श्रम कानूनों में सुधार की आवश्यकता | 12 May 2020

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में श्रम कानूनों में सुधार व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

भारत में कई वर्षों से श्रम क्षेत्र में सुधारों की मांग की जाती रही है, ये मांग न सिर्फ उद्योगों की ओर से बल्कि समय-समय पर श्रमिक संगठनों की ओर से भी की जाती रही है। किंतु विभिन्न हितधारकों के हितों को एक साथ संबोधित करना संभव नहीं हो पाने के कारण श्रम सुधार उपेक्षित ही रहे हैं। भारत में व्यवसाय को सुगम बनाने तथा विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिये भी श्रम सुधारों को ज़रुरी माना जाता है। उदारवादी आर्थिक विशेषज्ञ भी श्रम सुधारों के पैरोकार रहे हैं। कई आर्थिक जानकारों का तो यहाँ तक मानना रहा है कि श्रम कानूनों के कठोर नियमों की वजह से ही न सिर्फ औद्योगिक उत्पादन पर विपरीत असर पड़ा है बल्कि विदेशी कंपनियाँ भी भारत में निवेश करने में संकोच कर रही हैं।

अर्थव्यवस्था में इन सुधारों के मांग के क्रम में ही कोरोना वायरस के प्रसार ने व्यापक प्रभाव डाला है। वर्तमान में आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह से बंद हैं। इस समय जहाँ उद्योगों के समक्ष कार्य संचालन की समस्या है तो वहीं श्रमिकों के समक्ष रोज़गार का संकट है। ऐसी स्थिति में सरकार उद्योगों का कार्य संचालन प्रारंभ करना चाहती है परंतु तमाम उद्योगपति जटिल श्रम कानूनों के कारण उद्योगों को प्रारंभ करने में सशंकित हैं। ऐसे में कई राज्यों द्वारा किये जा रहे श्रम कानूनों में बदलाव अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से सकारात्मक कदम साबित हो सकते हैं।

इस आलेख में श्रम कानून, उनमें परिवर्तन की आवश्यकता, भारत में श्रम बाज़ार की समस्या तथा अन्य देशों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाएगा।    

श्रम कानूनों से तात्पर्य 

  • श्रम अधिनियम या श्रम कानून किसी राज्य द्वारा निर्मित उन कानूनों को कहते हैं जो श्रमिक (कार्मिकों), रोजगार प्रदाताओं, ट्रेड यूनियनों तथा सरकार के बीच संबंधों को परिभाषित करती हैं। श्रमिक, समाज के विशिष्ट समूह होते हैं। इस कारण श्रमिकों के लिये बनाए गये विधान, सामाजिक विधान की एक अलग श्रेणी में आते हैं।

पृष्ठभूमि 

  • कोरोनो वायरस के प्रसार को रोकने के लिये जारी लॉकडाउन के बीच उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात सहित कई राज्यों ने अध्यादेशों या कार्यकारी आदेशों के माध्यम से श्रम कानूनों में परिवर्तन की नींव रखी है।
  • विदित है कि ‘श्रम’ भारत के संविधान के अंतर्गत समवर्ती सूची का एक विषय है। राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित कानूनों को लागू कर सकते हैं, लेकिन उन्हें केंद्र सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी।

