम आदि शामिल हैं ।
  • इनका उद्देश्य संक्रमण के संचरण को धीमा करना या 'महामारी वक्र को फ्लैट(मंद) करना'  और  प्रभावी उपचार एवं  टीके के  विकास तथा चिकित्सीय सेवाओं की मांग में तीव्र वृद्धि से निपटने के लिये स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को बहाल करना था।
  • वर्ष 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में विश्व बैंक के अनुसार 4.3% और आईएमएफ के अनुसार 3.5% के संकुचन का अनुमान है।
  •  यह महामारी 150 वर्षों  में घटित एक घटना है जो अभूतपूर्व दुष्प्रभावों के साथ हुई है जिसने वर्ष 2020 में  विश्व के सभी क्षेत्रों में नकारात्मक संवृद्धि का अनुभव कराया है | इसे 'ग्रेट लॉकडाउन' कहा जाता है। दुनिया ने जिस दूसरी महामारी का सामना किया, वह लगभग एक सदी पहले स्पेनिश फ्लू थी।

स्पेनिश फ्लू से सबक :

  • समय के साथ महामारी को फैलने से रोकने  के लिये महामारी वक्र को ‘फ्लैट’ करने की आवश्यकता है और अधिक लोगों को उचित स्वास्थ्य उपचार प्राप्त करने में सक्षम बनाना है , जिससे अंततः मृत्यु दर कम हो सके।
  • महामारी के संचरण को प्रभावित करने वाली नेटवर्क संरचनाओं को देखते हुए उच्च जनसंख्या महामारी के तेजी से प्रसार का कारण बन सकती है।
  • सघन क्षेत्र वायरस के तेजी से फैलने के लिये अधिक संवेदनशील होते हैं और यह प्रभाव विशेष रूप से महामारी की शुरुआत में मज़बूत होता है।
  • आरंभिक लॉकडाउन वक्र को चरम पर पहुँचने में बाधा उत्पन्न करता है, जिससे इसकी तीव्रता कम होती है और इस तरह स्वास्थ्य तथा परीक्षण बुनियादी ढाँचे हेतु मूल्यवान समय प्रदान करके यह कुल मृत्यु दर को कम करता है।
  • महामारी में पहले से लॉकडाउन को लागू करना और अधिक तीव्रता से इसका उपयोग कर अल्पावधि कष्ट के साथ यह बहुत तेज आर्थिक सुधार का मार्ग प्रशस्त करता है तथा मृत्यु दर को भी कम करता है।
  • जब भारी अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है तो पॉलिसी को किसी भी प्रकार के नुकसान को कम करने तथा अत्यंत गंभीर स्थिति में सुधार के उद्देश्य से डिजाइन किया जाना चाहिये।

वक्र को फ्लैट (मंद) करना 

  • महामारी विज्ञान पर अनुसंधान प्रकाश डालता है कि महामारी के प्रसार से निपटने के लिये एक महत्त्वपूर्ण रणनीति को "वक्र को फ्लैट करना " कहा जाता है।
  • वक्र एक अनुमानित जनसंख्या में रोग ग्रस्त होने वाले लोगों की अनुमानित संख्या को संदर्भित करता है।
  • वक्र की आकृति समुदाय में संक्रमण की तीव्रता  के अनुसार बदलती है।
  • बीमारी का एक "शिखर" है, जहाँ संक्रमित व्यक्तियों की संख्या अधिकतम स्तर तक पहुँच जाती है, जिसके बाद इसमें गिरावट की शुरुआत होती है।
  • नीति निर्माताओं द्वारा इस शिखर तक पहुँचने में लगने वाले समय का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है  क्योंकि यह महामारी के प्रबंधन के लिये उपलब्ध समय को निर्धारित करता है।
  • ओवरलोडेड हेल्थकेयर सिस्टम जिन्हें अपनी क्षमता से परे संचालित करने के लिये मज़बूर किया जाता है, वे मृत्यु दर को उच्च बनाते  हैं।
  • अल्पावधि में किसी भी देश की स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता (अस्पताल के बेड की संख्या, कुशल स्वास्थ्य पेशेवरों की संख्या, वेंटिलेटर / अन्य लोगों के बीच एकीकृत देखभाल इकाइयाँ) सीमित होती है।
    • इसमें दिए गए समय में सीमित संख्या में रोगियों का उचित तरीके से इलाज किया जा सकता है |   
    • यदि महामारी का प्रसार स्वास्थ्य प्रणाली की मौजूदा क्षमता से अधिक है, तो इससे मृत्यु दर उच्च हो सकती है।
  • समय के साथ 'वक्र का फ्लैट होना' महामारी रोकता  है, जिससे अधिक लोग उचित स्वास्थ्य उपचार प्राप्त करने में सक्षम होते हैं जिससे अंततः मृत्यु दर कम हो सकती है।

भारत की नीति प्रतिक्रिया :

  • कोविड -19 में नीति निर्माताओं को ‘जीवन’ या ‘आजीविका’ को बचाने के लिये जटिल एवं बहुआयामी स्वास्थ्य तथा सामाजिक-आर्थिक व्यापार-बंदी को मंज़ूरी देनी पड़ी।
  • चूँकि भारत उच्च घनत्व वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आबादी वाला देश है इसलिये कोविड -19 की संचरण क्षमता यहाँ अधिक थी।
  • एक प्रभावयुक्त इलाज, निवारक वैक्सीन , घनी आबादी वाले क्षेत्रों में नेटवर्क संरचनाओं के परस्पर संयोजन के अभाव में और एक उच्च सीएफआर के चलते  भारत ने रणनीतिक रूप से लागत और अवसरों का उचित मूल्यांकन किया।
  • वास्तविक अनिश्चितता और एक सदी के संकट द्वारा चिन्हित ‘ब्लैक स्वान इवेंट’ को देखते हुए, भारतीय नीति निर्माताओं ने वित्त में बारबेल रणनीति के समान दृष्टिकोण का पालन किया जिसमें शुरुआत में सबसे खराब परिणाम के लिये हेजिंग और फीडबैक के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया चरण-दर-चरण अपडेट करना शामिल है।
  • ‘जान है तो जहान है’ और ‘सामुदायिक प्रसारण’ तक पहुँचने से पहले 'प्रसार की श्रृंखला को तोड़ने ’ के  स्पष्ट उद्देश्य से सरकार को ‘जीवन बनाम आजीविका’ की दुविधा का सामना करने में मदद मिली, नीतिगत हस्तक्षेपों के क्रम को गति दी गई और उसकी प्रतिक्रिया को अनुकूलित किया गया।
  • लॉकडाउन ने '5 T' रणनीति के मूल सिद्धांतों टेस्ट (test) , ट्रैक (track), ट्रेस (trace), ट्रीट (treat), टेक्नोलॉजी ने इस संकट से निपटने हेतु आवश्यक समय प्रदान किया।
  • भारत के ज़िलों को मामलों की संख्या और अन्य मापदंडों के आधार पर रेड,येलो और ग्रीन ज़ोन में वर्गीकृत किया गया था। देश के भीतर 'हॉटस्पॉट्स' और 'कन्टैनमेंट ज़ोन' की पहचान की गई। ये ऐसे स्थान हैं जहाँ उच्च पुष्टि वाले मामलों से संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है।

निष्कर्ष

वैश्विक महामारी से पैदा हुए आर्थिक संकट के बावजूद भारत स्थिर मुद्रा, सुविधापूर्ण चालू खाते, विदेशी मुद्रा भंडार की मज़बूत स्थिति और विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन में उत्साहजनक संकेतों से वृहद आर्थिक स्थिति के साथ V-आकार की रिकवरी देख रहा है। महामारी की शुरुआत में अपनाए गए साहसी तथा निवारक उपाय से भारत "लॉकडाउन लाभांश" निकाल रहा है।


  अध्याय 2  

क्या विकास से कर्ज स्थायित्व को बढ़ावा मिलता है? हां, लेकिन कर्ज स्थायित्व से विकास को मजबूती नहीं मिलती है!

  • सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में परिवर्तन के लिये चार प्रमुख चालक हैं: 
    • वह सरकारी ऋण पर लगाई गई (वास्तविक या नाममात्र) ब्याज दर और (वास्तविक या नाममात्र) विकास दर के बीच अंतर करता है;
    • पिछली अवधि में ऋण-से-जीडीपी अनुपात और जीडीपी को प्राथमिक घाटे का अनुपात।
    • जिस आसानी से सरकार अपने ऋण-से-जीडीपी अनुपात को कम कर सकती है वह मुख्य रूप से ब्याज दर-वृद्धि अंतर (IRGD) पर निर्भर करता है।
    • आईआरजीडी जितना अधिक नकारात्मक होगा सरकार के लिये ऋण स्थिरता सुनिश्चित करना उतना आसान (और तेज) है।
    • इसके विपरीत, यदि आईआरजीडी सकारात्मक है, तो सरकार के लिये ऋण स्थिरता सुनिश्चित करना कठिन (और धीमा) है।
    • एक नकारात्मक IRGD इस प्रकार ऋण स्थिरता के लिये एक सक्षम वातावरण बनाता है।
    • भारत में ब्याज दर और विकास दर के रुझानों पर करीब से नजर डालें तो पिछले दो-ढाई दशकों में ब्याज दरों के सापेक्ष विकास दर में एक उच्चतर परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डाला गया है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि आईआरजीडी में बदलाव ज्यादातर ब्याज दरों में बदलाव के बजाय वृद्धि दर में बदलाव के लिये ज़िम्मेदार हैं। इस प्रकार, यह उच्च विकास है जो भारत के लिये ऋण की स्थिरता की कुंजी प्रदान करता है।

ध्यान दें

  • प्राथमिक घाटा वर्तमान वर्ष के राजकोषीय घाटे और पिछले उधारों पर ब्याज भुगतान के बीच अंतर को संदर्भित करता है। यह ब्याज को छोड़कर, सरकार की उधार संबंधी आवश्यकताओं को इंगित करता है।

भारत में विकास ऋण की स्थिरता की और जाता है इसके विपरीत नहीं?

  • निम्न विकास के लिये उच्च ऋण का समर्थन करने वाले तर्क निम्नानुसार हैं:
    • सार्वजनिक ऋण का उच्च स्तर भविष्य में ऋण के भुगतान के लिये और अधिक करों की मांग के साथ होता है, जिससे जीवनकाल में धन कम होता है, जिससे उपभोग और बचत कम हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप अंततः मांग और विकास दर में कमी हो सकती है।
    • यदि उच्च सार्वजनिक ऋण (यानी कम सार्वजनिक बचत) निजी बचत में वृद्धि के साथ नहीं है, तो इससे अर्थव्यवस्था में कुल बचत कम हो सकती है। यह ब्याज दरों पर ऊपर की ओर दबाव डाल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप निवेश में भीड़ बढ़ जाती है और इस प्रकार विकास दर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
    • पिछले दो-ढाई दशकों में साक्ष्य स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करते हैं कि भारत में उच्च जीडीपी वृद्धि के कारण ऋण-जीडीपी का अनुपात घटता है, लेकिन इसके विपरीत नहीं।
    • उच्च दर पर अपनी जीडीपी बढ़ाने वाले देशों के लिये विकास उनके सार्वजनिक ऋण को कम करने की ओर जाता है जैसा कि उनके ऋण-से-जीडीपी अनुपात द्वारा मापा जाता है, लेकिन इसके विपरीत नहीं। इसके विपरीत, जब जीडीपी की वृद्धि दर कम होती है तो विकास और सार्वजनिक ऋण के बीच ऐसा कोई कारण नहीं होता है। यह निम्नलिखित के माध्यम से देखा जाता है:
    • भारत और अन्य उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के लिये, जिन्होंने पिछले कुछ दशकों में लगातार अपने सकल घरेलू उत्पाद को उच्च दरों पर बनाए रखा है, ऋण और विकास के बीच संबंध कार्य-क्षमता की स्पष्ट दिशा प्रदर्शित करता है: उच्चतर विकास ऋण-सकल घरेलू उत्पाद अनुपात को कम करता है, लेकिन कम ऋण होने का मतलब यह नहीं है कि  आवश्यक रूप से उच्चतर विकास हो रह है।
    • उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के उच्च विकास के चरणों के दौरान एक ही घटना देखी गयी जिसमें इन देशों की जीडीपी विकास दर भारत और अन्य ईएमई की तुलना में काफी कम दर से बढ़ी है।
    • इसके विपरीत, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, जहाँ उच्च और निम्न दोनों विकास की स्थितियाँ हैं, वहाँ पिछले कुछ दशकों में जीडीपी विकास दर औसतन कम रही है, जिससे यह संबंध प्रकट नहीं होता है।

ध्यान दें

  • कारणवाद (जिसे कारण या कारण और प्रभाव के रूप में भी जाना जाता है) एक ऐसी घटना है, जिसके द्वारा एक घटना, प्रक्रिया, स्थिति या वस्तु (एक कारण) किसी अन्य घटना, प्रक्रिया या वस्तु (एक प्रभाव) के उत्पादन में योगदान करती है, जहाँ इसका कारण आंशिक रूप से प्रभाव के लिये ज़िम्मेदार है और प्रभाव आंशिक रूप से कारण पर निर्भर है।

सार्वजनिक व्यय के कारण क्राउडिंग आउट:     

