अमेरिकी नीतियों और हस्तक्षेप से मध्य-पूर्व में बढ़ता संकट | 31 May 2019

टीम दृष्टि द्वारा तैयार किये गए इस Editorial में ईरान को लेकर अमेरिकी नीति में आई आक्रामकता का विश्लेषण किया गया है। साथ ही पश्चिम एशिया में अमेरिकी नीति से एशिया के भू-अर्थशास्त्र पर पड़ने वाले प्रभाव पर भी प्रकाश डाला गया है।

संदर्भ

कुछ समय पूर्व अमेरिका ने ईरान को कड़ी चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर उसने अमेरिकी हितों पर हमला किया तो उसे तबाह कर दिया जाएगा। इसके जवाब में ईरान से होने वाली किसी भी प्रतिक्रिया के मद्देनज़र अमेरिका ने पश्चिम एशिया में पहले ही विमानवाहक पोत और बमवर्षक विमान तैनात कर दिये हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप स्पष्ट कह चुके हैं कि ईरान अगर युद्ध चाहता है तो उसका आधिकारिक तौर पर अंत हो जाएगा। ट्रंप हालाँकि यह भी कह चुके हैं कि ईरान के साथ अमेरिका युद्ध नहीं चाहता।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र

मध्य-पूर्व एशिया अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का ऐसा केंद्र बन गया है जहाँ अमेरिका और रूस जैसी बड़ी वैश्विक ताकतें अपने आर्थिक हितों के लिये इस क्षेत्र को अस्थिर करने की रणनीति पर काम करती रही हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मध्य-पूर्व की तेल कूटनीति ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को काफी प्रभावित किया है। इसी तेल के चलते ईरान की मरुभूमि भी सोना उगलने वाली बन गई है, लेकिन साथ ही इस क्षेत्र की यह विशेषता मध्य-पूर्व की अशांति का कारण भी बन गई है।

खाड़ी सहयोग परिषद की आपात बैठक

अभी हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात के तट पर चार तेल टैंकरों को निशाना बनाया गया और सऊदी अरब की एक तेल पाइपलाइन पर ड्रोन से हमला भी हुआ था। सऊदी अरब ने इसके लिये ईरान को ज़िम्मेदार ठहराया था। इन हमलों से क्षेत्र में उत्पन्न तनाव पर चर्चा करने के लिये सऊदी अरब ने 30 मई को खाड़ी सहयोग परिषद की आपात बैठक भी बुलाई।

इस बैठक के बाद सऊदी अरब के शाह सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ अल सऊद ने ईरान के परमाणु तथा बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा बताया। खाड़ी सहयोग परिषद की मक्का में बुलाई गई आपातकालीन बैठक में सऊदी अरब के शाह ने कहा कि ईरान की कार्रवाइयों ने संयुक्त राष्ट्र की संधियों का उल्लंघन कर अंतरराष्ट्रीय समुद्री व्यापार और वैश्विक तेल आपूर्ति के लिए बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। ईरान अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है तथा अपने परमाणु कार्यक्रम के ज़रिये वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रहा है।

अमेरिका और ईरान के बीच है तनातनी

जब से अमेरिका परमाणु समझौते से बाहर आया है तभी से दोनों देशों के बीच संबंध तनावपूर्ण बने हुए हैं और इनमें कोई सुधार आने की संभावना दिखाई नहीं देती। हिंसा से अभिशप्त मध्य-पूर्व को एक बार फिर अशांति की ओर धकेला जा रहा है। इस बार अमेरिका के निशाने पर ईरान है। अमेरिका ने ईरान पर चोरी-छिपे परमाणु कार्यक्रम चलाने का आरोप लगा कर न केवल उससे अपनी संधि को खत्म कर दिया है, बल्कि हाल ही में भारत और चीन जैसे चुनिंदा देशों पर से भी ईरान से तेल खरीदने की छूट वापस लेकर ईरान की अर्थव्यवस्था को तबाह करने की अपनी निर्णायक चाल चल दी है। अमेरिका के इस कदम से ईरान तेल का निर्यात नहीं कर पा रहा है और उसकी अर्थव्यवस्था पर इसका असर पड़ने लगा है।

तेल के संदर्भ में अमेरिका की विदेश नीति

पिछले लगभग सौ सालों से पश्चिम एशिया के भूगोल, राजनीति, सुरक्षा और स्थिरता जैसे सभी आयाम तेल और पेट्रोलियम (Black Gold) पर ही केंद्रित रहे हैं। प्रथम विश्व युद्ध (1914-1919) से लेकर 2003 के द्वितीय खाड़ी युद्ध तक मध्य-पूर्व में हुई तमाम हलचलें और समकालीन समय में ‘अरब स्प्रिंग’, सीरियाई गृहयुद्ध, ईरान पर प्रतिबंध आदि सभी घटनाएँ व अराजकता पेट्रो-डॉलर का प्रभुत्व बनाए रखने की अमेरिकी मंशा का ही परिणाम हैं। लेकिन यह अकेले केवल मध्य-पूर्व को ही प्रभावित नहीं कर रहा, बल्कि यह ‘राइजिंग एशिया’ को भी बाधित तथा नियंत्रित कर रहा है।

पेट्रो-डॉलर क्या है?

