संरक्षणवाद की ओर भारत | 10 Feb 2020

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में संरक्षणवाद की ओर बढ़ते भारत की वैश्विक व्यापार नीति की चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा था कि “आज तक किसी भी पीढ़ी को ऐसा सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ जो हमें प्राप्त हुआ है; वह है ‘एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण करना जिसमें कोई पिछड़ा हुआ नहीं रहेगा।’ यह हमारे लिये गंभीर उत्तरदायित्व निभाने का एक बेहतरीन अवसर है।” संक्षेप में कहें तो वह वैश्वीकरण की बात कर रहे थे। वैश्वीकरण विश्व के एकीकरण की प्रक्रिया है, इस एकीकृत विश्व में लोग वस्तुओं और सेवाओं से लेकर विचारों एवं नवाचारों तक का आदान-प्रदान करते हैं। किंतु कुछ वर्षों से संपूर्ण विश्व में संरक्षणवाद की नीति ज़ोर पकड़ रही है, अमेरिका जैसे विकसित देश स्पष्ट तौर पर इस नीति का अनुसरण करते दिखाई दे रहे हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ हालिया घटनाक्रमों के कारण भारत की व्यापार नीति भी संरक्षणवाद की राह पर जाती दिखाई दे रही है।

संरक्षणवाद का अर्थ

  • संरक्षणवाद का अर्थ सरकार की उन कार्यवाहियों एवं नीतियों से है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करती हैं। ऐसी नीतियों को प्रायः विदेशी प्रतियोगिता से स्थानीय व्यापारों एवं नौकरियों को संरक्षण प्रदान करने के प्रयोजन से अपनाया जाता है।
  • ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होने का निर्णय, संयुक्त राज्य अमेरिका का ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप से अलग होना, अमेरिका द्वारा सभी देशों से स्टील तथा एल्युमीनियम के आयात पर भारी कर लगाने जैसी विभिन्न घटनाएँ बढ़ती संरक्षणवादी प्रवृत्तियों का प्रतिबिंब हैं।
  • संरक्षणवाद का प्राथमिक उद्देश्य वस्तुओं या सेवाओं की कीमत में वृद्धि कर या देश में प्रवेश करने वाले आयातों की मात्रा को सीमित या प्रतिबंधित कर स्थानीय व्यवसायों या उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाना है।
  • संरक्षणवादी नीतियों में सामान्यतः आयात पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, किंतु इसमें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के अन्य पहलू जैसे- उत्पाद मानक और सरकारी सब्सिडी भी शामिल हो सकते हैं।
  • संरक्षणवादी विचारक विकास की तीव्र प्रतिस्पर्द्धा से नवीन घरेलू उद्योगों को सरक्षण प्रदान करना आवश्यक मानते हैं, जैसे कि ब्रिटेन ने औद्योगिक क्रांति हेतु एवं अमेरिका ने आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु संरक्षणवादी नीतियों का आश्रय लिया था।
  • संरक्षणवाद के समर्थक इसे एक राष्ट्र की स्थानीय अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने के लिये भी आवश्यक मानते हैं। इसके माध्यम से जहाँ कोई देश प्रशुल्क, कोटा, वीज़ा एवं अन्य नियमों का सहारा लेकर अपना व्यापार घाटा कम कर सकता है, तो वहीं रोज़गार व औद्योगिक वृद्धि दर को बढ़ा भी सकता है।
  • विकसित देशों द्वारा उठाए जाने वाले संरक्षणवादी कदमों से उन देशों में शिक्षा और रोज़गार के अवसर तलाश रहे छात्रों के सपने एवं आकांक्षाएँ सर्वाधिक प्रभावित होती हैं। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि संरक्षणवाद की नीति दीर्घावधि में उस देश के उद्योगों को कमज़ोर करती है।
  • संरक्षणवाद से घरेलू उद्योग में प्रतिस्पर्द्धा समाप्त हो जाती है और प्रतिस्पर्द्धा के अभाव में उद्योग के भीतर कंपनियों को कुछ नया करने की आवश्यकता नहीं रहती।

संरक्षणवाद की ओर भारत

हाल के दो घटनाक्रमों ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि भारत शनैः शनैः संरक्षणवाद के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है: (1) वर्ष 2020-21 का केंद्रीय बजट (2) भारत का RCEP से संबंधित व्यापार मध्यस्थों की बैठक में शामिल न होना।

