असफल पर्यावरणीय नियामक प्रणाली के संकेत | 18 Jun 2018

संदर्भ

हाल ही में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक फैसला सुनाया जिसमें कहा गया था कि राज्य में जलविद्युत ऑपरेटरों और सड़क निर्माताओं ने नदियों को ‘डंपिंग साइट्स' के रूप में इस्तेमाल किया है। इस पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता थी क्योंकि बार-बार चेतावनी के बावजूद यह समस्या लगातार जारी थी। 11 जून, 2018 को दिये गए अपने फैसले के माध्यम से न्यायालय ने नदियों के किनारे होने वाली सभी निर्माण गतिविधियों पर रोक लगा दी और पर्यावरण मंत्रालय को 500 मीटर दूर मलबा-निपटान स्थलों की पहचान करने का निर्देश दिया है।

पृष्ठभूमि

  • इस साल की शुरुआत में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (National Green Tribunal) ने राज्य सरकारों को कोयले की शक्ति से उत्पन्न फ्लाई ऐश के उपयोग के लिये तुरंत कार्य-योजना तैयार हेतु कहा था। 
  • छत्तीसगढ़ में जहाँ करीब 50 बिजली संयंत्र संचालित हैं, सरकार ने 'घोषणा' प्रकाशित की है, जिसके अनुसार प्रत्येक नए कोयला बिजली संयंत्र के लिये फ्लाई ऐश के उपयोग हेतु एक कार्य-योजना का होना आवश्यक है। 
  • इसने राज्य में उत्पन्न गंभीर समस्या के समाधान के लिये एक तंत्र के रूप में फ्लाई ऐश उपयोग निधि के निर्माण की भी घोषणा की थी।
  • उपरोक्त दोनों उदाहरण एक असफल पर्यावरणीय नियामक प्रणाली के लक्षण हैं, जहाँ हानिकारक ऊर्जा परियोजनाओं को शमन उपायों के तर्क के आधार पर अनुमोदित किया जाता है। 
  • ये सुरक्षा उपाय लोगों और पर्यावरण के सामने आने वाले खतरों से जुड़े हुए हैं। 

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम-2010 को 2 जून 2010 को को राष्ट्रपति ने स्वीकृति दी थी। यह न्यायाधिकरण वायु और जल प्रदूषण, पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, वन संरक्षण अधिनियम तथा जैव विविधता अधिनियम से जुड़े सभी पर्यावरणीय मामलों का निपटारा करता है। न्यायाधिकरण का मुख्यालय दिल्ली में है और इसकी चार पीठें (भोपाल, पुणे, कोलकाता तथा चेन्नई) में हैं। विभिन्न अदालती फैसलों और विधि आयोग की 186वीं रिपोर्ट के बाद इस न्यायाधिकरण का गठन किया गया। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पर्यावरण संबंधी विवादों के निपटारे के लिए पृथक न्यायाधिकरण या अदालतें गठित करने की सिफारिश की थी। 

  • राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं तथा इसमें 10 न्यायिक सदस्य होते हैं जो विभिन्न उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं। 
  • पर्यावरण संबंधी मामलों में विशेषज्ञता रखने वाले 10 अन्य सदस्यों को भी न्यायाधिकरण में शामिल किया जाता है। 
  • न्यायाधिकरण को यह अधिकार प्राप्त है कि वह पर्यावरण संबंधी विभिन्न मुद्दों पर स्वत: संज्ञान ले सकता है। 
  • पर्यावरणीय क्षति पहुंचाने या नियमों का उल्लंघन करने के दोषी लोगों को दंडित कर सकता है। 
  • व्यक्तिगत रूप से 10 करोड़ रुपए या किसी कंपनी पर 25 करोड़ रुपए का दंड लगा सकता है। 
  • सश्रम कारावास की सजा भी सुना सकता है।

पर्यावरण से संबंधित किसी भी कानूनी अधिकार के प्रवर्तन तथा व्यक्तियों एवं संपत्ति के नुकसान के लिए सहायता और क्षतिपूर्ति देने या उससे संबंधित या उससे जुड़े मामलों सहित, पर्यावरण संरक्षण एवं वनों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों के प्रभावी और शीघ्रगामी निपटारे इसकी स्थापना की गई। यह एक विशिष्ट निकाय है जो बहु-अनुशासनात्मक समस्याओं वाले पर्यावरणीय विवादों को संभालने के लिए आवश्यक विशेषज्ञता द्वारा सुसज्जित है। यह न्यायाधिकरण सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत निर्धारित प्रक्रिया द्वारा बाध्य नहीं है, लेकिन नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया जाता है।

पुरानी समस्याएँ

  • हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले में एक सार्वजनिक क्षेत्र की जलविद्युत परियोजना के मामले में पर्यावरण मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालय ने पाया था कि परियोजना समर्थकों द्वारा मलबे की मात्रा, डंपिंग साइटों की संख्या और उनके स्थान के संबंध में दी गई जानकारी गलत और अपर्याप्त थी। 
  • फिर भी इस परियोजना को शर्तों के साथ अनुमोदित कर दिया गया था। इन स्थितियों में मलबे की साइटों को सुरक्षित करने और नदी प्रवाह की रक्षा करने के लिये प्रस्तावक की आवश्यकता होती है। 
  • वर्षों से, मौजूदा डंपिंग साइटों का उपयोग क्षमता से परे किया जाता रहा है। उनकी दीवारें तोड़ दी गईं जिसके कारण नदी प्रदूषित हो गई। 
  • अंतराल को भरने के लिये कंपनी को अतिरिक्त ज़मीन अधिकांशतः कृषि भूमि का अधिग्रहण और उसकी खरीदारी करनी पड़ी। इन नए क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका कभी मूल्यांकन नहीं किया गया था।

