काबुल के ज़रिये चीन तक पहुँचने का रास्ता | 04 Mar 2017

एक बार फिर से अफगानिस्तान भारत एवं चीन के मध्य एक प्रभावकारी मंच के रूप में प्रस्तुत हुआ है, संभवतः यह इन दोनों राष्ट्रों के मध्य नई संभावनाओं को बल प्रदान करने का कार्य करेगा| हाल ही में हुई भारत-चीन के राष्ट्रीय सलाह्कारों की बैठक में इस बात पर सहमति जताई गई कि ये दोनों देश आपसी संबंधों को बढ़ावा देने हेतु अफगानिस्तान को एक समान आधार के रूप में दृष्टिगत करेंगे| 

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि हाल ही में चीन ने भारत द्वारा अफगानिस्तान में किये गए विकासात्मक कार्यों की भी प्रंशसा की| स्पष्ट रूप से चीन द्वारा ऐसा करने का उद्देश्य भारत के साथ सामरिक साझेदारी को एक दृढ़ रूप प्रदान करना है|
  • गौर करने वाली बात यह है कि भारत तथा चीन के मध्य सुधरते संबंधों का मुख्य कारण वैश्विक समस्या के सन्दर्भ में उपस्थित इस्लामिक स्टेट (Islamic State - IS)के रूप में चीन के ऊपर मंडराता संकट है|
  • हाल ही में इस्लामिक संगठन द्वारा जारी किये गए एक विडियो में चीन के युगिहर मुस्लिमों (Chinese Uighur Muslims) से वापस घर लौटने की अपील की गुई हैं| इस विडियो में कहा गया है कि यदि युगिहर मुस्लिमों के घर वापसी में चीनी सेना कोई भी बाधा उत्पन्न करती है तो इन लोगों को चीन में खून की नदियाँ बहानी होगी|
  • इस धमकी से घबराए चीन ने इस्लामिक स्टेट से निपटने के लिये सम्पूर्ण विश्व से एकजुट हो इस समस्या का समाधान निकालने की अपील की है| यही कारण है कि हाल ही में चीन ने अफगानिस्तान में मौजूद तालिबान को खत्म करने के लिये रूस के साथ गठजोड़ किया है|
  • ध्यातव्य है कि अफगानिस्तान की राजनैतिक समाजिक तथा आर्थिक अस्थिरता का प्रभाव केवल भारत के जम्मू-कश्मीर में ही परिलक्षित नहीं होता है बल्कि इसका असर चीन के शिनजियांग (Xinjiang) में भी नज़र आता है| वस्तुतः यह चीन का एक ऐसा भाग है जहाँ ईटीआई आन्दोलन (East Turkistan Islamic Movement – ETIM)  अभी भी जारी है|
  • हालाँकि, चीन द्वारा पाकिस्तान में स्थापित की गई वृहद् स्तरीय परियोजनाओं के कारण इस क्षेत्र में क्षेत्रीय स्थायित्व की सम्भाव्यता अवश्य नज़र आती है, परन्तु यह संभावना कितनी स्थिर एवं प्रभावशाली साबित होगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा|
  • जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अफगानिस्तान के संबंध में अभी तक नई अमेरिकी सरकार ने अपन रुख स्पष्ट नहीं किया है| पूर्व की सूचनाओं से इतना तो स्पष्ट है कि अमेरिका अब अफगानिस्तान में और अधिक अमेरिकी सेना को भेजने में रुचि नहीं  रखता है|
  • ऐसे में इस नई समस्या का जल्द से जल्द कोई हल ढूँढना अत्यंत आवश्यक हो गया हैं|
  • सम्भवतः इसी कारण चीन भारत के साथ अपने सम्बन्धों को एक रूप प्रदान करने का प्रयास कर रहा है क्योंकि पिछले कुछ समय में भारत द्वारा अफगानिस्तान की ज़मीन पर किये विकासात्मक कार्यों के कारण इसका अफगानिस्तान में प्रभाव काफी बढ़ गया है और चीन भारत की इसी छवि का लाभ उठाना चाहता है|