राज्य सरकारों द्वारा किये गए परिवर्तन 

  • उत्तर प्रदेश सरकार ने अगले तीन वर्षों के लिये कुछ प्रमुख श्रम कानूनों को छोड़कर लगभग 35  श्रम कानूनों के प्रावधानों से व्यवसायों को छूट देने वाले अध्यादेश को मंज़ूरी दे दी है।
  • औद्योगिक विवादों, व्यावसायिक सुरक्षा, श्रमिकों के स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति, ट्रेड यूनियनों, अनुबंध श्रमिकों और प्रवासी मज़दूरों से संबंधित श्रम कानूनों के प्रावधान निर्धारित  समय के लिये प्रचलन में नहीं रहेंगे। 
  • हालाँकि, बंधुआ मज़दूरी, बच्चों व महिलाओं के नियोजन संबधित श्रम अधिनियम और वेतन संदाय अधिनियम से संबंधित कानूनों में कोई छूट नहीं दी जाएगी। 
  • उत्तर प्रदेश सरकार ने उद्योगों को शुरू करने के लिये ली जाने वाली अनापत्ति प्रमाणपत्र (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) ऑटोमोड पर करने की तैयारी की है इसके तहत अब व्यापारियों को उद्योग शुरू करने के लिये विभागों के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे 
  • उत्तर प्रदेश सरकार ने 90 लाख रोज़गार सृज़न के लिये ‘एक जिला एक उत्पाद’ योजना को बढ़ावा देने का प्रस्ताव रखा है
  • मध्यम, सूक्ष्म तथा लघु उद्योगों को स्थापित करने के लिये राज्य सरकार द्वारा ऋण देने की भी व्यवस्था की जा रही है   
  • श्रम कानूनों में मौज़ूदा परिवर्तन पुराने कारोबार तथा राज्य में स्थापित किये जा रहे नए कारखानों पर लागू होगा। 
  • इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार ने भी अगले 1000 दिनों के लिये कई श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है। इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण संशोधन इस प्रकार हैं: 
    • नियोक्ता कर्मचारियों की सहमति से कारखानों में काम की अवधि 8 से 12 घंटे तक बढ़ा सकते हैं। सप्ताह में ओवरटाइम की अवधि अधिकतम 72 घंटे तक सुनिश्चित की जाएगी।
    • कारखानों का पंजीकरण 30 दिनों के बजाय अब एक दिन में किया जाएगा। इसके साथ ही लाइसेंस का  नवीनीकारण अब प्रतिवर्ष करने के स्थान पर 10 वर्षों बाद किया जाएगा। उपर्युक्त प्रावधान का अनुपालन नहीं करने वाले अधिकारियों पर जुर्माने का भी प्रावधान है।
    • औद्योगिक इकाइयों को औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अधिकांश प्रावधानों से छूट दी जाएगीजैसे- संगठन अपनी सुविधानुसार श्रमिकों को सेवा में रखने में सक्षम होंगे तथा श्रम विभाग या श्रम न्यायालय, उद्योगों द्वारा की गई कार्रवाई में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। 
    • 50 से कम श्रमिकों को नियुक्त करने वाले ठेकेदार अनुबंध श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970 के तहत पंजीकरण के बिना भी कार्य करने में सक्षम होंगे।
  • राज्य में स्थापित होने वाली नई औद्योगिक इकाइयों के लिये प्रमुख छूट हैं: 
    • नई औद्योगिक इकाइयों को पंजीकरण करने और समय-समय पर होने वाले निरीक्षण की औपचारिकताओं से छूट दी गई है और अपनी सुविधानुसार औद्योगिक इकाइयों के कार्य संचालन का समय निर्धारित करने की भी शक्ति दी गई है। 
    • श्रम कानूनों के उल्लंघन के मामले में नियोक्ता को दंड से भी छूट प्रदान की गई है।

सरकार का पक्ष  

  • राज्यों में निवेश को आकर्षित करने और औद्योगिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिये श्रम कानूनों का उदारीकरण करना बहुत आवश्यक है।
  • इन प्रयासों के द्वारा ही मौजूदा कार्मिकों के रोज़गार की रक्षा और उन श्रमिकों को रोज़गार प्रदान करने की संभावना है जो अपने राज्यों में वापस चले गए हैं। 
  • लंबे चलने वाले इस संकट के दौरान प्रशासनिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता लाना और संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था की चुनौतियों को अवसरों में बदलना होगा।
  • COVID-19 के कारण जारी लॉकडाउन के दौरान औद्योगिक इकाइयों को बंद करने के कारण गिरने वाले राज्यों के राजस्व को बढ़ाने के लिये यह एक कारगर विकल्प साबित होगा।
  • श्रम सुधार का विचार अचानक से नहीं आया है बल्कि यह लंबे समय से उद्योगों की मांग रही है। वर्तमान में परिवर्तन आवश्यक हो गए थे क्योंकि निवेशक जटिल कानूनों और लालफीताशाही के जाल में फँस गए थे।
  • इस संकट के दौरान तमाम कंपनियाँ चीन से बाहर निकल रही हैं, ऐसे में उन कंपनियों तथा विदेशी निवेशकों को भारत में निवेश के लिये आकर्षित करने हेतु श्रम कानूनों में सुधार की आवश्यकता थी।
  • वर्तमान में  24.6 प्रतिशत की भारी बेरोज़गारी दर का सामना कर रहे राज्यों के लिये रोज़गार सृजन का यह एक बेहतरीन अवसर साबित हो सकता है।

