अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव और पेरिस समझौते का भविष्य | 05 Nov 2020

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में पेरिस समझौते से अमेरिका के अलग होने और जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों पर इसके प्रभावों व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

4 नवंबर, 2020 को संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) इस दशक में जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर चुनौती से निपटने की सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय पहल ‘पेरिस समझौते’ से औपचारिक रूप से अलग हो गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लंबे समय से इस समझौते की आलोचना करते रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस समझौते को अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिये हानिकारक बताया तथा अमेरिकी उद्योगों और श्रमिकों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस समझौते में आवश्यक बदलाव की मांग की है। हाल के वर्षों में विश्व के अधिकांश देशों के बीच संरक्षणवादी विचारधारा की वृद्धि और महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की भूमिका पर उठते प्रश्नों के बीच अमेरिका जैसे बड़े देश के पेरिस समझौते से अलग होने पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के साझा वैश्विक प्रयासों को भारी क्षति पहुँचेगी।

पेरिस समझौता (Paris Agreement):

  • पेरिस समझौता, जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिये विश्व के सभी देशों को एक साथ लाने हेतु किया गया एक समझौता है।
  • दिसंबर 2015 में विश्व के 195 देशों ने ‘वैश्विक स्तर पर तापमान में हो रही औसत वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2°C तक सीमित रखने और इस वृद्धि को 1.5°C तक नियंत्रित करने के प्रयासों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किये।
  • साथ ही इस समझौते में शामिल सभी सदस्यों ने ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (Nationally Determined Contribution- NDC) के माध्यम से अपने सर्वोत्तम प्रयासों को आगे बढ़ाने तथा आने वाले वर्षों में इसे और अधिक मज़बूत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
  • इस समझौते के तहत जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिये समृद्ध और विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता प्रदान करने की बात कही गई है।
  • इस समझौते के तहत विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिये वर्ष 2020 से 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर वार्षिक की आर्थिक सहायता देने पर सहमति व्यक्त की है।
  • यह समझौता 4 नवंबर, 2016 को लागू हुआ तथा यह क्योटो प्रोटोकॉल (विस्तारित अवधि वर्ष 2020 तक) का स्थान लेगा।

‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (Nationally Determined Contribution- NDC):

  • पेरिस समझौते के अनुच्छेद-2 के तहत सभी सदस्य देशों को जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने हेतु अपने राष्ट्रीय उत्सर्जन को कम करने के साथ अन्य प्रयासों के संदर्भ में अपना राष्ट्रीय योगदान निर्धारित करने, इसका पालन करने और निरंतर जानकारी साझा करने की बात कही गई है।
  • NDC के तहत सभी देशों के योगदान के आधार पर ही पेरिस समझौते के लक्ष्य की प्राप्ति की संभावनाओं का अनुमान लगाया जा सकेगा।
  • भारत द्वारा NDC के तहत वर्ष 2030 तक अपनी जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2005 के स्तर से 33-35% तक घटाने, वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से लगभग 40 प्रतिशत संचयी बिजली उत्पादन क्षमता प्राप्त करने तथा अतिरिक्त वन एवं वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्‍य अतिरिक्त कार्बन सिंक (Carbon Sink) तैयार करने का लक्ष्य रखा गया है।

पेरिस समझौते से अलग होने की प्रक्रिया:

  • पेरिस समझौते के अनुच्छेद-28 के तहत इस समझौते से किसी सदस्य देश के अलग होने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है।
  • इसके अनुसार, कोई भी सदस्य देश इस समझौते के लागू होने की तिथि (4 सितंबर, 2016) से तीन वर्ष बाद ही इससे अलग होने का नोटिस दे सकता है तथा नोटिस देने के एक वर्ष बाद ही संबंधित देश को इस समझौते से अलग माना जाएगा।

पेरिस समझौते का महत्त्व:

