नीली अर्थव्यवस्था | 30 Jul 2019

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line, Livemint आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल है। इस आलेख में नीली अर्थव्यवस्था की अवधारणा तथा भारत के संदर्भ में इसके विभिन्न पक्षों की चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

हाल ही में संसद में पेश किये गए बजट में कई अन्य विषयों के अतिरिक्त ब्लू इकॉनमी अर्थात नीली अर्थव्यवस्था को भी स्थान दिया गया। हालाँकि इस ओर विशेषज्ञों ने अधिक ध्यान नहीं दिया। भारत की तटीय सीमा काफी लंबी है, साथ ही भारत हिंद महासागर में स्थित प्रमुख देश है जिसमें पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में अरब सागर स्थित है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए बजट में महासागरों के धारणीय उपयोग पर ध्यान दिया गया है। मौजूदा समय में महासागरों के आर्थिक उपयोग के लिये ब्लू इकॉनमी अथवा नीली अर्थव्यवस्था शब्द का उपयोग किया जाता है। नीली अर्थव्यवस्था का विकास न केवल जल निमग्न संसाधनों का दोहन करते हुए बल्कि विशेषकर स्थल पर अवसरों की सीमितता के बीच महासागरों में अवसंरचना विस्तार के लिये एक आधार के रूप में इसे विकसित किया जा सकता है इससे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होगी। साथ ही यह राष्ट्र-निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन भी कर सकता है।

नीली अर्थव्यवस्था (Blue Economy)

महासागर विश्व के सबसे बड़े पारिस्थितिकी तंत्र हैं, साथ ही ये पृथ्वी के तीन-चौथाई हिस्से में फैले हुए हैं। महासागर वैश्विक GDP में 5 प्रतिशत का योगदान देते हैं तथा 350 मिलियन लोगों को महासागरों से जीविका प्राप्त होती है। इस संदर्भ में ये क्षेत्र जलवायु परिवर्तन, आजीविका, वाणिज्य तथा सुरक्षा से संबंधित विभिन्न संभावनाएँ एवं चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं।

विश्व बैंक के अनुसार, महासागरों के संसाधनों का उपयोग जब आर्थिक विकास, आजीविका तथा रोज़गार एवं महासागरीय पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर किया जाता है तो वह नीली अर्थव्यवस्था (Blue Economy) के अंतर्गत आता है। नीली अर्थव्यवस्था को प्रायः मरीन अर्थव्यवस्था, तटीय अर्थव्यवस्था एवं महासागरीय अर्थव्यवस्था के नाम से भी पुकारा जाता है।

