हिमालय और कश्मीर का जलवायु परिवर्तन | 12 Jul 2025
स्रोत: पी.आई.बी
लखनऊ स्थित बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पैलियोसाइंसेज (BSIP) के वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में किये गए एक अभूतपूर्व अध्ययन से पता चला है कि कश्मीर घाटी, जो अब अपनी ठंडी, भूमध्यसागरीय-प्रकार की जलवायु के लिये जानी जाती है, लगभग 4 मिलियन वर्ष पहले एक गर्म, आर्द्र उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र था।
- BSIP की स्थापना वर्ष 1946 में पैलियोबॉटनी में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिये की गई थी जिसकी इसकी आधारशिला वर्ष 1949 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी। इसे यूनेस्को का समर्थन (1951-53) प्राप्त हुआ और यह वर्ष 1969 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DSP) द्वारा वित्त पोषित एक स्वायत्त निकाय बन गया।
कश्मीर के जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन:
- अध्ययन के परिणाम: BSIP में संग्रहीत जीवाश्म पत्तियों के समृद्ध संग्रह पर आधारित यह अध्ययन, उपोष्णकटिबंधीय जीवाश्म नमूनों और कश्मीर के वर्तमान समशीतोष्ण वनस्पतियों के बीच जलवायु संबंधी विविधता के कारण किया गया, जिसने कश्मीर घाटी के जलवायु और विवर्तनिक इतिहास में अपनी वैज्ञानिक जाँच शुरू करने के लिये प्रेरित किया।
- प्रयुक्त वैज्ञानिक तकनीकें: कश्मीर की पुराजलवायु के पुनर्निर्माण के लिये, अध्ययन में दो प्रमुख विधियों का उपयोग किया गया - CLAMP (क्लाइमेट लीफ एनालिसिस मल्टीवेरिएट प्रोग्राम) का प्रयोग करते हुए, तापमान और वर्षा के प्रारूप को निर्धारित करने के लिये जीवाश्म पत्तियों के आकार, माप और किनारों की जाँच की। उन्होंने जलवायु सीमाओं का अनुमान लगाने के लिये सह-अस्तित्व दृष्टिकोण की मदद से जीवाश्म पौधों को उनके आधुनिक संबंधियों के साथ क्रॉस-चेक भी किया।
- मुख्य निष्कर्ष: कश्मीर के करेवा तलछट से प्राप्त जीवाश्म पत्तियों से पता चलता है कि घाटी में कभी हरे-भरे उपोष्णकटिबंधीय जंगल हुआ करते थे।
- कई जीवाश्म गर्म और आर्द्र जलवायु की आधुनिक प्रजातियों से मिलते जुलते हैं, जो आज की अल्पाइन और शंकुधारी वनस्पतियों से बिल्कुल अलग हैं।
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अध्ययन में इस जलवायु परिवर्तन का कारण उप-हिमालयी प्रणाली के भाग पीर पंजाल पर्वतमाला के विवर्तनिकी उत्थान (टेक्टॉनिक अपलिफ्ट) को बताया गया है।
- इस उत्थान ने भू-वैज्ञानिक अवरोध के रूप में कार्य किया, जिससे भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून अवरुद्ध हो गया, जिससे वर्षा कम हो गई और भू-वैज्ञानिक समय-सीमा में क्षेत्र की जलवायु में परिवर्तन हुआ।
- अध्ययन का महत्त्व: यह अध्ययन टेक्टोनिक गतिविधि को पारिस्थितिकी तंत्र परिवर्तन के साथ जोड़कर जलवायु मॉडलिंग को बढ़ाता है, हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता पर प्रकाश डालता है, और मानसून की गतिशीलता, हिमनदों के पिघलने और स्थलाकृति के अंतर्क्रियाओं को समझने के लिये अनुरूपता प्रदान करता है।
- यह जैवविविधता संरक्षण, आपदा तैयारी और नाजुक पर्वतीय क्षेत्रों में सतत् विकास के लिये पुराजलवायु अनुसंधान की नीतिगत प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।
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