  • अब तक यह माना जाता है कि उन देशों के लिये विकास और ऋण के बीच कार्य-कारण की स्पष्ट दिशा है जहाँ विकास दर अधिक है; विशेष रूप से ऐसे देशों में विकास ऋण स्थिरता होती है।
    • वैचारिक रूप से, उच्च वृद्धिशील ऋण से निम्न विकास दर तक संभावित लिंक निजी निवेश और रिचर्डियन इक्विवेलेंस प्रपोजल (आरईपी) के बाहर संभावित क्राउडिंग क्षमता पर आधारित है।
    • आरईपी कहता है कि अग्रेषित दिखने वाले उपभोक्ता, जिन्हें पूरी तरह तर्कसंगत और पूरी तरह से सक्षम माना जाता है, अपने उपभोग निर्णय लेने के दौरान सरकार के राजकोषीय विकल्पों को आंतरिक करते हैं।
    • विशेष रूप से, सरकारी खर्च के दिये गए पैटर्न के लिये, वर्तमान अवधि में सरकारी खर्च में वृद्धि (या करों को कम करना) भविष्य के कर वृद्धि की आशा करने के लिये अग्रसक्रिय उपभोक्ताओं को आगे ले जाता है, जिससे उन्हें वर्तमान अवधि में बचत करने के लिये प्रेरित कर भविष्य की कर वृद्धि का भुगतान करने में सक्षम बनाया जा सके और कुल मांग मौजूदा अवधि में अपरिवर्तित बनी हुई है।
    • उदाहरण के लिये, जब REP आनुपातिक करों के कारण स्थायी नहीं रहता है तो उच्च सार्वजनिक ऋण स्तर (सार्वजनिक बचत कम) निजी बचत में वृद्धि के साथ नहीं हो सकता है, जिससे वर्तमान अवधि में उच्च सरकारी व्यय (या कम कर) कम हो सकते हैं। यह ब्याज दरों पर ऊपर की ओर दबाव डाल सकता है, जिसके परिणामस्वरूप निवेश में क्राउडिंग आउट बढ़ जाती है और इस प्रकार विकास दर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

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  • निजी निवेश से बाहर क्राउडिंग आउट इस धारणा पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था में बचत की आपूर्ति निश्चित है। इसलिये, उच्च राजकोषीय व्यय से ऋण योग्य धन की मांग में वृद्धि हो सकती है और इसलिये ब्याज दरों पर एक दबाव बढ़ जाता है, जिससे निजी निवेश को हतोत्साहित किया जाता है।
  • हालाँकि, भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में निजी क्षेत्रों की बचत और निवेश में वृद्धि के लिये निजी क्षेत्र की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि द्वारा क्राउडिंग आउट को नियंत्रित कर निजी निवेश को सक्षम कर सकती है ।
    • दूसरे शब्दों में, एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें बेरोजगार संसाधन हैं,  में सरकारी खर्च में वृद्धि से अर्थव्यवस्था में कुल मांग में वृद्धि होती है, जो निजी क्षेत्र को प्रेरित कर सकती है कि वह नई मशीनरी में अपने निवेश को बढ़ाकर बढ़ी हुई मांग को पूरा कर सके और इस तरह वे बेरोज़गारों को रोज़गार भी प्रदान करते हैं।
    • इससे सकल मांग पर गुणक प्रभाव पड़ सकता है, जिसके परिणामस्वरूप उच्च विकास दर हो सकती है।
    • इस प्रकार, पूर्ण क्षमता से नीचे की अर्थव्यवस्था में, बचत की आपूर्ति, मांग निर्माण के माध्यम से अधिक सरकारी व्यय द्वारा बढ़ सकती है और इस प्रकार अधिक से अधिक रोजगार सृजन हो सकता है। यह हालिया शोध, अनुकूल जनसांख्यिकी - कामकाजी उम्र की एक बड़ी आबादी के रूप में भी उजागर हुआ है - जो सार्थक नौकरियों के माध्यम से बचत को बढ़ाएगा।

भारत की ऋण की संरचना

  • भारत का सार्वजनिक ऋण-से-जीडीपी उच्च वैश्विक ऋण स्तरों की तुलना में काफी कम है और इसके अलावा, भारत के लिये सार्वजनिक ऋण और समग्र ऋण स्तर में वर्ष 2003 के बाद से गिरावट आई है और यह वर्ष 2011 के बाद से स्थिर है।
  • सरकार के ऋण पोर्टफोलियो में बहुत कम विदेशी मुद्रा जोखिम है क्योंकि बाहरी ऋण सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.7% (कुल केंद्र सरकार की देयता का 5.9%) है।
  • भारत के सार्वजनिक ऋण की लंबी परिपक्वता प्रोफ़ाइल (लंबी अवधि के बांड जारी करने) के साथ-साथ फ्लोटिंग रेट ऋण का एक छोटा हिस्सा (केंद्र सरकार का अस्थायी दर ऋण सार्वजनिक ऋण का 5% से कम है) रोलओवर जोखिमों को सीमित करता है  और  ब्याज दर की अस्थिरता से ऋण पोर्टफोलियो की सुरक्षा करता है।

नीति क्रियान्वयन

  • मध्यम से दीर्घावधि में वृद्धि के प्रभावित होने की संभावना को समाप्त करने के लिये, सरकार कई लाभदायक सुधारों को शुरू करने में बेहद सक्रिय रही है।
  • यह सुनिश्चित करने के लिये कि इन महत्वपूर्ण सुधारों का पूरा लाभ उठाने के लिये अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में है, मध्यम और दीर्घावधि के लिये "आर्थिक सेतु" बनाना होगा। केवल एक सक्रिय राजकोषीय नीति - वह जो यह मानती है कि बहुत कम करने से जोखिम बहुत अधिक करने से होने वाले जोखिमों की तुलना में बहुत अधिक है - यह सुनिश्चित कर सकती है कि यह "आर्थिक पुल" अच्छी तरह से निर्धारित है।
  • भविष्य में भारत के लिये IRGD के नकारात्मक होने की संभावना के साथ यह चक्रीय राजकोषीय नीतियों में ऋण / जीडीपी अनुपात उच्चतर हो सकता है, कम नहीं।
  • आर्थिक संकट के दौरान, एक अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई विस्तारक राजकोषीय नीति का रुख दो तरीकों से बेहतर आर्थिक परिणामों में योगदान कर सकता है।
  • पहला, यह उत्पादकता बढ़ाने वाले बहु-वर्षीय सार्वजनिक निवेश पैकेजों के साथ संभावित विकास को बढ़ावा दे सकता है।
  • सार्वजनिक निवेश की बहु-वर्षीय प्रकृति विकास की उम्मीदों को विश्वसनीय रूप से बढ़ाने में योगदान करेगी।
  • निजी क्षेत्र में अत्यधिक जोखिम की स्थिति, जो किसी भी आर्थिक संकट की विशेषता है, में सार्वजनिक निवेश के माध्यम से जोखिम लेना निजी निवेश को उत्प्रेरित कर सकता है और एक सुचारू चक्र को प्राप्त कर सकता है।
  • दूसरा, भारतीय अर्थव्यवस्था के कम वेतन-वृद्धि के जाल में गिरने का जोखिम है, जैसा कि पिछले दो दशकों के दौरान जापान में हुआ है।
  • इसलिये, एक व्यावहारिक राजकोषीय नियम को राजकोषीय नीति के लिये ट्रिगर रूम प्रदान करना चाहिये जो पिछली 20 तिमाहियों के मुकाबले सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में  3.5% की वृद्धि में दो-तिमाही मंदी के रूप में ट्रिगर को निर्धारित करके के औसत जीडीपी विकास दर की तुलना में ।

निष्कर्ष

अधिक सक्रिय राजकोषीय नीति मतलब राजकोषीय गैर ज़िम्मेदारी का आह्वान नहीं है। यह बौद्धिक एंकरिंग को तोड़ने का आह्वान है जिसने राजकोषीय नीति के खिलाफ एक असममित पूर्वाग्रह पैदा किया है। एक बार जब वृद्धि स्थायी रूप से उठती है, तो यह राजकोषीय समेकन का समय होगा। लेकिन, अभी के लिये राजकोषीय नीति को निकट भविष्य में विकास का समर्थन करने के लिये केंद्रीय -चरण में रहना होगा।


  अध्याय 3  

क्या भारत की संप्रभु क्रेडिट रेटिंग अपने मूल सिद्धांतों को दर्शाती है?  नहीं !

क्रेडिट रेटिंग डिफ़ॉल्ट की संभावना को दर्शाती है और इसलिये इससे अपने दायित्वों को पूरा करने के लिये उधारकर्ता की इच्छा और क्षमता प्रदर्शित होती है।  भारत की भुगतान करने की इच्छा निर्विवाद रूप से अपने शून्य संप्रभु डिफ़ॉल्ट इतिहास के माध्यम से प्रदर्शित होती है।  इस आकर्षक आँकड़े के बावजूद, भारत अपने  रेटिंग समूह में एक   विशेष रूप से कम रेटिंग वाले देशों के खिलाफ, संप्रभु क्रेडिट रेटिंग में पूर्वाग्रह और व्यक्तिवाद को उजागर करता है।

सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स

  • सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग ऋण दायित्वों को पूरा करने के लिये जारीकर्ताओं की क्षमता निर्धारित करना चाहती हैं।  अनुकूल होने पर, यह देशों को वैश्विक पूंजी बाजार और विदेशी निवेश तक पहुँच प्रदान कर सकती हैं।  दुनिया भर की प्रमुख क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां ​​ फिच, मूडीज और स्टैंडर्ड एंड पूअर्स आदि हैं।
  • सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग मोटे तौर पर देशों की  निवेश श्रेणी  या बाद में अव्यवहार्य श्रेणी के रूप में उधार पर डिफ़ॉल्ट की उच्च संभावना होती है।

सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स और भारत

  • वर्तमान में, भारत की निवेश श्रेणी को तीन प्रमुख क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों - एस एंड पी, मूडीज और फिच द्वारा रेटिंग दी जाती   है। भारत, जो दुनिया की पाँचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, को निवेश श्रेणी (BBB- / Baa3) के निम्नतम पायदान के रूप में दर्जा दिया गया है।
  • अपनी संप्रभु क्रेडिट रेटिंग समूह  के भीतर - A + / A1 और BBB- / Ba33 के बीच मूल्यांकन किये गए देशों में से  - भारत कई मापदंडों पर स्पष्ट रूप से अलग (बाहर) है, यानी एक संप्रभु देश जिसकी रेटिंग -पैरामीटर का संप्रभु रेटिंग पर प्रभाव से अनिवार्य रूप से कम है।
  • इनमें जीडीपी विकास दर, मुद्रास्फीति, सामान्य सरकारी ऋण (जीडीपी के% के रूप में), चक्रीय रूप से समायोजित प्राथमिक शेष (संभावित जीडीपी के% के रूप में), चालू खाता शेष (जीडीपी के% के रूप में), राजनीतिक स्थिरता, कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण , निवेशक सुरक्षा, व्यापार करने में आसानी, अल्पकालिक बाह्य ऋण (भंडार के% के रूप में), आरक्षित पर्याप्तता अनुपात और संप्रभु डिफ़ॉल्ट इतिहास शामिल है।।
    • बाहरी स्थिति केवल पिछले दो दशकों के दौरान ही नहीं, बल्कि आज भी सच है।
  • 2000-20 की अवधि के दौरान विभिन्न मापदंडों पर इसके प्रदर्शन की तुलना में भारत को लगातार उम्मीद से नीचे रखा गया है।
  • भारत की भुगतान करने की इच्छा निर्विवाद रूप से अपने शून्य संप्रभु डिफ़ॉल्ट इतिहास के माध्यम से प्रदर्शित होती है।
  • भारत की भुगतान करने की क्षमता का अंदाजा न केवल बेहद कम संप्रभु विदेशी मुद्रा-नामित ऋण से बल्कि  इसके विदेशी मुद्रा भंडार का सुविधापूर्ण आकार जो निजी क्षेत्र के अल्पकालिक ऋण के साथ-साथ भारत के संप्रभु और गैर-संप्रभु बाहरी ऋण के पूरे स्टॉक का भुगतान कर सकता है से भी किया जा सकता है |

चुनिंदा संकेतकों पर इन रेटिंग्स का प्रभाव

  • चूंकि रेटिंग भारत के मूल सिद्धांतों को शामिल  नहीं करती है, इसलिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत के लिये सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग परिवर्तनों के पिछले प्रकरण का सेंसेक्स रिटर्न, विदेशी विनिमय दर और सरकारी प्रतिभूतियों पर उपज जैसे चुनिंदा संकेतकों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है।
  • रेटिंग में गिरावट
    • औसतन, रेटिंग में गिरावट का लघु ,मध्यम और लंबी अवधि में सेंसेक्स रिटर्न  और विनिमय दर (INR / USD) के साथ एक मजबूत नकारात्मक सह-संबंध प्रतीत नहीं होता है।
    • सरकारी प्रतिभूतियों की यील्ड और प्रसार, औसतन, मध्यम अवधि में रेटिंग में गिरावट के साथ नकारात्मक रूप से सह-संबद्ध नहीं दिखाई देता है।
  • रेटिंग अपग्रेड
    • मध्यम अवधि में सेंसेक्स में वृद्धि के साथ और लंबी अवधि में एफपीआई (इक्विटी और डेट) के साथ थ्रेसहोल्ड अपग्रेड को सह-संबद्ध किया गया।
    • विनिमय दर (INR / USD), औसतन, रेटिंग अपग्रेड के दौरान पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 1.5% अधिक है।
    • रेटिंग अपग्रेड के दौरान, सरकारी प्रतिभूतियों पर उपज (5 वर्ष), औसतन, पिछले महीने की तुलना में 0.2% बढ़ी और अगले छह महीनों में 0.6% बढ़ी। सरकारी प्रतिभूतियों पर उपज (10 वर्ष), औसतन, पिछले महीने की तुलना में 0.5% गिर गई, और अगले छह महीनों में औसतन 0.7% की दर से बढ़ी।