Blue Economy

भारत के लिये नीली अर्थव्यवस्था के क्षेत्र

  • मत्स्य कृषि : ध्यातव्य है कि भारत की तटीय लंबाई लगभग 8000 किमी. है, इसके कारण भारत में मछली उत्पादन तटीय क्षेत्रों में रोज़गारके रूप में विकसित है। भारत के लगभग 1.5 मिलियन लोग इस क्षेत्र से सीधे तौर पर रोज़गारप्राप्त करते हैं, साथ ही कृषि क्षेत्र में मछली उत्पादन 6 प्रतिशत का योगदान देता है। भारत की तटीय आबादी के लिये भोजन एवं पोषण के मुख्य साधन के रूप में मछली का ही उपयोग किया जाता है। भारत में यदि इस क्षेत्र को और अधिक प्रोत्साहन दिया जाता है तो यह भारत के पोषण स्तर को सुधारने का एक सस्ता स्रोत हो सकता है। इसके अतिरिक्त यह निर्यात के रूप में आर्थिक लाभ भी उत्पन्न कर सकता है। ज्ञात हो कि विश्व की GDP में यह क्षेत्र 270 बिलियन डॉलर का योगदान देता है।
  • जलीय कृषि: वर्तमान में भारत की जनसंख्या लगभग 130 करोड़ के करीब है। आने वाले समय में भारत के लिये खाद्य सुरक्षा एक प्रमुख चुनौती बन कर उभर सकती है। सिर्फ अनाज के माध्यम से सभी की भोजन की जरूरत को पूरा करना पोषण के दृष्टिकोण से संभव नहीं हो सकता है। इसके लिये महासागर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वर्तमान में विश्व में उपभोग किये जाने वाली कुल मछलियों में से 58 प्रतिशत जलीय कृषि से उत्पादित की जाती हैं। जलीय कृषि के अंतर्गत मछली के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के जलीय जीवों एवं वनस्पतियों को नियंत्रित पर्यावरण में विकसित किया जाता है। इससे इनकी उत्पादकता एवं उपयोगिता में वृद्धि होती है।
  • मरीन जैव-प्रौद्योगिकी एवं जैव संभावना (Marine Biotechnology and Bioprospecting): ध्यातव्य है कि सागर पृथ्वी के तीन-चौथाई क्षेत्र में फैले हुए हैं साथ ही सागरों में विश्व की सबसे अधिक जैव-विविधता विद्यमान है। समुद्रों की जैव-विविधता का विभिन्न क्षेत्रों जैसे- दवाओं, भोजन सामग्री, सजावट आदि के रूप में उपयोग किया जाता है। भारत समुद्रों में जैव संभावना को तलाश कर अपने आर्थिक लाभ में वृद्धि कर सकता है।
  • अलवणीकरण के माध्यम से ताज़े पानी की प्राप्ति: SIDS (Small Island Developing State) देश जैसे मालदीव में प्राकृतिक ताज़े पानी के स्रोतों की नितांत कमी होती है। ऐसे देश समुद्री खारे पानी को अलवणीकरण प्रक्रिया द्वारा ताज़े जल में परिवर्तित कर उपयोग करते हैं। भारत के भी कई तटीय क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ जल स्रोतों की कमी हैं, वर्तमान में चेन्नई में जल की कमी ने ऐसे प्रयासों की ओर विचार करने को प्रेरित किया है। हालाँकि इसकी कुछ पर्यावरणीय चिंताएँ भी हैं इन्हें दूर कर इस तकनीक के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन: महासागर के तटीय क्षेत्रों का नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत के रूप में उपयोग किया जा सकता है। INDC (Intended Nationally Determined Contributions) में भारत ने वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता को 33-35 प्रतिशत तक कम करने की बात कही है। इस संदर्भ में भारत को अपने नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में वृद्धि करने की आवश्यकता है। महासागर न सिर्फ ज्वारीय एवं थर्मल बल्कि अपतटीय पवन ऊर्जा के उत्पादन में भी महती भूमिका निभाने की क्षमता रखते हैं। भारत ऐसे क्षेत्रों को प्रोत्साहित कर अपनी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में वृद्धि कर सकता है।
  • मेरीटाइम परिवहन, बंदरगाह सेवाएँ आदि: 80 प्रतिशत (मात्रा) वैश्विक व्यापार समुद्री मार्गों द्वारा संपन्न होता है। यह मात्रा भारत जैसे विकासशील देशों में और भी अधिक है। भारत का मात्रा के संदर्भ में 95 प्रतिशत तथा मूल्य के रूप में 70 प्रतिशत व्यापार समुद्री मार्गों से होता है। इस तथ्य के अनुसार भारत अपने बंदरगाह की क्षमता में वृद्धि कर रहा है। साथ ही सागरमाला परियोजना द्वारा बंदरगाहों को अन्य क्षेत्रों से जोड़ने का भी प्रयास किया जा रहा है। भारत इस क्षेत्र में और अधिक क्षमता हासिल करना चाहता है क्योंकि आने वाले समय में जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ेगा वैसे-वैसे ही व्यापार का आकार भी बढ़ेगा। इसके अतिरिक्त चीन के बंदरगाहों की क्षमता भारत से कहीं अधिक है जिसका लाभ उसे आर्थिक विकास में हुआ है। भारत भी नीली अर्थव्यवस्था को बल देकर बंदरगाह एवं इससे संबंधित अवसंरचना के विकास को बढ़ावा दे सकता है।
  • पर्यटन: भारत एवं विश्व में पर्यटन का तेजी से विकास हो रहा है। विश्व में 9 प्रतिशत रोज़गारसिर्फ पर्यटन क्षेत्र से आता है, साथ ही विश्व की GDP में भी पर्यटन 9.8 प्रतिशत (वर्ष 2015) योगदान करता है। भारत में भी पर्यटन क्षेत्र तेजी से विकास हो रहा है किंतु अभी भी भारत अपनी जैव विविधता का उपयोग पर्यटन के दृष्टिकोण से नहीं कर सका है। भारत में कई तट एवं द्वीप (अंडमान निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, केरल, गोवा, गुजरात आदि) ऐसे हैं जिसका विकास समुद्री पर्यटन के दृष्टिकोण से किया जा सकता है। विभिन्न देश जैसे-मालदीव, मॉरीशसआदि में समुद्री पर्यटन का अच्छा विकास हुआ है। यह क्षेत्र न सिर्फ अधिक रोज़गार सृजन की क्षमता रखता है बल्कि विदेशी मुद्रा अंतरप्रवाह (Inflow) की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। ध्यातव्य है कि भारत का आयात निर्यात की अपेक्षा अधिक है। इस दृष्टिकोण से पर्यटन विदेशी मुद्रा का अच्छा साधन उपलब्ध करा सकता है।
  • कार्बन प्रथक्करण में उपयोगी (ब्लू कार्बन): विश्व जलवायु परिवर्तन के खतरों से जूझ रहा है तथा कार्बन उत्सर्जन को कम करने के विभिन्न प्रयासों पर कार्य कर रहा है। समुद्री एवं तटीय पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा अवशोषित किये जाने वाले कार्बन को नीले कार्बन अथवा ब्लू कार्बन की संज्ञा दी जाती है। यह अवशोषण जीवभार और अवसाद के रूप में मैंग्रोव, दलदलीय क्षेत्रों, समुद्री घास तथा शैवालों द्वारा किया जाता है। महासागरों की कार्बन अवशोषण क्षमता भूमि पर स्थित पारितंत्र के मुकाबले पाँच गुना अधिक होती है। यदि सागरों का उपयोग जलवायु शमन में किया जाता है तो यह जलवायु परिवर्तन से निपटने में मददगार हो सकते हैं।

