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क्या सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर पाएगा नया राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग? | 08 Apr 2017 | अंतर्राष्ट्रीय संबंध

विदित हो कि केंद्र सरकार ने पिछड़ा वर्ग के लिये नया राष्ट्रीय आयोग बनाने के लिये लोक सभा में 123वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश किया है। विधेयक में यह भी प्रावधान है कि आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए। उल्लेखनीय है कि “सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग” के नाम से बनाया जा रहा यह आयोग “पिछड़ा वर्ग आयोग” की जगह लेगा। “सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग” यह नाम संवैधानिक शब्दावली के अनुरूप है, गौरतलब है कि वर्ष 1951 में जवाहरलाल नेहरू ने अनुच्छेद 15 (4) में इसी नाम पर बल दिया था। आरक्षण भारत में एक संवेदनशील मुद्दा है, जहाँ इसके उल्लेख मात्र से कहीं सरकारें बन जाती हैं तो कहीं बिगड़ भी जाती हैं। ऐसे में इस आयोग के उद्देश्य और कार्यों की समीक्षा करना अत्यंत ही ज़रूरी हो जाता है।

पृष्ठभूमि

क्यों लाया जा रहा है नया आयोग?

आयोग के मुख्य कार्य

समस्याएँ और चुनौतियाँ

क्या किया जाना चाहिये?

• अध्यक्ष के रूप में एक पूर्व न्यायाधीश।
• सदस्य सचिव के रूप में एक केंद्रीय सचिव स्तर का अधिकारी।
• एक सामाजिक वैज्ञानिक।
• सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों से संबंधित मामलों की विशेष जानकारी रखने वाले दो व्यक्ति।

निष्कर्ष
नया पिछड़ा आयोग बनाने का मामला हमेशा ही एक जटिल और गंभीर मसला रहा है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जहाँ गुजरात में व्यापक पाटीदार आंदोलन के चलते आनंदीबेन को अपनी कुर्सी गँवानी पड़ गई थी वहीं हरियाणा में जाट आन्दोलन के दौरान करोड़ों की सरकारी और निजी सम्पति बर्बाद कर दी गई। दरअसल, पिछड़े वर्गों के लिये नया आयोग बनाने के फैसले के पीछे राजनीतिक मकसद के लोभ से बच पाना आसान नहीं है, लेकिन यह अतिमहत्त्वपूर्ण है कि इसमें शैक्षणिक पिछड़ेपन की हकीकत को शिद्दत से स्वीकार किया गया है। बहुत देर से हमें यह अहसास हुआ है कि देश में शैक्षणिक पिछड़ापन भी मौजूद है जो असल में सामाजिक पिछड़ेपन का ही उपोत्पाद( by-product) है।