नोट

सरकारी बॉन्ड में वृद्धि  क्रेडिट रेटिंग, जारीकर्ता या जोखिम स्तर के अलग-अलग ऋण  इंस्ट्रूमेंट्स पर पैदावार के बीच का अंतर होती  है, जिसकी गणना एक इंस्ट्रूमेंट की यील्ड को दूसरे से घटाकर की जाती है।

नीति क्रियान्वयन

  • यह संदिग्ध है कि क्या भारत की संप्रभु क्रेडिट रेटिंग उसके मूल सिद्धांतों को दर्शाती है। इसके अतिरिक्त, कम से कम दो दशकों की अवधि में भारत के मूलभूत तत्वों का प्रणालीगत न्यून-मूल्यांकन का प्रमाण इसकी कम रेटिंग में परिलक्षित होता  है।
    • भारत की राजकोषीय नीति को पक्षपाती और व्यक्तिपरक संप्रभु  रेटिंग द्वारा नियंत्रित किये जाने के बजाय संवृद्धि  और विकास के विचारों द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिये।
  • जबकि संप्रभु क्रेडिट रेटिंग भारतीय अर्थव्यवस्था के मूल सिद्धांतों, मुखर,अपारदर्शी और पक्षपाती क्रेडिट रेटिंग को प्रकट नहीं करती है जो एफपीआई प्रवाह को नुकसान पहुँचाती है।
    • विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को भविष्य में संकटों को रोकने के लिये संप्रभु क्रेडिट रेटिंग कार्यप्रणाली में निहित इस पूर्वाग्रह और व्यक्तिवाद को संबोधित करने के लिये एक साथ आना होगा।

निष्कर्ष 

क्रेडिट रेटिंग की प्रो-चक्रीय प्रकृति और अर्थव्यवस्थाओं पर इसके संभावित प्रतिकूल प्रभाव, विशेष रूप से कम-रेटिंग वाली विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को तेज़ी से संबोधित किया जाना चाहिये। भारत ने पहले ही जी-20 में क्रेडिट रेटिंग की प्रो-चक्रीयता का मुद्दा उठाया है। जवाब में, वित्तीय स्थिरता बोर्ड (एफएसबी) अब क्रेडिट रेटिंग में गिरावट की प्रो-चक्रीयता का आकलन करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।


  अध्याय 4  

असमानता और विकास: संघर्ष या अभिसरण?  

आर्थिक विकास और असमानता के बीच एक तनावपूर्ण संघर्ष है। गरीबी के निरपेक्ष स्तर तथा आर्थिक विकास की दर उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में कम हैं, क्या यह तथ्य इस संघर्ष को उत्पन्न कर सकता है? यदि ऐसा है तो क्या यह हो सकता है कि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था एक तरफ उच्च आर्थिक विकास की क्षमता के कारण इस टकराव से बच सकती है और दूसरी तरफ लाखों गरीबों को गरीबी के स्तर से उठाने की महत्त्वपूर्ण संभावना भी इसमें निहित है? कोविड-19 महामारी के बाद असमानता पर अनिवार्य ध्यान देने के कारण यह प्रश्न विशेष रूप से प्रासंगिक हो जाता है।

प्रमुख बिंदु 

  • आर्थिक मॉडल के साथ अक्सर दोहराई जाने वाली चिंता असमानता से संबंधित है और कुछ लोग, विशेष रूप से उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में वैश्विक वित्तीय संकट का ब्यौरा देते हैं, तर्क देते हैं कि असमानता कोई दुर्घटना नहीं है, बल्कि यह पूंजीवाद की एक अनिवार्य विशेषता है।
  • भारत और चीन में उच्च आर्थिक विकास के कारण गरीबी में उल्लेखनीय कमी आर्थिक विकास एवं असमानता के बीच संघर्ष की इस धारणा के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
  • उन्नत अर्थव्यवस्थाएँ विकास के अपने चरण, आर्थिक विकास की अपनी संभावित दर और गरीबी का सामना करने वाले निरपेक्ष स्तरों को देखते हुए असमानता पर ध्यान केंद्रित कर सकती हैं। इस प्रकार वे असमानता को कम करने की दिशा में झुकाव से विकास और असमानता के बीच दुविधा को हल कर सकती हैं।
  • हालाँकि समान दुविधा का सामना करने के बावजूद असमानता पर ध्यान केंद्रित करने का नीतिगत उद्देश्य भारतीय संदर्भ में लागू नहीं हो सकता है, जो कि विकास के चरण में अंतर, भारत की आर्थिक विकास की उच्च संभावित दर और गरीबी के उच्च स्तर पर निर्भर है।
  • इस प्रकार उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत भारत में आर्थिक विकास व असमानता का प्रभाव सामाजिक-आर्थिक संकेतकों के आधार पर पर परिवर्तित होता है और आर्थिक विकास का असमानता की तुलना में गरीबी उन्मूलन पर कहीं अधिक प्रभाव पड़ता है।

असमानता या गरीबी

  • असमानता को गरीबी से अलग करने की ज़रूरत है।
  • असमानता संपत्ति, आय या खपत के वितरण में अंतराल को संदर्भित करती है।
  • गरीबी से तात्पर्य वितरण के निचले स्तर पर परिसंपत्तियों, आय या उपभोग से है। गरीबी को सापेक्ष रूप में या निरपेक्ष शब्दों में परिकल्पित किया जा सकता है।
  • लोग खुद को गरीब समझते हैं यदि उनके पास उनके समाज में दूसरों की तुलना में बहुत कम संसाधन हैं। इस दृष्टि से गरीबी सापेक्ष अभाव है।
  • यदि गरीबी को सापेक्ष रूप में परिकल्पित किया जाता है, तो इसे असमानता से अलग करने की आवश्यकता नहीं है। गरीबी का सापेक्ष माप वास्तव में असमानता का मापक है।
  • दूसरी ओर यदि गरीबी को एक निरपेक्ष अर्थ में परिकल्पित किया जाता है, अर्थात् वितरण के निचले छोर पर संपत्ति, आय या उपभोग के निरपेक्ष स्तरों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, तो असमानता में वृद्धि गरीबी में कमी के साथ हो सकती है।
  • उदाहरण के लिये उन प्रयोगों जिनमें से पाँच या अन्य प्रतिभागियों को एक स्थिति में रखा गया है, जो रॉल्स की "मूल स्थिति" को अनुमानित करते हैं, अधिकांश प्रतिभागियों का चयन इस वितरण सिद्धांत के आधार पर नहीं होता है।
  • इसके बजाय वे एक सिद्धांत का चयन करते हैं जिसमें निचले स्तर पर उन लोगों की आय के तहत औसत आय अधिकतम होती है।
  • इस दृष्टि से जब तक गरीबों के पास "पर्याप्त" आय है, तब तक अमीरों की आय में वृद्धि से गरीबों को लाभान्वित होने की ज़रूरत नहीं है।
  • ऐसे प्रयोगों के परिणाम बताते हैं कि (पूर्ण) गरीबी असमानता से अधिक चिंता का विषय होनी चाहिये।
  • इस संदर्भ में भारतीय राज्यों के बीच प्रति व्यक्ति आय असमानता और आय के बीच संघर्ष का प्रमाण यह बताता है कि वर्तमान में भारत जिस विकास के स्तर पर है, उसमें विकास के माध्यम से गरीबी उन्मूलन पर ध्यान भारत की आर्थिक रणनीति के लिये केंद्रित होना चाहिये।

वास्तविक स्थिति 

  • जॉन रॉल्स द्वारा विचार विकसित किया गया था, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि एक उचित वितरण सिद्धांत पर निर्णय लेने का सबसे उचित तरीका यह है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में आपको यह पता होना चाहिये कि आप दुनिया में पैदा होंगे लेकिन आपको आपकी संपत्ति और विशेषताओं जैसे- बुद्धि, व्यक्तित्व लक्षण, माता-पिता, पड़ोस, लिंग, त्वचा का रंग, आदि का ज्ञान नहीं होगा।
  • दूसरे शब्दों में आपको यह विचार करने के लिये कहा जाता है कि आप जिन भी विकल्पों का चयन करेंगे वह समाज के बुनियादी ढाँचे के सिद्धांतों पर आधारित होंगे, लेकिन निर्णय लेते समय आपको आगे के समय और समाज में किस स्थिति में हैं, का कोई ज्ञान नहीं होना चाहिये ।
  • रॉल्स का वितरण सिद्धांत एक "अधिकतम" है, इसके अनुसार जो भी वितरण अधिकतम गरीबों की आय को अधिकतम करता है (और बुनियादी स्वतंत्रता प्रदान करता है) को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।

भारत में आर्थिक विकास और असमानता के सापेक्ष प्रभाव

  • आय और गरीबी के बीच संबंधों का विश्लेषण, एक समग्र मज़बूत नकारात्मक संबंध का सुझाव देता है, जिसका अर्थ है कि अधिक आय या प्रति व्यक्ति शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद (NSDP) वाले राज्यों में गरीबी की कम दर और इसके विपरीत अनुभव हुआ।
  • हालाँकि इस तरह का एक मज़बूत संबंध असमानता और गरीबी के बीच अनुपस्थित है।
  • वैश्विक बहु-आयामी गरीबी रिपोर्ट से बहुआयामी गरीबी अनुपात की जानकारी के आधार पर गरीबी पर आर्थिक विकास के प्रभाव का भी विश्लेषण किया जा सकता है।
    • MPI तीन आयामों पर आधारित है - शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर जिसमें दस संकेतकों का उपयोग, शिक्षा प्राप्ति, शिक्षा प्राप्ति का वर्ष, पोषण और मृत्यु दर तथा बिजली, पीने का पानी, स्वच्छता, रसोई गैस, आवास एवं संपत्ति आदि शामिल हैं।
    • हेडकाउंट अनुपात (HCR) को व्यक्तियों की बहु-आयामी गरीबी के रूप में गिना जाता है यदि उनका समग्र स्कोर 0.33 से अधिक है। एमपीआई के HCR की व्याख्या उस जनसंख्या के अनुपात के रूप में की जाती है जो बहु-आयामी रूप से गरीब है।
    • राज्यों में गरीबी में बड़ी कमी देखी गई है, खपत के आधार पर आधिकारिक अनुमानों का उपयोग करते हुए बहु-आयामी गरीबी में भी आनुपातिक कटौती का अनुभव किया। इस प्रकार MPI  और गरीबी के बीच संबंध सकारात्मक रहा है।
  • वर्ष 1991 के बाद विकास का पैटर्न काफी बदल गया है। गरीबी पर शहरी क्षेत्रों में अधिक-से-अधिक ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, क्योंकि अब शहरी इलाकों में एक-तिहाई गरीब लोग रह रहे हैं, जो 1950 के दशक की शुरुआत में लगभग 1/8 थे।
  • उदारीकरण के बाद की अवधि में शहरी विकास और गैर-कृषि विकास ग्रामीण गरीबी सहित राष्ट्रीय गरीबी में कमी का एक प्रमुख चालक के रूप में उभरा है।

निष्कर्ष

एक ओर असमानता व सामाजिक-आर्थिक परिणामों के बीच संबंध तथा दूसरी ओर आर्थिक विकास और सामाजिक-आर्थिक परिणाम, भारत में उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में देखे गए रुझानों से अलग हैं। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत भारत में आर्थिक विकास और असमानता सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर उनके प्रभावों के संदर्भ में परिवर्तित होती है। इसके अलावा आर्थिक विकास का असमानता की तुलना में गरीबी उन्मूलन पर कहीं अधिक प्रभाव है।


  अध्याय 5  

अंततोगत्वा हेल्थ केयर ने अहम स्थान पा लिया

किसी राष्ट्र का स्वास्थ्य उसके नागरिकों पर एक समान , किफायती और जवाबदेह स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली तक पहुँच पर निर्भर करता है । स्वास्थ्य, श्रम उत्पादकता और बीमारियों के आर्थिक बोझ ( WHO 2004 ) के माध्यम से घरेलू आर्थिक विकास को सीधे प्रभावित करता है। हाल ही में COVID-19 महामारी ने स्वास्थ्य क्षेत्र के महत्व और अर्थव्यवस्था के अन्य प्रमुख क्षेत्रों के साथ इसके इंटर-लिंकेज पर जोर दिया है। इस महामारी ने दिखा दिया है कि कैसे एक स्वास्थ्य सेवा संकट एक आर्थिक और सामाजिक संकट में बदल सकता है।