चुनौतियाँ

  • भारत ने महासागरीय संसाधनों के उपयोग को बढ़ाने एवं नीली अर्थव्यवस्था को बल देने के लिये बजट में इस विचार की चर्चा की है किंतु देश के मौजूद इस क्षेत्र से संबंधित कानून, विनियम एवं नियम वर्षों पुराने हैं। मौजूदा समय में इस क्षेत्र में उपस्थित संभावनाओं के उपयोग एवं संबंधित चुनौतियों से निपटने तथा देश में नीली अर्थव्यवस्था को बल देने में इस प्रकार का कानूनी ढाँचा कारगर नहीं है। नीली अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिये एकीकृत क़ानूनी ढाँचे की आवश्यकता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि महासागर विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रूप संबंधित है जैसे- व्यापार, पर्यटन, दवा निर्माण, मत्स्य उत्पादन आदि। अतः इन क्षेत्रों से संबंधित कानूनों में भी बदलाव किये जाने की आवश्यकता है।
  • महासागर मानव के लिये विभिन्न क्षेत्रों के लिये प्राचीन समय से ही उपयोगी बना रहा है एवं भविष्य में भी महासागर विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करने की क्षमता रखते हैं इसी के लिये ही नीली अर्थव्यवस्था जैसे शब्दों को बल दिया गया है। हालाँकि इन संसाधनों का उचित मात्रा एवं तकनीक से दोहन न करने से महासागरों की जैव-विविधता को संकट का सामना करन पड़ रहा है।
  • वैश्विक समुदाय कार्बन उत्सर्जन एवं अन्य कारकों से जलवायु परिवर्तन का सामना कर रहा है। महासागर भी इससे अछूते नहीं हैं वैश्विक तापमान में वृद्धि से महासागरों के तापमान में भी वृद्धि हो रही है। इससे महासागरों का जल स्तर बढ़ रहा है। जल स्तर के बढ़ने से सबसे बड़ा संकट SIDS देशों के समक्ष उत्पन्न होने की संभावना जताई जा रही है। साथ ही भारत के भी कुछ तटीय क्षेत्र ऐसे हैं जो इससे प्रभावित हो सकते हैं। तापमान के बढ़ने से मानसून में परिवर्तन होने की भी आशंका व्यक्त की जा रही है। ध्यातव्य है की भारत की खेती अभी भी मुख्य रूप से मानसून पर ही निर्भर है। एक अन्य समस्या प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ) के समक्ष उत्पन्न हुई है। प्रवालों के जीवन के लिये एक निश्चित तापमान की आवश्यकता होती है एवं तापमान के बढने से इनके समक्ष भी संकट उत्पन्न हुआ है। मछलियों का भोजन मुख्यतः प्रवाल ही होते है ऐसे में यदि प्रवालों की उपलब्धता में कमी आती हैं तो मछलियों के जीवन पर भी संकट हो सकता है। इसका सीधा प्रभाव समुद्री खाद्य श्रंखला पर पड़ता है। ऐसी स्थिति न सिर्फ लोगों के भोजन एवं पोषण को प्रभावित करेगी बल्कि इससे आर्थिक हानि भी होगी।
  • महासागरों में तेज़ी से प्रदूषण एवं संदूषण में वृद्धि हो रही है। महासागरों का प्रदूषण प्रमुख रूप से प्लास्टिक आधारित है। प्लास्टिक का जीवन चक्र बहुत दीर्घ होता है यदि इसे कम नहीं किया गया तो यह समुद्री खाद्य श्रंखला में शामिल हो सकता है जिसका प्रभाव समस्त समुद्री जैव-विविधता पर परिलक्षित होगा। इसके अतिरिक्त जहाज़ों से होने वाला तेल रिसाव भी महासागरीय जैव-विविधता को प्रभावित करता है।

निष्कर्ष

महासागर मानव के लिये अकूत संपदा के भंडार होते हैं जिनका उपयोग मानव प्राचीन समय से ही करता रहा है। वर्तमान में भी विभिन्न देश महासागरीय संसाधनों का उपयोग अपनी अर्थव्यवस्था को बल देने के लिये कर रहे हैं। भारत भी नीली अर्थव्यवस्था की अवधारणा पर बल दे रहा है ताकि महासागरीय संसाधनों का उचित उपयोग किया जा सके। भारत की अवस्थिति इस विचार में अनुपूरक की भूमिका निभाती है। किंतु इस क्षेत्र की चुनौतियाँ भी कम नहीं है। जलवायु परिवर्तन से लेकर महासागरीय संसाधनों का अनुचित दोहन तथा विनियामक ढाँचे की कमी प्रमुख चुनौती बने हुए हैं। भारत यदि कुशल अवसंरचना के विकास द्वारा महासागरीय संसाधनों का धारणीय उपयोग करने में सक्षम होता है तो यह क्षेत्र भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने में प्रमुख योगदान दे सकता है।

प्रश्न: नीली अर्थव्यवस्था से क्या तात्पर्य है? भारत के संदर्भ में इसके लाभ और चुनौतियों की चर्चा कीजिये।