  • उस अमेरिकी डॉलर को पेट्रो-डॉलर कहा जाता है जो तेल-निर्यातक देशों को तेल के बदले भुगतान किया जाता है।
  • वर्ष 1944 के ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में अमेरिकी डॉलर को विश्व की सबसे सुरक्षित मुद्रा माना गया था क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में सबसे अधिक सोना अमेरिका के ही पास माना जाता था।
  • अमेरिकी डॉलर को सोने में आँका जाता है, जबकि अन्य सभी मुद्राएँ डॉलर में आँकी जाती हैं।
  • 1971 में अमेरिकी मुद्रास्फीतिजन्य मंदी (Stagflation) की वज़ह से यूनाइटेड किंगडम ने अपने पास मौजूद अधिकांश अमेरिकी डॉलरों के बदले सोना खरीद लिया।

पेट्रो-डॉलर रिसाइक्लिंग

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने शेष अमेरिकी स्वर्ण भंडार को सुरक्षित रखने के लिये डॉलर को स्वर्ण मानक से अलग कर दिया। इसने ‘पेट्रो-डॉलर रिसाइकलिंग’ की अवधारणा को जन्म दिया। वर्ष 1973 में अमेरिका-सऊदी समझौते से तेल के सबसे बड़े आपूर्तिकर्त्ता सऊदी अरब ने तेल अनुबंधों के लिये अमेरिकी डॉलर के उपयोग पर सहमति जताई। इसका लाभ यह हुआ कि अमेरिकी कंपनियों के साथ अनुबंध के माध्यम से अमेरिकी डॉलर पुनरावर्तित होकर वापस अमेरिका लौट जाता है। इस प्रकार मध्य-पूर्व के संबंध में समग्र अमेरिकी विदेश नीति पेट्रो-डॉलर का प्रभुत्व बनाए रखने पर केंद्रित है और यही कारण है कि अमेरिका वैश्विक तेल की आपूर्ति में अपना एकछत्र प्रभाव बनाए रखना चाहता है।

हिंसा की कूटनीति

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘हिंसा की कूटनीति’ का उपयोग महाशक्तियाँ बदले की नीति के तौर पर करती रही हैं। इस आक्रामक नीति का एकमात्र लक्ष्य दुश्मन पर विजय पाना रहा है। इसलिये प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिये युद्धोन्माद, आर्थिक प्रतिबंध, खतरनाक हथियारों की तैनाती जैसी कोशिशें की जाती हैं, ताकि वह राष्ट्र अस्थिरता की ओर बढ़ जाए और दबाव में आकर महाशक्तियों के आगे झुक जाए।

आर्थिक के साथ सामरिक दबाव भी

अमेरिका ने ईरान पर आर्थिक के साथ सामरिक दबाव बढ़ाने के लिये ईरान के धुर विरोधी देश सऊदी अरब के साथ आठ अरब डॉलर के हथियार सौदे को मंज़ूरी दे दी है। इन हथियारों में अत्याधुनिक युद्ध सामग्री और आधुनिक बम शामिल हैं। इसके साथ ही अमेरिका ने अपने युद्धपोत भी तैनात कर दिये हैं। इराक से अमेरिकी नागरिकों को वापस लौटने को कह दिया गया है। अमेरिका के इस कदम से मध्य-पूर्व में पहले से ही जो अस्थिरता बनी हुई है, उसमें और वृद्धि हुई।

ईरान के प्रति अमेरिकी नीति में आक्रामकता का एक प्रमुख कारण अमेरिका का इज़राइल के प्रति झुकाव भी रहा है। पश्चिम एशिया में इज़राइल के अस्तित्व को नकारने वाला ईरान मध्य-पूर्व का ऐसा देश है, जिससे अरब के सुन्नी देश, इज़राइल और अमेरिका भी परेशान रहते हैं। शिया बहुल ईरान धार्मिक कारणों से सऊदी अरब के निशाने पर है और सामरिक दृष्टि से वह इज़राइल का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता है, जबकि अमेरिका के लिये ईरान शैतान की धुरी है।

इज़राइल सामने लाया ‘प्रोजेक्ट अमाद’ की हकीकत

ईरान की पोल खोलने में इज़राइल को वर्ष 2018 में तब सफलता मिली जब उसने ईरान के गोपनीय परमाणु हथियार कार्यक्रम ‘प्रोजेक्ट अमाद’ की हकीकत को बेहद सनसनीखेज तरीके से दुनिया के सामने पेश किया। इज़राइल ने अपनी खुफिया एजेंसी मोसाद के ज़रिये ईरान के परमाणु कार्यक्रम का खुलासा कर दिया था। इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने यह दावा किया था कि ईरान परमाणु समझौते का उल्लंघन कर परमाणु हथियारों का निर्माण कर रहा है। इस खुलासे के चलते अमेरिका ने ईरान के साथ वर्ष 2015 में हुए परमाणु समझौते से स्वयं को अलग करते हुए इसे अप्रासंगिक और बेकार बताकर एक नया वैश्विक कूटनीतिक संकट खड़ा कर दिया। इसके बाद अमेरिका ने ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंधों में दी गई रियायतें वापस लेते हुए उसे पुन: लागू कर दिया।