प्रमुख बिंदु 

  • सरकारी बजटों में स्वास्थ्य सेवा की प्राथमिकता में वृद्धि महत्वपूर्ण है क्योंकि यह निर्धारित करता है कि नागरिकों को स्वास्थ्य देखभाल के लिये किये गए आउट-ऑफ-पॉकेट भुगतान (OOP) के कारण वित्तीय कठिनाइयों के खिलाफ कितना संरक्षण मिलता है।
  • स्वास्थ्य के लिये OOP विपत्तिपूर्ण स्वास्थ्य व्यय के कारण गरीबी में जा रहे कमज़ोर समूहों के जोखिम को बढ़ाता है और इसे कम करने की आवश्यकता है।
  • स्वास्थ्य श्रम उत्पादकता और बीमारियों के आर्थिक बोझ के माध्यम से सीधे घरेलू आर्थिक विकास को प्रभावित करता है।
  • 50 से 70 वर्ष ( 40 प्रतिशत की वृद्धि ) तक जीवन प्रत्याशा बढ़ने से आर्थिक विकास दर 1.4 प्रतिशत प्रति वर्ष ( WHO 2004 ) बढ़ सकती है। जीवन प्रत्याशा सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि के साथ सकारात्मक रूप से सहसंबंधित है।
  • मातृ  मृत्यु दर प्रति व्यक्ति सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि के साथ नकारात्मक रूप से सहसंबंधित है।

भारत का हेल्थकेयर परिदृश्य

  • स्वास्थ्य सेवा पहुँच और गुणवत्ता में सुधार ( स्वास्थ्य सेवा पहुँच और गुणवत्ता, 1990 में 24.7 से बढ़कर वर्ष 2016 में 41.7 पर पहुँच गई) के बावजूद, भारत अन्य निम्न और निम्न मध्यम आय (LMIC) देशों की तुलना में कमज़ोर है।
  •  स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता और पहुँच पर, भारत 180 देशों में से 145 वें स्थान पर था (ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी 2016)।  केवल कुछ उप-सहारा देशों, कुछ प्रशांत द्वीपों, नेपाल और पाकिस्तान को भारत से नीचे स्थान दिया गया था।
  • भारत में अस्पताल में भर्ती की दर दुनिया में सबसे कम 3-4% है; यह मध्यम आय वाले देशों के लिये औसत 8-9% और ओईसीडी देशों (ओईसीडी सांख्यिकी) के लिये 13-17% है।
  •  गैर-संचारी रोगों (एनसीडी), निम्न जीवन प्रत्याशा, उच्च मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) और शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) के बढ़ते बोझ को देखते हुए, अस्पताल में भर्ती होने की निम्न दर के चलते ओईसीडी देशों की मध्यम आय की तुलना में अधिक स्वस्थ आबादी को प्रतिबिंबित करने की संभावना नहीं है।  ।
  •  इस प्रकार,  अस्पताल में निम्न भर्ती दरें भारत में स्वास्थ्य सेवा की कम पहुँच और उपयोग को दर्शाती हैं।
  •  भारत में दुनिया में आउट-पॉकेट व्यय (OOPE) का उच्चतम स्तर है।
  •  भारत अपने सरकारी बजट में स्वास्थ्य के लिये प्राथमिकता वाले 189 देशों में से 179 वें स्थान पर है।
  •  भारत में स्वास्थ्य की यह प्राथमिकता अनुदान-आश्रित देशों जैसे है और सूडान के समान है ।
  • यद्यपि भारत में स्वास्थ्य घनत्व के लिये कुल मानव संसाधन 23 की निम्न सीमा के करीब है। 

हेल्थकेयर में अनियमित निजी उद्यम

  • जहाँ सार्वजनिक संस्थानों की हिस्सेदारी अस्पताल और बाह्य रोगी देखभाल दोनों में बढ़ी है, वहीं भारत में कुल स्वास्थ्य सेवा में निजी क्षेत्र हावी है। शहरी भारत में लगभग 74% आउट पेशेंट देखभाल और 65% अस्पताल में भर्ती देखभाल निजी क्षेत्र के माध्यम से प्रदान की जाती है।
  • अनियमित निजी उद्यम महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव पैदा कर सकते हैं। उदाहरण के लिये, अपर्याप्त पहुँच के कारण स्वास्थ्य सेवा की खराब गुणवत्ता के कारण भारत में मौतों का एक बड़ा अनुपात प्रकट होता है; यह अनुपात पड़ोसी देशों और दुनिया के अन्य देशों की तुलना में काफी अधिक है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र में उपचार की गुणवत्ता बेहतर नहीं लगती है।
  • फिर भी, उपचार की लागत निजी क्षेत्र में न केवल समान रूप से अधिक है, बल्कि गंभीर बीमारियों जैसे कैंसर , कार्डियो , चोटों , गैस्ट्रो और श्वसन के उपचार हेतु अंतर भी विशालकाय है। ।
  • स्वास्थ्य बीमा में असंगठित निजी उद्यम को अपनाने वाले सूचना विषमता को देखते हुए, एक क्षेत्रीय नियामक जो स्वास्थ्य क्षेत्र के विनियमन और पर्यवेक्षण का कार्य करता है, पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये।

टेलीमेडिसिन

  • टेलीमेडिसिन रोगियों की दूर से देखभाल के अभ्यास को संदर्भित करता है जब चिकित्सक और रोगी एक दूसरे के साथ शारीरिक रूप से मौजूद नहीं होते हैं।
  • COVID-19 महामारी के प्रकोप के बाद से भारत में टेलीमेडिसिन को अपनाने में प्रभावशाली वृद्धि देखी गई है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ने मार्च 2020 में टेलीमेडिसिन प्रैक्टिस दिशानिर्देश 2020 जारी किया।
  • eSanjeevani OPD (एक मरीज-से-डॉक्टर टेली-परामर्श प्रणाली) ने अप्रैल 2020 में शुरू होने के बाद से लगभग एक लाख परामर्श रिकॉर्ड किये हैं।
  • टेलीमेडिसिन परामर्श की संख्या एक राज्य में इंटरनेट के प्रवेश के साथ दृढ़ता से संबंधित है।
  • इस प्रकार, टेलीमेडिसिन की सफलता गंभीर रूप से स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे और इंटरनेट कनेक्टिविटी के राष्ट्रव्यापी स्तर पर टिका है।
  • विशेष रूप से, इंटरनेट एक्सेस में निवेश करने से टेलीमेडिसिन का अधिक विकास हो सकता है, जो बदले में स्वास्थ्य देखभाल और उपयोग में भौगोलिक विषमताओं को कम करने में बहुत मदद कर सकता है।
  •  प्रैक्टो द्वारा भी इसी तरह की वृद्धि दर्ज की गई थी , जिसमें केवल तीन महीनों में ऑनलाइन परामर्श ( 500 से 700 प्रतिशत तक अलग - अलग विशिष्टताओं में भिन्न) में 500 प्रतिशत वृद्धि का उल्लेख किया गया था ।

आगे की राह

  • यह संभव है कि भविष्य में उत्पन्न स्वास्थ्य संकट में संचारी रोग शामिल न हो। इसलिये, भारत की स्वास्थ्य सेवा नीति को अपनी दीर्घकालिक स्वास्थ्य संबंधी प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, लेकिन इसे संचारी रोगों तक सीमित नहीं करना चाहिये। इसके साथ ही, भारत को महामारियों का जवाब देने में सक्षम बनाने के लिये, स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे को चुस्त होना चाहिये।
  • उदाहरण के लिये, प्रत्येक अस्पताल सुसज्जित हो सकता है ताकि सामान्य समय में सामान्य बीमारियों की देखभाल करते हुए राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति में अस्पताल में कम से कम एक वार्ड को जल्दी से संशोधित किया जा सके।
  • सरकार के डिजिटल स्वास्थ्य मिशन को पूरा करने के लिये सरकारों को एक मिशन मोड पर टेलीमेडिसिन में निवेश करने की आवश्यकता है और इस तरह से जनता तक अधिक पहुँच को सक्षम किया जा सकता है।
  • स्वास्थ्य संबंधी सार्वजनिक व्यय में सकल घरेलू उत्पाद के 1% से 2.5-3% तक की वृद्धि , राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में परिकल्पित - OOPE को 65% से घटाकर समग्र स्वास्थ्य देखभाल खर्च में 30% तक कर सकती है।
  • प्रधानमंत्री - जन आरोग्य योजना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण विकास है, जो भारतीय आबादी के एक बड़े प्रतिशत को वित्तीय सामर्थ्य प्रदान करती है और इसे जारी रखा जाना चाहिये।
  • अस्पतालों, चिकित्सकों और बीमा कंपनियों के लिये स्वास्थ्य सेवा पर गुणवत्ता की रिपोर्टिंग के लिये एक मानकीकृत प्रणाली, प्रत्येक स्वास्थ्य सेवा हितधारक द्वारा अनिवार्य रूप से सूचित किये जाने वाले बुनियादी इनपुट संकेतकों के साथ शुरू हो सकती है।

  अध्याय 6  

प्रक्रिया सुधार: अनिश्चितता के तहत निर्णय लेने को सक्षम करना 

अंतर्राष्ट्रीय तुलनाओं से पता चलता है कि भारत की प्रशासनिक प्रक्रियाओं (फर्मों के दिवालियापन में ) की समस्याएं प्रक्रियाओं या विनियामक मानकों के अनुपालन की कमी से कम तथा अति-नियमन से ज़्यादा होती हैं। यहाँ तक कि जब कोई विवाद/ मुकदमेबाजी नहीं होती है और सभी कागजी कार्रवाई पूरी हो जाती है, तो किसी फर्म या कंपनी को रिकॉर्ड से हटाने के लिये 1570 दिन (4.3 वर्ष) लगते हैं। यह अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक समय  है।

प्रमुख बिन्दु 

  • भारतीय प्रशासनिक प्रक्रियाओं में अति-नियमन और अपारदर्शिता की समस्या पूरे नियमों पर अधिक बल देने से होती है जो हर संभव परिणाम के लिये ज़िम्मेदार हैं।
  • वास्तविक मुद्दा अनुचित विलंब , किराए की मांग, जटिल नियमों और विनियमन की गुणवत्ता के कारण विनियमन की प्रभावशीलता प्रतीत का होता है।
  • विश्व न्याय परियोजना द्वारा प्रकाशित 'वर्ल्ड रूल ऑफ लॉ इंडेक्स' नियामक प्रवर्तन के विभिन्न पहलुओं पर एक क्रॉस कंट्री तुलना प्रदान करता है।
    • 2020 में, ' उपयुक्त प्रक्रिया का प्रशासनिक प्रक्रिया में सम्मान किया जाता है' की श्रेणी में भारत की रैंक 128 देशों में से 45वीं थी,  (उचित प्रक्रिया का पालन करने के लिये प्रतिपत्र)।
    • इसके विपरीत, 'सरकारी नियम प्रभावी रूप से लागू किए जाते हैं' की  श्रेणी में(नियामक गुणवत्ता / प्रभावशीलता के लिये प्रतिपत्र), देश की रैंक 104 है।
    • इससे पता चलता है कि, लोकप्रिय धारणा के विपरीत, भारत प्रक्रियाओं के अनुपालन में अपेक्षाकृत अच्छा है, लेकिन नियामक प्रभावशीलता में पिछड़ जाता है।
  • नियत प्रक्रिया का सम्मान करने के मामले में भारत को अन्य ब्रिक्स देशों (दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर) से बेहतर रखा गया है, लेकिन उन मानकों की प्रभावशीलता में उनसे भी बदतर है।
  • इसी तरह, वर्ल्ड बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस (ईओडीबी) रिपोर्ट (2020) से पता चलता है कि समग्र ईओडीबी रैंक में बड़ी प्रगति करने के बावजूद, भारत अभी भी उप-श्रेणियों  'व्यापार शुरू करने' और 'संपत्ति दर्ज करने' में पीछे है। रैंक क्रमशः 136 और 154 है।

Business-Indicators

नियामक डिफ़ॉल्ट की समस्या

  • पर्यवेक्षक को लचीलापन और विवेकाधिकार  प्रदान करके सरल विनियमन बनाने और उन्हीं को पूरक बनाने की आवश्यकता है।
  • फिर भी ,अगर कानूनी और संस्थागत ढाँचे स्पष्ट रूप से नियमों के पालन-पोषण को सीमित नहीं करते हैं, तो नीति-निर्माता स्वाभाविक रूप से अधिक विनियमन की ओर बढ़ सकते हैं, भले ही यह अर्थव्यवस्था के लिये अधिकतम से कम अनुकूल हो।
  • प्रिंसिपल-एजेंट समस्या का विश्लेषण करते समय, यह तर्क दिया जाता है कि बहुआयामी कार्य दुनिया में सर्वव्यापी हैं और एजेंटों को अपने समय  को विभिन्न कर्तव्यों के बीच विभाजित करना होगा। ऐसे मामलों में, एजेंट उन कार्यों को चुनते हैं जिनके परिणाम औसत दर्जे के होते हैं ।
    • उदाहरण के लिये, यदि छात्रों के परीक्षा स्कोर के आधार पर शिक्षकों के लिये भुगतान करने का प्रोत्साहन है, तो शिक्षक संकीर्ण रूप से परिभाषित बुनियादी कौशल पर ध्यान केंद्रित करेंगे, जो मानकीकृत परीक्षणों पर परखे  जाते हैं न कि छात्र के सीखने के विभिन्न पहलुओं पर।
    • वास्तव में, वे इस बात पर ध्यान केंद्रित करेंगे कि क्या प्रभावी रूप से मापा जा सकता है।