  • वर्ष 2020-21 का केंद्रीय बजट
    अपने बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री ने मुक्त व्यापार समझौतों और तरजीही व्यापार समझौतों से संबंधित विभिन्न समस्याओं का हवाला देते हुए 50 से अधिक वस्तुओं के आयात पर शुल्क बढ़ाने का प्रस्ताव किया है। इस विषय पर वित्त मंत्री ने कहा कि “मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) के तहत आयात में वृद्धि हो रही है। FTA के कारण घरेलू उद्योगों पर खतरा उत्पन्न हो गया है। आवश्यक है कि इस प्रकार के आयात की कड़ी जाँच की जाए।” इसके अलावा सरकार ने सीमा शुल्क अधिनियम के प्रावधानों में भी काफी हद तक बदलाव किया है, इन बदलावों का उद्देश्य तीसरे देशों से उत्पन्न होने वाले (Originate From Third Countries) संदिग्ध आयातों को दंडित करना है। सरकार के इस निर्णय का उद्देश्य चीन के सामान को बहुतायत में भारत में आने से रोकना है, किंतु यह निर्णय भारत के सामान्य आयात को हतोत्साहित करेगा। 1 फरवरी को सदन में प्रस्तुत बजट में मुक्त व्यापार को लेकर वित्त मंत्री द्वारा की गई घोषणाओं से यह स्पष्ट है कि भारत संरक्षणवाद की और बढ़ने का प्रयास कर रहा है।
  • व्यापार मध्यस्थों की बैठक में शामिल न होना
    हाल ही में इंडोनेशिया के बाली में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) पर चर्चा करने के लिये मध्यस्थों की एक बैठक का आयोजन किया गया था, किंतु भारत ने इस इस बैठक में शामिल होने से इनकार कर दिया था। ज्ञात हो कि बीते वर्ष नवंबर माह में भारत सरकार ने 16 सदस्य देशों वाले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (Regional Comprehensive Economic Partnership-RCEP) समूह में शामिल न होने का निर्णय लिया था। इस व्यापार संधि में शामिल होने की भारत की अनिच्छा इस अनुभव से भी प्रेरित थी कि भारत को कोरिया, मलेशिया और जापान जैसे देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों का कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ है।

मुक्त व्यापार की अवधारणा

  • मुक्त व्यापार दो या दो से अधिक देशों के बीच बनाई गई वह नीति है जो साझेदार देशों के बीच वस्तुओं या सेवाओं के असीमित निर्यात या आयात की अनुमति देता है।
  • ब्रिटिश अर्थशास्त्री एडम स्मिथ तथा डेविड रिकार्डो ने तुलनात्मक लाभ की आर्थिक अवधारणा के माध्यम से मुक्त व्यापार के विचार को बढ़ावा दिया था। तुलनात्मक लाभ तब होता है जब एक देश दूसरे से बेहतर गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उत्पादन कर सके।

RCEP और भारत

  • क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी या RCEP एक मुक्त व्यापार समझौता है, जो कि 16 देशों के मध्य किया जाना था। विदित हो कि भारत के इसमें शामिल न होने के निर्णय के पश्चात् अब इसमें 15 देश शेष हैं। इसमें पहले 10 आसियान देश तथा उनके FTA भागीदार- भारत, चीन, जापान, कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड शामिल थे।
  • इसका उद्देश्य व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने के लिये इसके सदस्य देशों के बीच व्यापार नियमों को उदार बनाना एवं सभी 16 देशों में फैले हुए बाज़ार का एकीकरण करना है। इसका अर्थ है कि सभी सदस्य देशों के उत्पादों और सेवाओं का संपूर्ण क्षेत्र में पहुँचना आसान होगा।
  • कई भारतीय उद्योगों ने चिंता ज़ाहिर की थी कि यदि चीन जैसे देशों के सस्ते उत्पादों को भारतीय बाज़ार में आसान पहुँच प्राप्त हो जाएगी तो भारतीय घरेलू उद्योग पूर्णतः तबाह हो जाएगा। ध्यातव्य है कि भारत ऐसे ऑटो-ट्रिगर तंत्र की मांग कर रहा था जो उसे ऐसे उत्पादों पर शुल्क बढ़ाने की अनुमति देगा जहाँ आयात एक निश्चित सीमा को पार कर चुका हो।
  • भारत पहले से ही 16 RCEP देशों के साथ व्यापार घाटे की स्थिति में है। अपने बाज़ार को और अधिक मुक्त बनाने से स्थिति बिगड़ सकती है। गौरतलब है कि चीन के साथ भारत का कुल व्यापार 50 बिलियन डॉलर से भी अधिक का है।