बड़ी वैश्विक शक्तियों और ईरान के बीच हुआ समझौता

  • वर्ष 2015 में ओबामा प्रशासन में हुए एक समझौते के तहत ईरान द्वारा हथियार खरीदने पर पाँच वर्ष तक प्रतिबंध लगाया गया था। साथ ही मिसाइल प्रतिबंधों की समय-सीमा आठ साल तय की गई थी। इसके बदले में ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को काफी धीमा कर दिया था और इसकी निगरानी अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षकों से कराने पर सहमत हो गया था।
  • जनवरी 2016 में शुरू हुए इस समझौते को ‘जॉइंट एंड कंप्लीट एक्शन प्लान’ का नाम दिया गया था। इस समझौते पर जर्मनी, चीन, अमेरिका, फ्राँस, ब्रिटेन और रूस के साथ ईरान ने हस्ताक्षर किये थे, जिसके तहत ईरान पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के बदले उसे परमाणु कार्यक्रमों पर नियंत्रण लगाना था।
  • ईरान के साथ इस समझौते में अन्य वैश्विक शक्तियाँ भी शामिल हुई थीं और इस परमाणु समझौते को मध्य-पूर्व में शांति स्थापना की दिशा में उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम माना गया था।
  • यहाँ एक अन्य बात जो काबिलेगौर है वह यह कि सऊदी अरब की इस्लामिक देशों का सर्वमान्य नेतृत्व करने की चाहत ने भी मध्य-पूर्व की शांति को संकट में डाला है।

सऊदी अरब और ईरान के बीच टकराव

  • अमेरिका और ईरान के बीच नवीनतम तनाव को लेकर यह जगजाहिर है कि ईरान को अस्थिर करने में सऊदी अरब का सबसे बड़ा हाथ है।
  • सऊदी अरब और ईरान का धार्मिक-वैचारिक टकराव मध्य-पूर्व के कई देशों को प्रभावित करता रहा है।
  • यमन में चल रहे गृहयुद्ध में सऊदी अरब भी शामिल है। वहाँ सऊदी अरब के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन की सेना हूथी (Houthi) विद्रोहियों से मुकाबला कर रही है।
  • सऊदी अरब यह मानता है कि हूथी विद्रोहियों को ईरान से हथियार तथा अन्य मदद मिल रही है।
  • सीरिया में जारी गृहयुद्ध में ईरान वहाँ के राष्ट्रपति बशर अल-असद का समर्थन कर रहा है, जिन्हें रूस का समर्थन हासिल है।
  • पश्चिम एशिया के एक और देश लेबनान में अस्थिरता है और यहाँ ईरान समर्थित शिया मिलिशिया समूह हिजबुल्ला का प्रभाव सऊदी अरब को परेशान करने के लिये काफी है।
  • यमन, सीरिया और लेबनान में ईरान का सामरिक मित्र रूस है और इसीलिये मध्य-पूर्व में नियंत्रण स्थपित रखने के लिये दोनों महाशक्तियाँ आमने-सामने हैं।

ऐसे में यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि मध्य-पूर्व में ईरान को लेकर बढ़ता संकट विश्व शांति के लिये बड़ी चुनौती बन सकता है। अमेरिका को उम्मीद है कि वह ईरान को एक नए परमाणु समझौते के लिये विवश कर देगा, जिसमें बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम पर अंकुश लगाना भी शामिल होगा। फिलहाल प्रतिबंधों के चलते ईरान की अर्थव्यवस्था और मुद्रा रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ पहुँची है और महँगाई चरम पर पहुँच गई है।

विश्व की सबसे बड़ी सामरिक शक्ति होने के कारण अमेरिका सदा रणनीतिक पहल करने की स्थिति में रहता है। अपने राजनीतिक लक्ष्यों को वह इस तरह प्रस्तुत करता है कि विश्व के हित और सुरक्षा की दिशा में वे ही एकमात्र विकल्प दिखाई देते हैं। अमेरिकी आक्रामकता के कारण सारी बहस उसके सुझाए विकल्प पर सीमित हो जाती है तथा इसके पीछे अमेरिका के दूरगामी रणनीतिक लक्ष्य क्या हैं इस पर बहस नहीं होती।

अभ्यास प्रश्न: “मध्य-पूर्व में अमेरिकी नीति इस क्षेत्र में अस्थिरता का एक बड़ा कारण है। अमेरिका और ईरान के बीच चल रहा वर्तमान विवाद स्थिति को और जटिल बना रहा है।” कथन की विवेचना कीजिये।