नोट

  • प्रिंसिपल-एजेंट समस्या एक व्यक्ति या समूह और उनकी ओर से कार्य करने के लिये अधिकृत प्रतिनिधि के बीच प्राथमिकताओं में संघर्ष है। एक एजेंट इस तरह से कार्य कर सकता है जो प्रिंसिपल के सर्वोत्तम हितों के विपरीत है। प्रिंसिपल-एजेंट की समस्या प्रिंसिपल और एजेंट की संभावित भूमिकाओं की तरह विविध है।
  • इसी तरह, चूँकि विनियमन को आसानी से मापा जा सकता है, जबकि पर्यवेक्षण को आसानी से नहीं मापा जा सकता है, नियामक और निर्णय-निर्माता पर्यवेक्षण को अधिक से अधिक विनियमन के साथ प्रतिस्थापित करना पसंद करेंगे।
    • आखिरकार, नियम मानदंड या चेकलिस्ट प्रदान करते हैं, जिससे नियामकों के लिये बाद में उनकी जवाबदेही को कम करना और पालन करना आसान हो जाता है।
  • दूसरी ओर, पर्यवेक्षण की मात्रा और गुणवत्ता को निर्धारित करना मुश्किल है। स्वाभाविक रूप से, नीति-निर्माता  डिफ़ॉल्ट रूप से निदेशात्मक विनियमन का पक्ष लेते हैं।
  • यह उनकी प्रभावशीलता की परवाह किए बिना अधिक टॉप-डाउन नियमों को जोड़ने के लिये एक विकारग्रस्त प्रोत्साहन का सृजन करता  है।
  • चूँकि नियमों को परिभाषित किया गया है, इसलिये उनका पूर्व मापन आसान है। नौकरशाही स्वाभाविक रूप से यांत्रिक नियमों के साथ पर्यवेक्षण को प्रतिस्थापित करेगी और उपलब्ध होने पर भी विवेक का प्रयोग नहीं करेगी।

विवेक के लिये हल 

  • यह स्पष्ट होना चाहिये कि सक्रिय पर्यवेक्षण और विवेक का कोई विकल्प नहीं है।
    • विशेष रूप से, पूर्व-विनियमन  (घटना से पहले) उत्तर-पर्यवेक्षण (घटना के बाद) का स्थानापन्न नहीं हो सकता है; वास्तव में, अधिक पूर्व-विनियमन केवल अपारदर्शी विवेक को बढ़ावा देकर उत्तर-पर्यवेक्षण की गुणवत्ता को कम करने का कार्य करता है।
  • पूर्व-जवाबदेही को मज़बूत करें:
    • अधूरे अनुबंधों के आधार पर संपत्ति के अधिकार का साहित्य संस्थानों में शासन की मज़बूती के लिये तर्क देता है कि बोर्ड में अधिक शक्ति निहित है और फिर उन्हें पूर्व-जवाबदेही बनाया जाएगा।
    • उत्तर -ऑडिट पर बहुत अधिक भरोसा करने के बजाय, जो वैसे भी दूरदर्श पूर्वाग्रह से पीड़ित हैं, पूर्व-जवाबदेहिता को संस्थानों के बोर्ड के साथ सौंपा जाना चाहिये।

नोट

  • दूरदर्श पूर्वाग्रह एक मनोवैज्ञानिक घटना है जो लोगों को एक घटना के बाद खुद को समझाने की अनुमति देता है कि ऐसा होने से पहले उन्होंने सटीक भविष्यवाणी की थी। इससे लोग निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वे अन्य घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी कर सकते हैं। दूरदर्श पूर्वाग्रह व्यवहार अर्थशास्त्र में अध्ययन किया जाता है क्योंकि यह व्यक्तिगत निवेशकों की एक आम विफलता है।
  • पारदर्शिता लाना :
    • प्रभावी पर्यवेक्षण की दिशा में दूसरा तरीका निर्णय लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता को शामिल करना है।
    • पारदर्शिता, आंतरिक मूल्य होने के अलावा, इसकी सराहना की जाती है क्योंकि यह सार्वजनिक संस्थानों में विश्वास को बढ़ावा देता है और बाज़ारों को कुशल बनाता है।
    • निर्णय लेने में पारदर्शिता के साथ प्रणाली में विवेक को संतुलित करने की आवश्यकता है।
    • उदाहरण के लिये, सरकारी ई-मार्केटप्लेस (जीईएम) के परिणामस्वरूप निविदा, दर अनुबंध और प्रत्यक्ष खरीद दरों जो पहले उपयोग की गई थीं की तुलना में कीमतों में पर्याप्त कमी आई है।
  • पूर्व-प्रस्ताव तंत्र को लचीला बनाना :
    • प्रभावी पूर्व-पर्यवेक्षण  से निपटने के लिये सभी नियमों को लागू करने और सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, एक मजबूत उत्तर-प्रस्ताव  तंत्र को तैयार करना आवश्यक है।
    • इसके लिये कुशल कानूनी प्रणालियों (यानी अदालतों और संस्थानों) जैसे इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (IBC), डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल आदि की आवश्यकता है।
    • उनके साथ, मुकदमेबाजी प्रक्रिया को तेज करने के लिये भारत में न्यायालयों और कानूनी ढाँचे को मजबूत करने की आवश्यकता है जिससे परिसमापन प्रक्रियाओं का त्वरित समाधान प्राप्त किया जा सके।

प्रशासनिक प्रक्रिया सुधारों की दिशा

  • आज़ादी के बाद से, स्वायत्त निकायों का बहुतायत  प्रसार हुआ। न केवल लागत के नजरिए से बल्कि पारदर्शिता, जवाबदेही और कुशल पर्यवेक्षण बनाए रखने के लिये उनकी  लगातार छँटाई करने की ज़रूरत है।
  • किसी नागरिक द्वारा सामना किए गए नियमों और विनियमों के बारे में किसी भी सूचना की विषमता को समाप्त करने के लिये नियम अधिनियम (रूल्स एक्ट) की पारदर्शिता की आवश्यकता है।
    • सुधार उस समस्या को हल करते हैं जो अक्सर नियमों के बदलने से होती है और नागरिकों को वर्तमान आवश्यकताओं को जानने के लिये परिपत्रों और सूचनाओं के एक लंबे पेपर निशान का पालन करना पड़ता है।
  • इसके अलावा, सभी कानूनों, नियमों और विनियमों को एक एकीकृत,अद्यतन के रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। इससे पारदर्शिता आएगी और नियमों की समझ सरल होगी।

निष्कर्ष:

आर्थिक सिद्धांत और प्रमाण दोनों बताते हैं कि अनिश्चित और जटिल दुनिया में, उन नियमों को लिखना संभव नहीं है जो सभी संभावित परिणामों के लिये ज़िम्मेदार हैं। यह निर्णय लेने में विवेक को अपरिहार्य बनाता है। हालाँकि, अधिक जटिल नियम होने से विवेक को कम करने का प्रयास और भी अधिक गैर-पारदर्शी विवेक का परिणाम है। इसके समाधान में नियमों को सरल बनाना , पर्यवेक्षण में अधिक निवेश और परिभाषा के अनुसार कुछ विवेक की अनुमति देने की इच्छा शामिल है |


  अध्याय 7  

विनियामक फॉरबीयरेंस : एक आपातकालीन औषधि, न कि मुख्य आहार!

बैंकों के लिये विनियामक फॉरबीयरेंस में परिसंपत्तियों के पुनर्गठन से संबंधित मानदंडों को शिथिल करना शामिल है, जहाँ पुनर्गठन परिसंपत्तियों को अब गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के रूप में वर्गीकृत करने की आवश्यकता नहीं है और इसलिये बैंकों हेतु प्रोविजनिंग के स्तरों की आवश्यकता भी नहीं है जो एनपीए को आकर्षित करते हैं। COVID-19 महामारी के चलते बैंक ऋणों पर वर्तमान विनियामक फॉरबीयरेंस आवश्यक है।

प्रमुख बिंदु

  • COVID-19 महामारी द्वारा उत्पन्न आर्थिक चुनौतियों का समाधान करने के लिये, दुनिया भर के वित्तीय नियामकों ने फॉरबीयरेंस नीति को अपनाया है। भारत कोई अपवाद नहीं है।
  • वर्ष 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट का अनुमान लगाते हुए, आरबीआई द्वारा  विनियामक फॉरबीयरेंस की नीति पेश की गई।
  • इसने तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के पुनर्गठन से संबंधित मानदंडों को शिथिल किया  जिसके चलते ऐसी परिसंपत्ति को गैर-निष्पादित स्थिति में अपग्रेड करना अब अनिवार्य नहीं था और इसके लिये अतिरिक्त प्रावधान की आवश्यकता भी नहीं थी।
  • विफलताओं को वित्तीय क्षेत्र से वास्तविक क्षेत्र में फैलने से रोकने के लिये फॉरबीयरेंस जैसे उपाय कारगर होते हैं, जिससे संकट को गहराने से रोका जा सकता है।
  • हालाँकि, इसमें सावधानी बरतनी चाहिये ताकि आपातकालीन औषधि एक मुख्य आहार न बन जाए क्योंकि उधारकर्ता और बैंक आसानी से ऐसे उपशामक के आदी हो सकते हैं।
  • जब आपातकालीन औषधि एक मुख्य आहार बन जाती है, तो नकारात्मक दुष्प्रभाव न केवल बड़े बल्कि दीर्घकालिक भी हो सकते हैं।

फॉरबीयरेंस हेतु आर्थिक औचित्य 

रियायतों के बिना

रियायतों के साथ

1. यदि परियोजना व्यवहार्य है , तो बैंक अस्तियों का पुर्नवर्णन करेगा और इसे गैर निष्पादित परिसम्पत्ति (एनपीए) में बदल देगा। 

यदि परियोजना व्यवहार्य है , तो बैंक अस्तियों का पुनर्गठन नहीं करेगा और इसे गैर निष्पादित घोषित करेगा। महत्त्वपूर्ण रूप से इस मामले में अव्यवहार्य परियोजना के पुर्नगठन द्वारा बैंकों को कुछ नहीं मिलेगा ।

यदि परियोजना व्यवहार्य है , तो बैंक आस्तियों का पुर्नवर्णन करेगा और पुनर्गठित अस्तियों से एन पी ए के रूप में सामान स्टार के प्रावधान की आवश्यकता नहीं होती है, गैर जरूरी प्रावधान किये जाते हैं। 

पूंजी की कमी वाले बैंकों के पास अब प्रावधान को कम करने और पूंजी पर परिणामी हित से बचने के लिये अव्यवहार्य  परियोजनाओं के पुनर्गठन के लिये एक प्रोत्साहन है।

  • फॉरबीयरेंस की अनुपस्थिति में, एक बैंक को फर्म / परियोजना की व्यवहार्यता के आधार पर पुनर्गठन का निर्णय लेना चाहिये क्योंकि एक अविभाज्य फर्म के पुनर्गठन की लागत कम होती है। लेकिन फॉरबीयरेंस के साथ, बैंकों को पुनर्गठन से संबंधित कोई निकट-अवधि की लागत नहीं आती है।
  • इसलिये, बैंक पुनर्गठन करना पसंद करते हैं, क्योंकि यह विकल्प उन्हें कम एनपीए घोषित करने और ऋण प्रोविजनिंग के कारण आने वाली लागत से बचने की अनुमति देता है।
  • इस प्रकार, ऋणग्रस्तता बैंकों को प्रोत्साहित करती है कि वे अस्थिर संपत्ति होने पर भी तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के पुनर्गठन के जोखिम उठाएं।
  • पूंजी की कमी वाली सस्थाएँ जोखिम भरी परियोजनाओं में निवेश करने के लिये विशेष रूप से अतिसंवेदनशील होती हैं, जो जोखिम-शिफ्टिंग नामक घटना है।
    • उस मामले पर विचार करें जहां एक बैंक के पास किसी उधारकर्ता के विरुद्ध एक बड़ा बकाया है जो डिफ़ॉल्ट के कगार पर है।
    • यदि उधारकर्ता डिफ़ॉल्ट होता है, तो बैंक के कर्ज को एनपीए के रूप में पहचानना होगा, उसे नुकसान उठाना होगा और संभवतः जर्जर पूंजी के कारण पुन: पूंजीकरण भी करना होगा।
    • उधारकर्ता की सॉल्वेंसी से संबंधित चिंताओं को देखते हुए उसे एक नया ऋण उधार देना या उसके वर्तमान ऋण का पुनर्गठन करना बेहद जोखिम भरा है और इसके परिणामस्वरूप बैंक को और नुकसान हो सकता है।
    • हालाँकि, इस अप्रत्याशित स्थिति में नया ऋण उधारकर्ता को पुनर्प्राप्ति करने में मदद करता है, जिससे बैंकों को ब्याज के साथ अपने सभी ऋण वापस मिलने की भी संभावना रहती है और इसलिये पूंजी में किसी प्रकार की कमी की आशंका नहीं होगी।
  • फॉरबीयरेंस अपनी बैलेंस शीट को सुधारने, अपने कार्यकाल के दौरान अच्छा प्रदर्शन दिखाने और इस तरह सेवानिवृत्ति के बाद के कैरियर के लाभों को बढ़ाने का अवसर प्रदान करता है।
  • इसके द्वारा आगे चलकर इक्विटी मालिकों को बिना किसी अतिरिक्त लागत के ऋण के पुनर्गठन की अनुमति मिलती है।
  • जब अवसर एक फॉरबीयरेंस व्यवस्था के तहत उत्पन्न होता है तो पूंजी की कमी वाले बैंक अव्यवहार्य परियोजनाओं के पुनर्गठन का भी चयन करते हैं, जिससे इक्विटी धारकों से जमाकर्ताओं और करदाताओं के लिये जोखिम दूर हो जाता है।