फ्लाई ऐश या मलबा निस्तारण की समस्या

  • फ्लाई ऐश या मलबा निस्तारण की समस्या नई नहीं है। यह दशकों से अप्रबंधनीय रही है और भारतीय भू-दृश्य में डंप किये गए सामानों से कई पहाड़ निर्मित हो चुके हैं। 
  • पर्यावरण मंत्रालय के 2013 के अनुमानों के अनुसार, 2012-13 के दौरान 163 मिलियन टन फ्लाई ऐश उत्पादित हुई तथा संभावना है कि 2022 तक यह उत्पादन दो गुना हो जाएगा। 
  • 1990 के दशक से कई सरकारी और गैर-सरकारी आकलन प्रस्तुत किये गए हैं जो इस खतरे को नियंत्रित करने के लिये तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता की ओर संकेत करते हैं।

पर्यावरण अनुपालन प्रणाली की विफलता

  • पर्यावरण मंत्रालय ने विभिन्न दिशानिर्देशों में फ्लाई ऐश को एक गंभीर समस्या के रूप में स्वीकार किया है और भारत के CAG ने 2016 में पर्यावरण अनुपालन प्रणाली की विफलता का परीक्षण किया। उनके अनुमानों के अनुसार,
    ♦ थर्मल पूल के 33 प्रतिशत भागों में अनुचित फ्लाई ऐश का भंडारण पाया गया था इनमें से 21 प्रतिशत मामलों में फ्लाई ऐश को गैर उपयोगी पाया गया। 
    ♦ जलविद्युत के मामले में बताया गया कि जिन नदी घाटी परियोजनाओं का मूल्यांकन किया गया उनमें में से 33 प्रतिशत के मलबों का समेकन और संकलन निर्दिष्ट मलबा निस्तारण केंद्रों में नहीं किया गया।

फ्लाई ऐश क्या होती है? 

  • फ्लाई ऐश (Fly ash) बहुत सी चीज़ों (जैसे कोयला) को जलाने से निर्मित महीन कणों से बनी होती है। 
  • ये महीन कण वातावरण में उत्सर्जित होने वाली गैसों के साथ ऊपर उठने की प्रवृत्ति रखते हैं। 
  • इसके इतर जो राख/ऐश ऊपर नहीं उठती है, वह 'पेंदी की राख' कहलाती है। 
  • कोयला संचालित विद्युत संयंत्रों से उत्पन्न फ्लाई ऐश को प्रायः चिमनियों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। 
  • फ्लाई ऐश में सिलिकन डाईआक्साइड और कैल्सियम आक्साइड बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती है। इसके अलावा भी बहुत सी ऐसी चीज़ें होती हैं जिनकी फ्लाई ऐश में उपस्थिति होती है।

अंत में यह सब कहाँ जाता है?

  • मलबा और फ्लाई ऐश दोनों अत्यधिक प्रदूषण के कारक हैं। फ्लाई ऐश में कई भारी धातुएँ पाई जाती हैं जो पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिये बेहद खतरनाक होती हैं। इसने सभी बिजली उत्पादन करने वाले क्षेत्रों और उसके आस-पास वायु गुणवत्ता, खेतों, पृष्ठीय जल, और भूजल को प्रदूषित कर दिया है। 
  • मलबे और राख को रोकने वाली दीवारें अंततः नष्ट हो जाती हैं, नदियों में कृत्रिम बांधों के निर्माण आदि के कारण ऐसी दुर्घटनाएँ होती हैं।

प्रभाव के लिये कोई जगह नहीं

  • विनियामक अनुमोदन के इस तर्क पर अब तक भरोसा कर चुके हैं कि बुनियादी ढाँचे, औद्योगिक या खनन परियोजनाओं से उत्पन्न होने वाले प्रभावों को या तो कम किया जा सकता है या प्रबंधित किया जा सकता है। 
  • फ्लाई ऐश का उपयोग, मलबों का सुरक्षित निपटान, खदानों के अत्यधिक भार के कारण वनों का कटाव आदि ऐसे आश्वासन हैं जो कि प्रोजेक्ट समर्थकों ने मंज़ूरी हासिल करने के समय बनाई हैं। 
  • सरकारें और अदालतें तब आपातकालीन कार्रवाई करती हैं जब इन शमन उपायों पर कोई असर नहीं पड़ता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 
  • प्रदूषित नदियों, भूजल में गिरावट और खराब हवा केवल एक संभावना नहीं है बल्कि हमारी पूरी आबादी द्वारा अनुभव की जाने वाली समस्याएँ हैं।

कैसे संभव है बदलाव?

  • इन निर्णयों में शामिल सरकारें और तकनीकी विशेषज्ञ राय दे सकते हैं कि चीजों को करने का यह तरीका यहाँ-वहाँ छोटे बदलावों के साथ चल सकता है। 
  • हमारे अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताकारों का कहना है कि भारत ने विकास के पथ पर देर से प्रवेश किया है और इस मार्ग पर पश्चिमी देशों के समतुल्य गति पकड़ने के लिये इसे अनुमति दी जानी चाहिये।
  • लेकिन यह मॉडल पहले ही हमारे चारों ओर अच्छे, स्वस्थ वातावरण को समाप्त कर चुका है। अब, हमें हमें अपने मार्ग को बदलना होगा।

निष्कर्ष

  • न्यायालयों को पता है कि विकास परियोजनाओं को उनके प्रभावों को डंप करने की अनुमति देने का मतलब है अन्य अधिकारों के गंभीर दुर्व्यवहार को वैध बनाना। इसलिये परियोजना गतिविधियों को रोकने के लिये कुछ सख्त निर्णयों की आवश्यकता है।