बोनार्ड स्टैंडर्ड | 20 Sep 2025

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने बोनार्ड स्टैंडर्ड की पुनः पुष्टि की है, यह ज़ोर देते हुए कि मानहानि मामलों में, विशेषकर पत्रकारों से जुड़े मामलों में, मुकदमे से पूर्व-परीक्षण निषेधाज्ञा (Pre-trial injunction) देने के लिये कड़ी शर्तें लागू हों, ताकि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा जनहित की रक्षा की जा सके। 

बोनार्ड स्टैंडर्ड 

  • परिचय: बोनार्ड बनाम पेरीमैन (1891, यूनाइटेड किंगडम) मामले में स्थापित स्टैंडर्ड यह है कि निषेधाज्ञा केवल तभी दी जा सकती है जब न्यायालय संतुष्ट हो कि प्रतिवादी मानहानि के दावे को उचित नहीं ठहरा सकता है और यह केवल संदेह पर आधारित नहीं है। 
    • निषेधाज्ञा एक न्यायालय का आदेश है, जो किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट कार्य को करने या उसे रोकने के लिये बाध्य करता है। 
  • ब्लूमबर्ग केस, 2024: वर्ष 2024 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत या मानक को बरकरार रखा तथा ब्लूमबर्ग के खिलाफ एकपक्षीय निषेधाज्ञा को रद्द कर दिया। 
    • न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सार्वजनिक बहस की सुरक्षा के महत्त्व पर ज़ोर दिया, यह कहते हुए कि ऐसी निषेधाज्ञाएँ केवल तभी दी जानी चाहिये, जब इन्हें न देने से अधिक अन्याय होगा। 
  • अडानी मामले में उल्लंघन: दिल्ली के एक निचले न्यायालय ने पत्रकारों को अडानी एंटरप्राइजेज लिमिटेड (AEL) के बारे में कथित रूप से अपमानजनक सामग्री प्रकाशित करने से रोक दिया और वादी (अडानी) को 36 घंटे के भीतर सामग्री हटाने की मांग करने की अनुमति दी। इस मानक का उल्लंघन निम्नलिखित द्वारा किया गया: 
    • पत्रकारों का पक्ष सुने बिना ही एकपक्षीय अंतरिम निषेधाज्ञा जारी करना। 
    • प्रकाशन पर ‘पूर्व प्रतिबंध’ के रूप में कार्य करना, जिसे अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत मौलिक अभिव्यक्ति के अधिकार पर असंवैधानिक प्रतिबंध माना जाता है। 
  • कानूनी ढाँचा: 
    • संविधान का अनुच्छेद 19(2) मानहानि सहित वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंधों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। हालाँकि, प्रतिबंधों का औचित्य सिद्ध होना आवश्यक है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने बिना उचित सुनवाई के एकपक्षीय निषेधाज्ञा देने की बार-बार आलोचना की है और वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा जनता के जानने के अधिकार पर इसके गंभीर परिणामों पर ज़ोर दिया है। 

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