मूल पाप: सात वर्षीय फॉरबीयरेंस 

  • हालाँकि, वैश्विक वित्तीय संकट (2008) के बाद के वर्षों में किसी भी दिये गए उधारकर्ताओं के पुनर्गठन की प्रवृत्ति, जिसमें अव्यवहार्य लोग भी शामिल हैं, अधिक है।
  • जाहिर है, एक बार जब बैंकों को आर्थिक सुधार के बावजूद फॉरबीयरेंस  की निरंतरता के बारे में संकेत मिले, तो कई तरह की विकृतियाँ सामने आईं।
  • RBI द्वारा गठित पी.जे. नायक कमेटी (2014) ने मई 2014 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला कि फॉरबीयरेंस व्यवस्था से दो चिंताएँ उपजी हैं: पुनर्गठित संपत्ति के तहत NPA के वर्गीकरण द्वारा ऋण की एवरग्रीनिंग और बैंकों का परिणामजन्य अवपूंजीकरण।
    • उदाहरण के लिये, इसमें कहा गया है, '' सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये मौजूदा टियर- I की पूंजी विनियामक फॉरबीयरेंस की वजह से ओवरस्टेट हो गई है जो आरबीआई पुनर्गठन परिसंपत्तियों पर प्रदान करता है।
    • फॉरबीयरेंस के बिना इन संपत्तियों को एनपीए के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा, यह पुनर्गठन की एक प्रतिक्रिया होने के कारण बड़ी चूक हो सकती है।
  • इस प्रकार, संक्षेप में, फॉरबीयरेंस अवधि के दौरान कई बैंक अवपूंजीकृत हुए।
  • वर्ष 2015 में फॉरबीयरेंस नीति बंद करने के बाद, RBI ने बैंकिंग प्रणाली में मौजूद बेड लोन की सही मात्रा जानने के लिये एक एसेट क्वालिटी रिव्यू किया।
    • परिणामस्वरूप वर्ष 2014-15 से वर्ष 2015-16 तक बैंकों के एनपीए में काफी वृद्धि हुई।
    • फॉरबीयरेंस की अनुपस्थिति में, बैंकों ने ऋणों के पुनर्गठन के लिये एनपीए का खुलासा करना पसंद किया।
  • इस प्रकार वर्तमान बैंकिंग संकट की जड़ें वर्ष 2008 और वर्ष 2015 के बीच लंबे समय से चली आ रही फॉरबीयरेंस नीतियों में निहित हैं।

बैंकों पर फॉरबीयरेंस का प्रभाव

  • बैंक अवैध ऋणों को नकद (लिक्विड) देनदारियों में परिवर्तित करने का कार्य करते हैं जबकि दूसरे शब्दों में , जब बैंक मांग पर या किसी विशिष्ट अवधि के बाद पुनर्भुगतान जमा जारी करते हैं , तो वे लंबी अवधि वाली परियोजनाओं को उधार देता है । इसलिये वे दोनों (i) अंतर्वाह और अप्रत्याशित बहिर्वाह के समय में बेमेल (लिक्विडिटी बेमेल के रूप के संदर्भित) और (ii) उधारकर्ता (डिफॉल्ट) द्वारा भुगतान न करने पर अप्रत्याशित उछाल का सामना करना पड़ता है । 
    • लंबी अवधि तक दी जाने वाली रियायत नीति के प्रभाव के फलस्वरूप वास्तविक पूंजी को बढ़ा कर दिखाया जाता है और इससे सुरक्षा की छद्म भावना उत्पन्न होती है ।
  • सामान्य चूक और नियमित बहिर्वाह की कीमत आमतौर पर नियमित परिसंपत्ति - देयता प्रबंधन (ए एल एम) ढांचे के भीतर प्रदान की जाती है । पूंजी एक आधार प्रदान करती है जो बैंकों को असामान्य जमाकर्ता निकासी और दी गई ऋणों पर बढ़ते घाटे के माध्यम से नेविगेट करने में मदद करता है ।
    • फॉरबीयरेंस अवधि में अनुत्पादक फर्मों को दिये जाने वाले उधार में वृद्धि देखी गई, जिसे लोकप्रिय रूप से "जॉम्बी" के रूप में जाना जाता है।
    • आमतौर पर जॉम्बी को ब्याज कवरेज अनुपात का उपयोग करके पहचाना जाता है, जो की फर्म को कर देने के पश्चात होने वाले लाभ और उसके कुल ब्याज व्यय के आधार पर निकाला जाता है।
    • एक से कम ब्याज कवरेज अनुपात वाली फर्में अपनी आय से अपने ब्याज दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ होती हैं और उन्हें जॉम्बी के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
    • फॉरबीयरेंस व्यवस्था में निम्न परिचालन मेट्रिक्स के साथ कॉर्पोरेट्स को की गई ऋण आपूर्ति में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई और उनके निवेश-ऋण अनुपात में एक साथ हुई कमी ने यह संकेत दिया कि बढ़ी हुई क्रेडिट आपूर्ति का उपयोग फर्मों द्वारा उत्पादन में नहीं किया गया बल्कि इसे  प्रबंधन के निजी लाभ के लिये डायवर्ट किया गया था।
    • फॉरबीयरेंस व्यवस्था से लाभान्वित फर्में अनियमित शासन के चलते पूंजी का दुरूपयोग भी करती हैं।
    • फॉरबीयरेंस व्यवस्था में पूर्व फॉरबीयरेंस काल की तुलना में पुनर्गठित कंपनियों द्वारा डिफ़ॉल्ट में वृद्धि भी हुई।

वर्तमान फॉरबीयरेंस के लिये निहितार्थ

  • फॉरबीयरेंस आपातकालीन चिकित्सा का प्रतिनिधित्व करता है जिसे उस अवसर पर  बंद किया जाना चाहिये जब अर्थव्यवस्था रिकवरी का प्रदर्शन करती है, न कि यह एक मुख्य आहार है जो वर्षों तक जारी रहता है।
  • इसलिये, नीति निर्माताओं को आर्थिक सुधार की वे सीमाएँ निर्धारित करनी चाहिये, जिस पर इस तरह के उपायों को वापस ले लिया जाएगा और थ्रेसहोल्ड को बैंकों को पहले से सूचित किया जाना चाहिये ताकि वे फॉरबीयरेंस के बिना वित्तीय संकट से निपटने की  तैयारी कर सकें।
  • जब फॉरबीयरेंस व्यवस्था बंद हो जाती है तो बैंक बैलेंस शीट की सफाई जरूरी है। एक साफ-सफाई अभ्यास अनिवार्य रूप से पुनर्पूंजीकरण के साथ होना चाहिये, जो पूंजी की आवश्यकताओं के गहन मूल्यांकन के आधार पर एक परिसंपत्ति गुणवत्ता की समीक्षा करता है।
  • परिसंपत्ति की गुणवत्ता की समीक्षा में उन सभी रचनात्मक तरीकों का ध्यान रखना चाहिये जिसमें बैंक अपने ऋण को सदाबहार कर सकते हैं।
  • इस संदर्भ में, इस बात पर जोर दिया जाना चाहिये कि अग्रिम चेतावनी के संकेत जो यह बताते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, सुरक्षा की झूठी भावना पैदा कर सकते हैं।
  • बैंकिंग नियामकों को फॉल्ट लाइनों से संबंधित शुरुआती जानकारी हेतु अधिक सुसज्जित होने और पूर्व उपचारात्मक उपायों के टूलकिट का विस्तार करने  की आवश्यकता है।
  • बैंकों के पुन: पूंजीकरण के अलावा, उनके शासन की गुणवत्ता को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।
  • सदाबहार और ज़ोंबी ऋण देने से बचने के लिये बैंकों के मौजूदा दौर के बाद में सक्षम बोर्डों को पूरी तरह से सशक्त बनाना चाहिये।
  • साउंड गवर्नेंस यह सुनिश्चित करने के लिये एक प्रमुख मीट्रिक है कि बैंक डिस्टॉर्शनरी लेंडिंग पोस्ट कैपिटल इनफ्यूजन में संलग्न न हों।
  • IBC के कार्यान्वयन के लिये न्यायिक अवसंरचना - ऋण वसूली न्यायाधिकरणों, राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरणों और अपीलीय न्यायाधिकरणों से बना होना चाहिये।

निष्कर्ष

इस प्रकार, वैश्विक वित्तीय संकट के बाद लंबे समय के लिये अपनाई गई फॉरबीयरेंस नीतियों ने हाल के बैंकिंग संकट को बढ़ा दिया, जिससे देश में निवेश की दर में कमी आई और इस तरह आर्थिक विकास अवरुद्ध हुआ। नीति निर्माताओं के लिये सबक यह है कि वे आपातकालीन उपायों का अधिक विस्तार न करें: जब कोई आपातकालीन दवा एक मुख्य आहार बन जाती है, तो यह विपरीत प्रभाव पैदा कर सकती है।


  अध्याय 8  

नवाचारः नवाचार को अधिक प्रोत्साहन देने की आवश्यकता , वासकर निजी क्षेत्र से

वर्ष 2007 में ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स ( जीआईआई ) की स्थापना के बाद वर्ष 2020 में पहली बार भारत अपने स्थान में सुधार करते हुए शीर्षस्थ 50 नवोन्मेशी देशों में शामिल हो गया है। वर्ष 2015 में भारत का स्थान 81 वाँ था । जिसमे वर्ष 2020 में सुधार हो कर वह 48 वें स्थान पर पहुँच गया है । आगे की प्रगति के लिये मार्ग निर्धारित करते हुए इस महत्वपूर्ण उपलब्धि को बढ़ाने के लिये, सर्वेक्षण विभिन्न आयामों पर भारत के नवाचार निष्पादन की जाँच करता है । 

नवाचार क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • आर्थिक विकास में तकनीकी प्रगति का महत्व सोलो मॉडल के साथ शुरू हुआ, जिसमें बताया गया कि प्रति कर्मचारी उत्पादन मुख्य रूप से बचत, जनसंख्या वृद्धि और तकनीकी प्रगति पर निर्भर करता है।   
  • अध्ययनों से पता चलता है कि छोटे उद्यमों ने अनुसंधान और विकास गतिविधियों तथा नई प्रौद्योगिकियों के माध्यम से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में बड़े लाभ सृजित किये हैं।
  • उद्यमिता नवाचार और आर्थिक विकास के बीच संबंध पाया जाता है। अनुसंधान और विकास गतिविधियों से संबंधित निवेश में 10% की वृद्धि  से उत्पादकता लाभ को  1.1% से 1.4% तक बढ़ाया जा सकता है।
  • पीपीपी (क्रय शक्ति समानता) (2019) में प्रति व्यक्ति जीडीपी की शर्तों के साथ पिछले नवाचार प्रदर्शनों (वर्ष 2016 में तीन वर्ष  पहले और वर्ष 2014 में पाँच वर्ष पहले) का एक सकारात्मक सहसंबंध है।

ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स

  • वैश्विक नवाचार सूचकांक (GII) का प्रकाशन प्रत्येक वर्ष कॉर्नेल यूनिवर्सिटी (Cornell University), इन्सीड बिज़नेस स्कूल (INSEAD Business School) और संयुक्त राष्ट्र के विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (WIPO) द्वारा किया जाता है।
  • जीआईआई के दो उप-सूचकांक हैं: इनोवेशन इनपुट सब-इंडेक्स और इनोवेशन आउटपुट सब-इंडेक्स तथा सात स्तंभ, जिसमें प्रत्येक में तीन उप-स्तंभ शामिल हैं, जिन्हें आगे कुल 80 संकेतकों में विभाजित किया गया है।
  • इनोवेशन इनपुट सब-इंडेक्स और इनोवेशन आउटपुट सब-इंडेक्स का समग्र जीआईआई की गणना में बराबर महत्त्व है।
  • इनोवेशन इनपुट उप-सूचकांक में पाँच स्तंभ हैं: (i) संस्थान; (ii) मानव पूंजी और अनुसंधान; (iii) आधारभूत संरचना; (iv) बाज़ार का अनुकूलन; और (v) बिजनेस सोफिस्टिकेशन। 
  • इनोवेशन आउटपुट सब-इंडेक्स में दो स्तंभ (i) नॉलेज और टेक्नोलॉजिकल आउटपुट और (ii) क्रिएटिव आउटपुट हैं।
  • जीआईआई 2020 में 131 देश / अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं, जो दुनिया की 93.5% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं और दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का 97.4% क्रय शक्ति समता वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय डॉलर में करते हैं।