अफगानिस्तान के मुद्दे पर झुकाव की स्थिति

  • हालाँकि, अफगानिस्तान तथा व्यापक आतंकवाद विरोधी दशाओं में भारत-चीन की स्थिति पर अभी भी कुछ मूलभूत समस्याएँ बनी हुई हैं|
  • पिछले वर्ष दिसम्बर माह में भारत द्वारा स्पष्ट किया गया था कि भारत और चीन आपसी सहयोग के मुद्दे के सन्दर्भ में तब तक प्रभावी रूप से कार्यवाही करने में समर्थ नहीं है, जब तक कि आतंकवाद का सामना करने के लिये दोनों देशों के मध्य मजबूत सहयोग की कमी है|
  • वस्तुतः भारत का यह कथन चीन द्वारा उठाए गए उस कदम के परिणामस्वरूप दिया गया है, जिसमें चीन ने वैश्विक आतंकवादियों के नामों के लिये बनी संयुक्त राष्ट्र की सूची में जैश-ए-मुहम्मद प्रमुख मसूद अज़हर के नाम को शामिल करने पर अपनी सहमति ज़ाहिर नहीं की थी|
  • गौरतलब है कि काफी लम्बे समय से, भारत द्वारा आतंकवाद के विरोध में चीन से वार्ता करने के दौरान अफगानिस्तान को भी अपने विचार-विमर्श के मुद्दों में शामिल करने का प्रयास किया जाता रहा है|
  • उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व भी भारत-चीन आतंकवाद विरोधी संवाद को प्रारंभ में आतंकवाद का सामना करने के लिये द्विपक्षीय पहल के आशाजनक परिणामों के रूप में देखा जा रहा था| यह और बात है कि दोनों देशों के मध्य इन संवादों का अभी तक कोई उपयुक्त परिणाम नहीं निकल सका है|
  • भारत की दृष्टि में आतंकवाद का मुख्य स्रोत पाकिस्तान है| भारत ने आतंकवाद को राष्ट्रीय नीति के एक वैध उपकरण के रूप में दृष्टिगत किया है|
  • दूसरी ओर चीन की दृष्टि में, पाकिस्तान उसकी दक्षिण एशियाई नीति में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में उपस्थित है, साथ ही यह चीन का साथी भी है|
  • इसके बावजूद भी जब-जब भारत ने कैसे भी करके पाकिस्तान के साथ-साथ चीन के साथ भी सहयोग बनाए रखने की आशा की, तब-तब उसके हाथ केवल निराशा आई| ऐसी स्थिति में पुन: चीन पर भरोसा करना कोई आसान कार्य नहीं होगा|
  • गौरतलब है कि जैसे-जैसे इस क्षेत्र विशेष में यह चिंता बढ़ने लगी थी कि वर्ष 2014 में अफगानिस्तान से नाटो बलों की वापसी हो जाएगी तो चीन के द्वारा भारत के साथ सहयोग करने की इच्छा व्यक्त की जाने लगी|
  • हालाँकि यह सहयोग लम्बे समय तक बना नहीं रह सका| क्योंकि चीन के द्वारा उपरोक्त समस्या के बजाय इस बात पर अधिक बल दिया गया कि भारत के साथ आतंकवाद के सम्बन्ध में बने एक क्षेत्रीय दृष्टिकोण की तुलना में इसके पाकिस्तान के साथ बने संबंध अधिक महत्त्वपूर्ण हैं|

निष्कर्ष

स्पष्ट है कि इस परिप्रेक्ष्य में नई दिल्ली को बीजिंग से यह आशा नहीं करनी चाहिये कि यह भारत के हितों की खातिर अपनी अफगानिस्तान नीति में अर्थपूर्ण परिवर्तन करेगा| जैसा कि हम सभी जानते हैं कि काबुल में स्थिरता रावलपिंडी के माध्यम से ही आ सकती है और चीन के पास भारत की तुलना में पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान की परंपरागत भारत विरोधी मानसिकता को बल देने के लिये बहुत से प्रलोभन मौजूद हैं| तथापि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यदि अफगानिस्तान की सुरक्षा हेतु चीन भारत के साथ मिलकर कार्य करने में रुचि दिखाता है तो यह दोनों देशों के मध्य सहयोग हेतु बहुत सी नई संभावनाओं को बल प्रदान करेगा| हालाँकि संबंध में भारत को बहुत सोच समझ कर फैसला करना होगा| स्पष्ट है कि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दोनों देशों के मध्य उभरे इस नए परिदृश्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि चीन उग्रवाद से निपटने में कितना दृढ़ संकल्पित है|