  • पिछले कुछ दशकों में तकनीकी विकास और तीव्र औद्योगीकरण से वैश्विक तापमान की वृद्धि दर में तेज़ी से उछाल देखने को मिला है।
  • वायुमंडल के तापमान में अनियंत्रित रूप से हो रही वृद्धि के कारण विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव, सूखा और बाढ़ जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा है।
  • वायुमंडलीय तापमान में हो रही इस वृद्धि के कारण ध्रुवीय ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं जिससे समुद्री जल स्तर बढ़ने के कारण कई तटवर्ती देशों/शहरों (जैसे-इंडोनेशिया में जकार्ता) के जलमग्न होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
  • वाहनों और उद्योगों से निकलने वाले हानिकारक धुएँ से वायु प्रदूषण बढ़ने के साथ मनुष्यों, जीव-जंतुओं, फसलों और अन्य वनस्पतियों में अनेक प्रकार की बीमारियों के मामलों में वृद्धि हुई है।
  • पेरिस समझौते के तहत न सिर्फ हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को कम करने की बात कही गई है बल्कि भविष्य में वैश्विक अर्थव्यवस्था को कार्बन शून्य बनाने की रूपरेखा भी प्रस्तुत की गई है।

पेरिस समझौते से अमेरिका के अलग होने का कारण:

  • औद्योगिक क्षति: अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने इस समझौते को अमेरिकी हितों के खिलाफ बताया था और इसे आर्थिक रूप से क्षतिकारक बताते हुए यह भी दावा किया कि इस समझौते के कारण अमेरिका में वर्ष 2025 तक 25 लाख नौकरियाँ नष्ट हो सकती हैं।
    • गौरतलब है कि वर्ष 2019 में अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा खनिज तेल उत्पादक देश बन गया था, साथ ही अमेरिका का कोयला उद्योग भी रोज़गार का एक बड़ा स्रोत है। ऐसे में पेरिस समझौते की नीतियाँ अमेरिकी उद्योगों के हितों से सामंजस्य नहीं रखती।
  • निष्पक्षता का अभाव: अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह भी आरोप लगाया कि यह समझौता भारत और चीन जैसे बड़े उत्सर्जक देशों को उत्सर्जन जारी रखने का फ्री पास प्रदान करता है।
  • जलवायु परिवर्तन की अस्वीकार्यता: अमेरिकी राष्ट्रपति ने कई मौकों पर जलवायु परिवर्तन और इसके लिये मानवीय गतिविधियों के उत्तरदायी होने को अस्वीकार किया है। इसके साथ ही उनकी ‘अमेरिका प्रथम’ (America First) की नीति को भी इस निर्णय के पीछे एक बड़ा कारण माना जा रहा है।
  • गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने वर्ष 2017 में इस समझौते से अलग होने के संकेत दिये थे परंतु 4 नवंबर, 2019 को इसकी औपचारिक प्रक्रिया शुरू की गई। इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद अमेरिका पेरिस समझौते से अलग होने वाला विश्व का पहला देश बन गया
  • है।

अमेरिका के अलग होने का पेरिस समझौते पर प्रभाव:

  • वर्तमान में चीन (वैश्विक उत्सर्जन का 27%) के बाद अमेरिका (15%) विश्व में ग्रीनहाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है।
  • ऐसे में यदि अमेरिका इस समझौते से अलग होकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में अपनी भूमिका के अनुरूप कटौती नहीं करता है, तो इससे पेरिस समझौते के तहत निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना एक बड़ी चुनौती बन जाएगा।
    • गौरतलब है कि इस समझौते के तहत अमेरिका द्वारा वर्ष 2025 तक अपने उत्सर्जन में वर्ष 2005 की तुलना में 26-28% तक की कटौती करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई थी।
  • पेरिस समझौते के तहत अमेरिका द्वारा अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को पूरा करने के साथ अन्य देशों को समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहयोग के लिये वित्तीय संसाधनों को जुटाने में अमेरिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी।
  • इस समझौते से अमेरिका के अलग होने के निर्णय पर संयुक्त राष्ट्र और इसके कुछ सदस्यों ने निराशा व्यक्त की है।
  • इस समझौते से अलग होने के बावजूद अमेरिका एक पर्यवेक्षक के रूप में इसकी बैठकों में शामिल होकर अपने विचार रख सकेगा।

अमेरिकी चुनावों का प्रभाव:

  • अमेरिका के इस समझौते से अलग रहने का भविष्य अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के परिणामों पर भी निर्भर करेगा।
  • अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस चुनाव में विजयी होने का अर्थ होगा कि जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के वैश्विक साझा प्रयासों में अमेरिका का सहयोग नहीं मिल पाएगा।
  • परंतु अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिये डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार ‘जो बाइडन’ (Joe Biden) ने इस चुनाव में जीतने की स्थिति में अमेरिका को पुनः इस समझौते में शामिल करने की बात कही है।
    • गौरतलब है कि अमेरिका वर्ष 2016 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा (डेमोक्रेटिक पार्टी से संबंधित) के कार्यकाल में इस समझौते में शामिल हुआ था।
  • इसके साथ ही जो बाइडन ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की एक योजना का प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया है।

भारत पर प्रभाव:

  • हाल के वर्षों में भारत द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा विकल्पों को अपनाने पर विशेष बल दिया गया है।
  • भारत और अमेरिका के संबंधों में पिछले कुछ वर्षों में बड़े सुधार देखने को मिले हैं, भारत रक्षा और तकनीकी के साथ ऊर्जा क्षेत्र में अमेरिका के लिये एक बड़ा बाज़ार (भारत अमेरिका से कच्चे तेल का आयात करने वाला तीसरा और द्रवीकृत प्राकृतिक गैस के आयात में चौथा सबसे बड़ा देश है) बनकर उभरा है।
  • ऐसे में बाइडन प्रशासन के तहत अमेरिका द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश से भारत को भी नवीन तकनीक को अपनाने और इस क्षेत्र में भारत में अमेरिकी निवेश का लाभ प्राप्त हो सकता है।

अन्य चुनौतियाँ:

  • विशेषज्ञों के अनुसार, पेरिस समझौते के तहत सदस्य देशों द्वारा निर्धारित NDCs इस समझौते के तहत तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे रखने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये पर्याप्त नहीं है। इस तथ्य को संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCC) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया था।
  • साथ ही इस समझौते के तहत विकासशील देशों को सहयोग देने के लिये निर्धारित 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की फंडिंग बहुत ही कम है, या फंडिंग विश्व में सभी देशों द्वारा घोषित वार्षिक सैन्य बजट का 8% ही है।
  • इस समझौते के तहत निर्धारित कई मुद्दों जैसे- कार्बन क्रेडिट, निवेश, समान उत्तरदायित्त्व, अनुच्छेद-6 के अंतर्गत ‘समान समयसीमा’ (Common Timeframe) की अनिवार्यता आदि को लेकर सदस्य देशों में सहमति नहीं बन पाई है।

आगे की राह:

  • पेरिस समझौते के तहत सदस्य देशों को उनकी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये और इस समझौते के अन्य प्रावधानों के प्रति उनके उत्तरदायित्वों को निर्धारित करने हेतु नियमों को मज़बूत किया जाना चाहिये।
  • अमेरिका के इस समझौते के बाहर होने के बाद भी जलवायु संकट से निपटने हेतु विश्व के देशों को साथ लाने में यह समझौता एक महत्त्वपूर्ण मंच बना रहेगा और यदि अन्य सभी सदस्य देश अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन करते हैं तो इसके बड़े सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलेंगे।
  • COVID-19 महामारी के नियंत्रण हेतु लागू लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण प्रदूषण में भारी गिरावट देखने को मिली थी, ऐसे में सभी देशों को इस आपदा से सीख लेते हुए प्रदूषण को कम करने के नवीकरणीय विकल्पों में निवेश बढ़ाना चाहिये।
  • हाल में चीन (वर्ष 2060 तक), स्वीडन (वर्ष 2045 तक), डेनमार्क और न्यूज़ीलैंड (वर्ष 2050 तक) आदि देशों द्वारा अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने की प्रतिबद्धता की घोषणा इस दिशा में एक सकारात्मक पहल है।

निष्कर्ष:

वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन और वातावरण के तापमान में हो रही वृद्धि मानवीय सभ्यता के इतिहास की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। पेरिस समझौता इस समस्या के कारकों की पहचान करने और उससे निपटने के लिये एक व्यापक रूपरेखा प्रस्तुत करता है, ऐसे में विश्व के सभी देशों को मिलकर इस चुनौती से निपटने में योगदान देना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: पेरिस समझौते से आप क्या समझते हैं? वर्तमान समय में जलवायु संकट से निपटने में पेरिस समझौते की भूमिका की समीक्षा करते हुए इस समझौते के भविष्य पर अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के परिणामों के प्रभावों की चर्चा कीजिये।