Global-Innovation-Index

भारत और नवाचार 

  • हाल ही में जारी वैश्विक नवाचार सूचकांक- 2020 (Global Innovation Index-GII) में भारत को 48वाँ स्थान प्राप्त हुआ है, जिससे भारत पहली बार वैश्विक नवाचार सूचकांक (GII) में शीर्ष 50 देशों के समूह में शामिल हो गया है।
  • भारत ने वर्ष 2007 में सूचकांक की स्थापना के बाद पहली बार शीर्ष 50 नवप्रवर्तनशील देशों में की सूची में स्थान प्राप्त किया है। वैश्विक नवाचार सूचकांक- 2020 में स्विट्ज़रलैंड को पहला स्थान प्राप्त हुआ है, जबकि स्वीडन और अमेरिका को क्रमशः दूसरा और तीसरा स्थान प्राप्त हुआ है। वहीं ब्रिटेन और नीदरलैंड इस सूचकांक में क्रमशः चौथे और पाँचवे स्थान पर मौजूद हैं।
  • शीर्ष 10 स्थानों पर उच्च आय वाले देशों के वर्चस्व है।
  • भारत ने विशेष रूप से क्षेत्रीय और अपनी आय श्रेणी में, मध्य और दक्षिण एशिया में जीआईआई रैंकिंग में पहला और निम्न मध्यम आय वर्ग की अर्थव्यवस्थाओं में तीसरा स्थान हासिल किया।
  • भारत ने जीआईआई के साथ-साथ इनोवेशन आउटपुट और इनोवेशन इनपुट उप-सूचकांकों के विकास के अपने स्तर (प्रति व्यक्ति जीडीपी) के लिये उम्मीद से अधिक प्रदर्शन किया है।
  • R&D निवेश नवाचार में एक महत्वपूर्ण इनपुट है।
    • यद्यपि भारत का R & D पर सकल घरेलू व्यय (GERD) इसके विकास के स्तर की अपेक्षा के अनुरूप है, फिर भी इसमें सुधार की बहुत गुंजाइश है।
    • भारत में, सरकार GERD का 56% योगदान देती है, जबकि यह अनुपात शीर्ष दस अर्थव्यवस्थाओं में से प्रत्येक में से 20% कम है।
  • भारत में दायर किये गए पेटेंट की कुल संख्या वर्ष 1999 के बाद से बढ़ी है, मुख्य रूप से गैर-निवासियों द्वारा दायर पेटेंट आवेदनों में वृद्धि के चलते इस संख्या में वृद्धि हुई है।
  • जबकि निवासियों द्वारा दायर किये गए पेटेंट आवेदन वर्ष 1999 के बाद से लगातार बढ़े हैं किंतु वे गैर-निवासियों द्वारा पेटेंट आवेदनों की तुलना में बहुत कम दर से बढ़े हैं।
  • यह देखते हुए कि इन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से अधिकांश भारत की तुलना में अधिक नवाचारी हैं और इक्विटी बाज़ार का विकास उच्च-प्रौद्योगिकी नवाचार की सुविधा प्रदान करता है, यह इंगित करता है कि भारत में नवाचार को और अधिक उच्च तकनीक गहन बनने की आवश्यकता है।

भारत के लिये संभावनाएँ:

  • भारत आउटसोर्सिंग, अत्यधिक कुशल श्रम शक्ति, कम लागत वाले श्रम और R&D गतिविधियों के से संबंधित अवसरों की उपलब्धता के कारण एक अत्यधिक आकर्षक R&D गंतव्य है।
  • इसने अमेरिकी कंपनियों से बड़े पैमाने पर ऑफ-शोरिंग किया है, विशेषकर आईटी उद्योगों में भारत में आईबीएम, इंटेल और जीई जैसी कंपनियां अत्याधुनिक अनुसंधान एवं विकास का संचालन करती हैं।
  • भारत में आर्थिक विकास और बढ़ते आय के स्तर ने भारतीय बाज़ार को आकर्षक बना दिया है और स्थानीय R&D गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, खासकर मोटर वाहन बाज़ार में।
  • इस प्रकार, भारत के पास वैश्विक बाज़ारों को लक्षित करने वाले एक वैश्विक R&D केंद्र और विश्व के विभिन्न देशों में अपने स्थानीय बाज़ार और बाज़ारों के लिये क्षेत्रीय R&D हब के रूप में उभरने की विश्व स्तर की क्षमता है।
  • यह देखा जा सकता है कि भारत उच्च स्तर के नवाचार आउटपुट का उत्पादन करने के लिये निवेश को प्रभावी ढंग से नवाचार के इनपुट में रूपांतरित करने में सक्षम है।
  • इसका मतलब यह है कि भारत कई अन्य देशों की तुलना में नवाचार में अपने निवेश द्वारा अधिक लाभ प्राप्त कर सकता है।
  • यह संभव हो सकता है कि नवाचार में अधिक निवेश द्वारा नवाचार इनपुट और नवाचार आउटपुट के बीच संबंध भारत के लिये और भी अनुकूल सिद्ध हो।

नीति क्रियान्वयन

  • भारत को नवप्रवर्तन पर अधिक जोर देने की आवश्यकता है ताकि निकट भविष्य में GDP $ US में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए। 
    • इसके लिये वर्तमान में R&D पर सकल व्यय, सकल घरेलू उत्पाद के 0.7% से बढ़ाकर कम से कम 2% से अधिक करने की आवश्यकता है ताकि अन्य शीर्ष दस अर्थव्यवस्थाओं (जीडीपी वर्तमान यूएस $) में GERD का औसत स्तर प्राप्त किया जा सके।
  • नवाचार पर भारत का प्रदर्शन इक्विटी वित्त तक इसकी पहुँच के स्तर से कम रहा है।
  • भारत को यूएस $ में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करने के लिये के इसके व्यापार क्षेत्र को ने अवसरों के सृजन और R&D पर सकल व्यय को भारत की वर्तमान जीडीपी के स्तर पर बड़े पैमाने पर बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • पहले से प्रचलित उदार प्रोत्साहन के बावजूद व्यापार क्षेत्र द्वारा GERD में योगदान के निम्न स्तर को देखते हुए, भारत में व्यवसायों को नई अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिये नवाचार पर ध्यान देना चाहिये।
  • R&D सकल व्यय R&D के कर्मियों और शोधकर्ताओं पर और देश में दायर पेटेंट में हिस्सेदारी में योगदान के संदर्भ में यह भारत में नवाचार में निजी भागीदारी को बढ़ाने के संदर्भ में अधिक महत्व रखता है।

निष्कर्ष

भारत को संस्थानों और व्यावसायिक विशेषज्ञता पर अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये क्योंकि इन आयामों पर उच्च प्रदर्शन लगातार उच्च नवाचार आउटपुट प्रदर्शन का सुझाव देते हैं। भारत इनोवेशन आउटपुट में अपने प्रदर्शन को और बढ़ाने के लिये संस्थानों और व्यावसायिक विशेषज्ञता इनपुट स्तंभों पर भी ध्यान केंद्रित कर सकता है।


  अध्याय  9  

जय हो (JAY Ho): आयुष्मान भारत की जन आरोग्य योजना (JAY) और स्वास्थ्य परिणाम

2018 में, भारत सरकार ने देश में सबसे कमज़ोर वर्गों तक स्वास्थ्य सेवा पहुँच प्रदान करने के लिये एक ऐतिहासिक कदम के रूप में आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PM-JAY) को मंजूरी दी। लाभार्थियों में 10.74 करोड़ गरीब और कमज़ोर परिवारों के लगभग 50 करोड़ व्यक्ति शामिल थे, जो भारतीय जनसंख्या के निचले 40% हिस्से का निर्माण करते हैं।

प्रमुख बिन्दु 

  • यह योजना परिवार के फ्लोटर आधार पर प्रति वर्ष प्रति परिवार ₹ 5 लाख तक की स्वास्थ्य सेवा प्रदान करती है, जिसका अर्थ है कि इसका उपयोग परिवार के एक या सभी सदस्यों द्वारा किया जा सकता है।
  • स्वास्थ्य सेवाओं के सामान्य उपयोग के अनुरूप उच्च आवृत्ति और कम लागत वाली देखभाल के लिये PMJAY का काफी उपयोग किया जा रहा है।
  • यह योजना सार्वजनिक और अनुभवजन्य निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के नेटवर्क के माध्यम से माध्यमिक और तृतीयक अस्पताल में भर्ती होने के बाद इलाज प्रदान करती है। यह अस्पताल में भर्ती होने के तीन दिन पूर्व  तथा बाद के 15 दिनों के लिये खर्चे प्रदान करती है | उम्र ,लिंग तथा परिवार के आकार पर कोई सीमा नहीं है और इसे देश भर में कहीं भी प्राप्त किया जा सकता  है।
  • PM-JAY का उद्देश्य पूरी आबादी को व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सेवा प्रदान करने के लिये 150,000 स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र स्थापित करना है।
  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए), 2019 द्वारा जारी PM-JAY की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, कार्यान्वयन की स्थिति इस प्रकार है:
    • 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने इस योजना को लागू किया है ,
    • 13.48 करोड़ ई-कार्ड जारी किये गए हैं,
    •  7,490 करोड़ के उपचार प्रदान किये गए हैं (1.55 करोड़ अस्पताल में प्रवेश),
    • 24,215 अस्पतालों को सूचीबद्ध किया गया है ।

सार्वजनिक वस्तुएँ, लोकतंत्र और शासन

  • कुछ वस्तुओं को "सार्वजनिक वस्तुओं" के रूप में देखा जा सकता है और तर्क दिया गया है कि "कोई भी विकेन्द्रीकृत मूल्य निर्धारण प्रणाली सामूहिक उपभोग (सार्वजनिक वस्तुओं के) के इन स्तरों को बेहतर ढंग से निर्धारित करने के लिये सेवा नहीं दे सकती है।"
  • चूँकि सार्वजनिक वस्तुएं  गैर-प्रतिद्वंद्वी और गैर-बहिष्कृत होती  हैं, इसलिये ऐसी वस्तुओं के मामले में बाज़ार की विफलताएं प्रबल होती हैं।
  • इसके अलावा, उनकी गैर-प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए, निजी उत्पादक ऐसे वस्तुओं में निवेश को उचित ठहराने के लिये अपेक्षित मुनाफा नहीं कमा सकते हैं। इसलिये, सरकारी हस्तक्षेप की गैर मौजूदगी में सार्वजनिक वस्तुओं का उत्पादन गंभीर रूप से कम हो सकता है।
  • चूँकि सार्वजनिक वस्तुओं को बाज़ार द्वारा पर्याप्त मात्रा में प्रदान नहीं किया जाता है,अत: सरकार द्वारा उनकी आपूर्ति की जानी चाहिये। इसलिये, सार्वजनिक वस्तुओं का प्रावधान करना और उनकी आपूर्ति सुनिश्चित करना सरकार के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक का प्रतिनिधित्व करता है।
  • इसलिये, शासन समाज के कमज़ोर वर्गों के लिये सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के प्रभावी वितरण को  बाध्य करता है।
  • सार्वजनिक वस्तुओं के वितरण के महत्व के बावजूद, सरकारें लोकतंत्र में "क्षितिज की समस्या" से पीड़ित हो सकती हैं, जहाँ समय क्षितिज, जिससे सार्वजनिक वस्तुओं का लाभ मतदाताओं तक पहुंचता है, चुनावी चक्रों से अधिक लंबा हो सकता है।
    • जो इसे लघु दृष्टि बनाता है,इसलिये यह सरकारों द्वारा सार्वजनिक वस्तुओं की अंडर-प्रोविजनिंग का नेतृत्व कर सकता है।
  • उदाहरण के लिये, राजनीतिक अर्थव्यवस्था में अनुसंधान से पता चलता है कि चुनावी चक्रों के माध्यम से प्रस्तुत निरंतर राजनीतिक चुनौती के कारण लोकतांत्रिक शासक अक्सर अदूरदर्शी होते हैं। परिणामस्वरूप,लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारें दीर्घकालिक परियोजनाओं के लिये प्रतिबद्ध होने के बजाय केवल अल्पकालिक लाभ पर ध्यान केंद्रित कर सकती हैं।
  • इसलिये, सार्वजनिक वस्तुओं का प्रावधान जो अर्थव्यवस्था और समाज के लिये दीर्घकालिक लाभ उत्पन्न करता है, एक लोकतांत्रिक राजनीति में शासन के प्रमुख पहलू का प्रतिनिधित्व करता है।

PM-JAY के स्वास्थ्य परिणाम

  • PM-JAY ने भारतीय राज्यों को शिशु और बाल मृत्यु दर में कमी हासिल करने में मदद की है।
    • एनएफएचएस -4 और एनएफएचएस -5 पर आधारित विश्लेषण के अनुसार ,जिन राज्यों ने PM-JAY को अपनाया है उनकी नवजात मृत्यु दर में 22 % तथा  जिन्होंने नहीं अपनाया है उनकी नवजात मृत्यु दर में 16 % की  कमी आयी है |
    • शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में कमी  PM-JAY और गैर-PM-JAY राज्यों में क्रमश:  20 तथा 12 प्रतिशत थी।
  • जबकि दो सर्वेक्षणों के बीच सभी राज्यों में परिवार नियोजन सुनिश्चित करने वाले लोगों के अनुपात में वृद्धि हुई है, उन राज्यों में वृद्धि अधिक महत्वपूर्ण है जिन्होंने PM-JAY को अपनाया और इसकी प्रभावशीलता का संकेत दिया।
  • प्रसव के दो दिनों के भीतर प्रसवोत्तर देखभाल प्राप्त करने वाली माताओं के प्रतिशत में PM-JAY  राज्यों में 15% की वृद्धि हुई है, गैर-PM-JAY राज्यों में केवल 9% की वृद्धि हुई है।
  • बच्चे के टीकाकरण और विटामिन-ए की पूरकता से संबंधित स्वास्थ्य परिणाम उल्लेखनीय रूप से उन राज्यों में बेहतर हुए जिन्होंने PM-JAY को अपनाया।
  • PM-JAY न केवल राज्यों में स्वास्थ्य परिणामों में सुधार करने में सफल रहा है, बल्कि एचआईवी / एड्स जैसी महत्वपूर्ण स्वास्थ्य चिंताओं के बारे में ज्ञान और जागरूकता के प्रसार में वृद्धि के लिये भी ज़िम्मेदार है।