इस प्रकार की नीति में निहित समस्याएँ

  • सरकार ने कहा है कि अब वह अपने सभी व्यापार समझौतों की समीक्षा करेगी, इसमें आसियान देशों के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता, जापान और भारत के मध्य व्यापक आर्थिक भागीदारी (CEPA) तथा दक्षिण कोरिया के साथ CEPA आदि शामिल हैं। सरकार का कहना है कि वह इन समझौतों का विश्लेषण कर भारत के हितों के साथ तालमेल स्थापित करना चाहती है।
  • विशेषज्ञों के अनुसार सरकार का यह लक्ष्य जितना आसान लगता है वास्तव में उतना आसान नहीं है। यदि भारत RCEP से अपने सभी संबंध समाप्त कर लेता है, जो कि हालिया बैठक में शामिल न होने से स्पष्ट है, तो आसियान देशों, दक्षिण कोरिया और जापान के लिये भारत के साथ अपने द्विपक्षीय व्यापार समझौतों पर वार्ता करना तब तक महत्त्वपूर्ण नहीं होगा जब तक RCEP पूरा नहीं हो जाता और निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना नहीं है।
  • इसके अलावा भारत ऑस्ट्रेलिया के साथ CEPA पर विचार कर रहा है, किंतु इसके इतिहास को देखते हुए कई विश्लेषक इसे संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। ज्ञात हो कि भारत और ऑस्ट्रेलिया के मध्य CEPA की वार्ता वर्ष 2011 में शुरू हुई थी। दोनों देशों ने दिसंबर 2015 को CEPA वार्ता लिये अंतिम समयसीमा निर्धारित की थी, किंतु RCEP पर ध्यान केंद्रित करने के कारण यह संभव नहीं हो पाया था। भारत और ऑस्ट्रेलिया के मध्य CEPA अब तक पूरा नहीं हो पाया है।
  • इसी प्रकार की स्थिति भारत और यूनाइटेड किंगडम (UK) के मध्य मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को लेकर भी है। दोनों देशों के मध्य यह समझौता तब तक संभव नहीं हो पाएगा जब तक कि UK ब्रेज़िट (Brexit) से संबंधित सारी प्रक्रियाओं को पूरा नहीं कर लेता है।
  • इस प्रकार भारत के लगभग सभी व्यापार समझौते किसी-न-किसी कारणवश रुके हुए हैं और भारत जिनमें शामिल है उनकी भी समीक्षा की जा रही है। हालाँकि इस स्थिति का भारत के वैश्विक व्यापार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, किंतु यह स्थिति वैश्विक व्यापार में हो रहे अन्य परिवर्तनों के साथ मिलकर भारत के वैश्विक व्यापार के विकास में बाधा उत्पन्न कर सकती है।
    • अमेरिका और चीन के मध्य चल रहे व्यापार युद्ध के कारण वैश्विक स्तर पर विश्व मध्यस्थ के रूप में विश्व व्यापार संगठन (WTO) की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगा है। इसके परिणामस्वरूप विश्व के वे देश व्यापार सुरक्षा की कमी का सामना कर रहे हैं, जिनके पास इस संदर्भ में कोई वैकल्पिक व्यवस्था या समझौता नहीं है।

निष्कर्ष

अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों के लिये भारत की जनसांख्यिकीय निश्चित रूप से एक आकर्षक विषय हो सकता है, किंतु यह तब तक सफल नहीं होगा जब तक भारत के विशाल बाज़ार में मौजूद उपभोक्ताओं के पास आवश्यक क्रय शक्ति नहीं होगी। अतः यह स्पष्ट है कि आधुनिक, आर्थिक रूप से परस्पर और तकनीकी रूप से अविभाज्य विश्व में वैश्विक व्यापार के समक्ष एक दीवार खड़ी कर भारत का विकास सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न: “हालिया घटनाक्रम यह दर्शाते हैं कि भारत संरक्षणवाद की नीति की ओर बढ़ रहा है।” कथन के परिप्रेक्ष्य में संरक्षणवाद की नीति को परिभाषित करते हुए इसमें निहित समस्याओं को स्पष्ट कीजिये।