चिंताएँ  

  • उत्तर प्रदेश सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम सहित लगभग सभी श्रम कानूनों को सरसरी तौर पर निलंबित कर दिया है। इसलिये इस कदम को ‘शोषण के लिये एक सक्षम वातावरण निर्मित करने’ के रूप में देखा जाना स्वाभाविक है।
  • श्रम कानूनों के निलंबन से मज़दूर, पूँजीपतियों पर पूरी तरह से निर्भर हो गए जिससे बंधुआ मज़दूरी के एक नए स्वरुप में प्रचलित होने की प्रबल संभावनाएँ हैं
  • श्रम कानूनों के निष्प्रभावी होने से मज़दूरों को मिलने वाली समस्त सुविधाएँ जैसे- भविष्य निधि, बोनस, न्यूनतम मज़दूरी, स्वास्थ्य सुरक्षा आदि निष्प्रभावी हो गईं हैं
  • संशोधित श्रम सुधारों के द्वारा मजदूरों को प्राप्त होने वाली सामाजिक सुरक्षा से भी समझौता किया गया है, जो निश्चित तौर पर एक चिंता का विषय है
  • श्रम कानूनों के निष्प्रभावी होने से संगठित क्षेत्र के रोज़गार भी असंगठित क्षेत्र के रोज़गार में परिवर्तित हो जाएँगे। जिससे मज़दूरी दर में तीव्र गिरावट आएगी।

क्या वास्तव में संशोधन रोज़गार को बढ़ावा देंगे?

  • सैद्धांतिक रूप से, कम श्रम विनियम वाले बाज़ार में अधिक रोज़गार उत्पन्न करना संभव है।
  • हालाँकि, जैसा कि अतीत में श्रम कानूनों में ढील देने वाले राज्यों के अनुभव बताते हैं कि श्रमिक संरक्षण कानून, निवेश को आकर्षित करने और रोज़गार बढ़ाने में विफल रहे हैं।
  • यदि यह सुनिश्चित करने का इरादा था कि अधिक लोगों को रोज़गार मिले, तो राज्यों को काम  की अवधि 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे नहीं करनी चाहिये थी। 
  • उन्हें इसके बजाय प्रत्येक 8-घंटे की दो शिफ्ट की अनुमति देनी चाहिये थी, ताकि अधिक लोगों को रोज़गार मिल सके।  

अन्य देशों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया

  • बांग्लादेश में श्रम कानूनों के तहत ट्रेड यूनियन शुरू करने के लिये श्रम बल के 30 प्रतिशत की सहमति की दरकार होती है। वहाँ निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों में कानूनी रूप से श्रमिक संगठन स्थापित करने की अनुमति नहीं है। इसी तरह, विदेशी भागीदारी में स्थापित कारखानों में आरंभिक तीन वर्षों में हड़ताल की अनुमति नहीं है। इसके विपरीत भारत में ट्रेड यूनियन का काफी दबदबा है, जिससे भारत में हमेशा आर्थिक उत्पादन प्रभावित होता रहा है। 
  • वियतनाम ने भी एक नई श्रम नीति बनाई है। वर्ष 2021 से प्रभावी होने वाली इस नीति के तहत कंपनियों को अपने स्तर पर वेतन-भत्ते तय करने की अधिक स्वतंत्रता होगी, साथ ही सरकारी हस्तक्षेप या प्रशासनिक निपटान की जगह आंतरिक सुलह प्रक्रिया को बढ़ावा देकर विवाद सुलझाने के तंत्र को अधिक लचीला बनाया जाएगा। 
  • चीन में वर्ष 1980 के दशक में जब पूंजीवादी आधुनिकीकरण की शुरुआत हुई तो तमाम तरह के सुधारों को संस्थागत रूप दिया गया। जिनमें जीवन भर के लिये रोज़गार के प्रावधान, केंद्रीयकृत वेतन-भत्ता निर्धारण व्यवस्था तथा प्रबंधकीय कर्मियों की नियुक्ति और प्रोन्नति की प्रणाली को समाप्त करना शामिल था। जिससे चीन में औद्योगिक गतिविधियों में तेज़ी आई। उत्पादन बढ़ने के साथ ही चीन को विदेशी निवेश प्राप्त हुआ और उदारीकृत श्रम सुधारों के द्वारा चीन शीघ्र ही विनिर्माण का केंद्र बनकर उभरा। 

आगे की राह  

  • वर्तमान स्थितियों को ध्यान में रखते हुए आर्थिक गतिविधियों को प्रारंभ करना आपूर्ति श्रृंखला को निर्बाध रूप से चलाए रखने के लिये आवश्यक है, इसलिये उदारीकृत श्रम सुधारों की आवश्यकता है।
  • श्रम सुधारों के ज़रिये ही विदेशी निवेशकों को आकर्षित किया जा सकता है, जो इस समय रोज़गार सृजन के लिये अतिआवश्यक है।
  • सरकार को श्रम कानूनों में सुधार करते समय मजदूरों के हितों को भी ध्यान में रखना चाहिये ताकि उन पर इन सुधारों का प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।

प्रश्न- वैश्विक महामारी के प्रभाव से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिये किये जा रहे श्रम सुधारों का मूल्यांकन कीजिये।