निष्कर्ष 

भले ही इसके लागू होने के बाद कुछ ही समय बीता हो, लेकिन सर्वेक्षण द्वारा जिन प्रभावों की पहचान की जाती है, वे देश में स्वास्थ्य परिदृश्य को महत्वपूर्ण रूप से बदलने के लिये कार्यक्रम की क्षमता को रेखांकित करते हैं, खासकर कमज़ोर वर्गों के लिये।


  अध्याय 10   

ज़रूरी आवश्यकताएँ

एक सभ्य जीवन जीने के लिये आवास, जल, स्वच्छता, बिजली और खाना पकाने हेतु स्वच्छ  ईंधन जैसी बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुँच आवश्यक है। पाँच आयामों, जल, स्वच्छता, आवास, सूक्ष्म पर्यावरण और अन्य सुविधाओं के आधार पर 26 संकेतकों को संक्षेप में बताकर भारत के लिये एक ज़रूरी आवश्यकता सूचकांक विकसित किया गया है।

प्रमुख बिंदु

  • 1950 के दशक के बाद से जब श्री पीताम्बर पंत ने "न्यूनतम ज़रूरतों" के विचार की वकालत की तब भारत में इस विचार ने ज़ोर पकड़ा कि आर्थिक विकास को नागरिकों को "जीवन की आधारभूत आवश्यकताएँ" प्रदान करने की प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है।
  • एक परिवार की आधारभूत आवश्यकताओं जैसे कि आवास, पानी, स्वच्छता, बिजली और स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन तक पहुँचने की क्षमता को आर्थिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण बैरोमीटर माना गया है।
  • स्वच्छ पेयजल तक पहुँच, स्वच्छता और खाना पकाने हेतु स्वच्छ ईंधन का भी घर में सदस्यों के स्वास्थ्य से सीधा संबंध है।
  • "आधारभूत आवश्यकताओं" के वितरण में प्रगति को मापने के लिये, सर्वेक्षण ने समग्र सूचकांक विकसित किया है, जिसे ज़रूरी आवश्यकता सूचकांक कहा जाता है।

आवश्यकता सूचकांक (BNI)

  • BNI ग्रामीण क्षेत्रों, शहरी क्षेत्रों और अखिल भारतीय स्तर पर नागरिकों की "बुनियादी आवश्यकताओं" तक पहुँच को मापता है।
  • इन आवश्यकताओं को पाँच आयामों, जल, स्वच्छता, आवास, सूक्ष्म पर्यावरण और अन्य सुविधाओं के आधार पर 26 तुलनीय संकेतकों का उपयोग करके मापा जाता है।
  • यह संकेतक आवास, बाथरूम, रसोई, शौचालय, पीने के पानी, अपशिष्ट निर्वहन सुविधाओं, स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन और रोग-मुक्त वातावरण आदि की उपलब्धता और गुणवत्ता का आकलन करता है।
  • वर्ष 2012 और 2018 के लिये राज्यों /केंद्रशासित प्रदेशों के लिये समग्र सूचकांक मुख्य रूप से NSO के दो राउंड 69 वें (2012) और 76 वें (2018)  से प्राप्त भारत में पेयजल, स्वच्छता और आवास स्थिति पर डेटा का उपयोग करके बनाया गया है।

समग्र BNI

  • यह स्पष्ट है कि अधिकांश राज्यों में वर्ष 2012 की तुलना में वर्ष 2018 में घरों तक बुनियादी आवश्यक वस्तुओं की पहुँच काफी बेहतर हुई है।
  • 2018 में बुनियादी आवश्यकताओं की पहुँच केरल, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उत्तराखंड, दिल्ली, गोवा, मिज़ोरम और सिक्किम जैसे राज्यों में सबसे अधिक है जबकि यह ओडिशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सबसे कम है।
  • ग्रामीण भारत में वर्ष  2018 में बुनियादी आवश्यकताओं की सबसे अधिक पहुँच पंजाब, केरल, सिक्किम, गोवा और दिल्ली में दर्ज की गई है, जबकि उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, मणिपुर और त्रिपुरा में सबसे कम दर्ज की गई है।
  • शहरी भारत में किसी भी राज्य में वर्ष 2018 में BNI का निम्नतम स्तर नहीं देखा गया है और वर्ष 2012 में इसमें सुधार प्रदर्शन करने वाले राज्यों में उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि शामिल हैं।
  • शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में सुधार काफी अधिक है।

पीने के पानी की उपलब्धता संबंधी सूचकांक

  •  पीने के पानी तक पहुँच का उप - सूचकांक , पीने के पानी की पहुँच क्षमता संबंधी सूचकांक , उप - आयाम अर्थात पेय जल के मुख्य स्रोत , पानी के स्रोत से दूरी , पहुँच की प्रकृति  और पानी निकालने की विधि से बना है। 
  • इन उप - आयामों से शामिल संकेतक उन घरों के प्रतिशत के संदर्भ में हैं , जिनके आवास में पानी की आपूर्ति पाइप से की जाती है  या पाइप से यार्ड / प्लॉट में पानी दिया जाता है । 
  • संयुक्त भारत , ग्रामीण और शहरी के लिये वर्ष 2012 और वर्ष 2018 हेतु पेयजल सुगम्यता सूचकांक में अधिकांश राज्य लाइन से ऊपर हैं , इससे यह सूचित होता कि अधिकांश राज्यों में पीने के पानी की पहुँच में वर्ष 2012 की तुलना में वर्ष 2018 में सुधार हुआ है , इसमें ग्रामीण के साथ - साथ शहरी क्षेत्र शामिल है ( ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आंध्र प्रदेश को छोड़कर )। 
  • पंजाब , हरियाणा और गुजरात जैसे राज्य शीर्ष पर हैं जबकि ओडिशा , झारखंड और आंध्र प्रदेश पेयजल पहुँच सूचकांक में सबसे नीचे हैं। 
  • वर्ष 2012 की तुलना में वर्ष 2018 में क्षेत्रीय असमानताएँ कुल मिलाकर बढ़ गई हैं भले ये विषमताएँ शहरी क्षेत्रों में घट रही हैं ऐसा इसलिये है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में ये असमानताएँ बढ़ी हैं। इसलिये जल जीवन मिशन को ग्रामीण क्षेत्रों में असमानताओं को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये क्योंकि इस तरह की असमानताओं में कमी पूरे भारत में असमानताओं को कम करेगी। 
  • वर्ष  2012 की तुलना में वर्ष 2018 में सभी समूहों के बीच , पीने के पानी की पहुँच में इक्विटी बढ़ गई।

स्वच्छता सूचकांक

  • उप - सूचकांक में प्रयुक्त संकेतक शौचालय का विशिष्ट उपयोग , शौचालय के प्रकार अर्थात् पाइप युक्त सीवर सिस्टम , सैप्टिक टैंक , ट्विन लिच पिट , सिंगल पिट तक परिवारों की पहुँच का प्रतिशत है। ये संकेतक भौतिक के साथ - साथ स्वच्छता की पहुँच की गुणवत्ता को दिखाते हैं। 
  • वर्ष 2012 की तुलना में वर्ष 2018 में ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों में अधिकांश राज्यों में स्वच्छता पहुँच में सुधार हुआ है स्वच्छता की पहुँच में क्षेत्रीय असमानताएँ कम हुई हैं क्योंकि वर्ष 2011-12 में स्वच्छता तक कम पहुँच वाले राज्यों ने सुधार किया है। 
  • हालाँकि स्वच्छता की पहुँच में अंतर - राज्य अंतर अभी भी विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ा है। 

आवास सूचकांक 

  • आवास सूचकांक न केवल घर की संरचना ( पक्का या कच्चा के संदर्भ में ) को मापता है , बल्कि आवास इकाई के प्रकार ( अलग या नहीं ) और संरचना की स्थिति ( अच्छा है या नहीं ) के संदर्भ में घर की गुणवत्ता भी बताता है।
  • शहरी क्षेत्रों में कुछ राज्यों को छोड़कर सभी राज्यों के लिये आवास की पहुँच में सुधार हुआ है। अंतर - राज्य असमानताओं में भी गिरावट आई है क्योंकि वर्ष 2012 में निम्न स्तर वाले राज्यों ने अधिक समानता प्राप्त किया है। हालाँकि , राज्यों में स्तरों में अंतराल बड़े रहे हैं खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में। 
  • आवास की पहुँच में सुधार भी सबसे अमीर लोगों की तुलना में सबसे कम आय वर्ग के लिये काफी ज्यादा रहा है , जिससे वर्ष 2012 की तुलना में वर्ष 2018 में आवास तक पहुँच के सन्दर्भ में इक्विटी में वृद्धि हुई है।

सूक्ष्म पर्यावरण सूचकांक: 

  • सूक्ष्म पर्यावरण सूचकांक उन परिवारों के प्रतिशत को मापता है जिनके खुद के घर हैं और जिनमें अपशिष्ट जल निकासी की व्यवस्था हैं ( कच्चा जल निकासी के अलावा अन्य जल के संदर्भ में जल निकासी और इसकी गुणवत्ता के संदर्भ में ) , मक्खियों मच्छरों की समस्याओं से रहित हैं और मक्खियों / मच्छरों की समस्या से निपटने के लिये स्थानीय निकायों / राज्य सरकार द्वारा किये गए प्रयासों की जाँच भी इसमें शामिल हैं।
  • वर्ष  2012 के मुकाबले वर्ष  2018 में ग्रामीण और ओडिशा और असम में शहरी क्षेत्रों को छोड़कर सभी राज्यों के लिये सूचकांक द्वारा मापे गए सूक्ष्म पर्यावरण में सुधार हुआ है। 
  • वर्ष 2018 में शहरी क्षेत्रों में क्षेत्रीय असमानताओं में तेज़ी से गिरावट आई है। ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में सूक्ष्म पर्यावरण बहुत बेहतर है और ग्रामीण - शहरी अंतराल बढे हैं। 

स्वास्थ्य परिणाम

  • आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 ने स्वच्छ भारत मिशन के लाभों को दर्शाया है , क्योंकि इससे पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में दस्त और मलेरिया के मामलों , मृत जन्में बच्चे , एक किलो से कम वजन वाले नव - जन्म बच्चों की संख्या में कमी आई है। 
  • अध्ययनों से यह पता चला है कि उन घरों में शिशु मृत्यु दर अधिक रहा है जहाँ रसोई के लिये बायोमास ईंधन का उपयोग अधिक अनुपात में किया जाता है ( रीन , और अन्य , 2007 )। पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों के मृत्यु दर और घरेलू वायु प्रदूषण के बीच निकट संबंध, संभवतः श्वसन संबंधी बीमारियों के कारण है , इसलिये सरकारी कार्यक्रमों ( नाज और अन्य , 2016 ) के माध्यम से रसोई के लिये स्वच्छ ईंधन प्रदान करने का समर्थन किया गया है। 
  • एक अलग रसोईघर होने से घर के अंदर के वातावरण में सुधार होता हैं , जिससे घर में स्वास्थ्य लाभ होता है , विशेषकर महिलाओं और बच्चों को। 
  • आवास तक पहुँच , बेहतर आवास और सुविधाएं स्वास्थ्य परिणामों के साथ निकटता से जुड़ी हुई हैं 

शिक्षा का परिणाम 

  • ज़रूरी आवश्यकताओं तक पहुँच सकारात्मक रूप से शैक्षिक संकेतकों को प्रभावित कर सकती है। शोध अध्ययन इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। यह पाया गया है कि पानी की व्यवस्था करने की गतिविधि लड़कियों के स्कूल में उपस्थिति के साथ नकारात्मक रूप से जुड़ी हुई है। 
  • स्कूलों में शौचालय होने के कारण यौवन - उम्र की लड़कियों के नामांकन में काफी वृद्धि हुई है। प्रति व्यक्ति बिजली की खपत और देशों के शिक्षा सूचकांक के उच्च स्कोर के बीच एक मज़बूत संबंध है। 
  • वास्तव में, प्रति व्यक्ति बिजली खपत और देश में शिक्षा सूचकांक के उच्च स्कोर के बीच एक मज़बूत संबंध है।
  • वर्ष 2012 और वर्ष 2018 में राज्य-वार BNI, कक्षा 9-10 और कक्षा 11-12 के लिये सकल नामांकन अनुपात के साथ सकारात्मक रूप से संबद्ध है।

निष्कर्ष

सरकार की योजनाएँ जैसे जल जीवन मिशन, स्वच्छ भारत मिशन, प्रधानमंत्री आवास योजना आदि ने नागरिकों के जीवन स्तर को ऊँचा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिससे भारत को वर्ष 2030 तक गरीबी कम करने, पीने के पानी, स्वच्छता और आवास तक पहुँच में सुधार जैसे सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम बनाया जा सके। ज़रूरतमंद आबादी का प्रभावी लक्ष्यीकरण होना चाहिये। केंद्र-राज्य और स्थानीय स्तरों पर योजना के  कार्यान्वयन में प्रभावी समन्वय होना चाहिये।