संसदीय प्रणाली की निष्क्रियता: चुनौती और उपाय | 31 Mar 2021

यह एडिटोरियल 27 मार्च, 2021 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित लेख ‘Dormant Parliament, Fading Business’ पर आधारित है। इस लेख में संसदीय प्रणाली की निष्क्रियता और इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

किसी देश की संसद को लोकतंत्र के मूल विचार के लिये महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जो कि लोकतांत्रिक परिदृश्य में केंद्रीय भूमिका अदा करती है, इसे प्रायः कानून बनाने, सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने और राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर बहस करने का अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य सौंपा जाता है।

इस संदर्भ में कई विश्लेषकों का मत है कि भारतीय संसद इतने वर्षों के बाद भी उस स्तर तक विकसित और परिपक्व नहीं हुई है, जितनी वह हो सकती थी अथवा उसे होना चाहिये था। 

छोटे संसदीय सत्र और विधेयकों की जांच में शिथिलता आदि कारणों के परिणामस्वरूप संसद की ख्याति और दक्षता दोनों में ही गिरावट देखने को मिली है।

ऐसे में एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत के विचार को संरक्षित करने हेतु संसद को विधेयक बनाने, उनकी जाँच करने और सत्रों का आयोजन करने आदि के संदर्भ में अधिक सक्रिय रूप से कार्य करने की आवश्यकता है।

संसद की निष्क्रियता और संबंधित मुद्दे

  • छोटे संसदीय सत्र: छोटे संसदीय सत्रों की प्रवृत्ति भारतीय संसदीय प्रणाली में लगातार बढ़ती जा रही है। उदाहरण के लिये वर्ष 2021 में संसद का बजट सत्र, राज्य विधानसभा चुनावों के प्रचार में राजनीतिक नेताओं की भागीदारी के चलते नियोजित समय से दो सप्ताह पूर्व ही समाप्त हो गया।
    • वर्ष 2020 के बजट सत्र की अवधि में भी देशव्यापी लॉकडाउन के कारण कुछ कमी की गई थी।
    • वर्ष 2020 में 18 दिनों का मानसून सत्र भी केवल 10 दिनों तक ही चला, जबकि शीतकालीन सत्र को पूर्णतः रद्द कर दिया गया।
  • सक्रिय विधायी जाँच का अभाव: बजट सत्र के दौरान कुल 13 विधेयकों को प्रस्तुत किया गया था, जिनमें से 8 विधेयक सत्र के भीतर पारित किये गए और सभी 13 विधेयकों में से किसी भी विधेयक को संसदीय समिति के समक्ष जाँच के लिये नहीं भेजा गया गया, जो यह दर्शाता है कि संसद के पास जाँच तंत्र होने के बावजूद इसका प्रयोग नहीं किया जा रहा है।
    • राज्यसभा और लोकसभा में दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र (संशोधन) विधेयक, 2021 को प्रस्तुत करने और पारित होने में महज 10 दिन का समय लगा और विपक्षी दलों को इस पर बहस एवं जाँच करने का कोई अवसर नहीं दिया गया।
    • खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2021 भी मात्र एक सप्ताह के भीतर दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया था।
    • नेशनल बैंक फॉर फाइनेंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपमेंट विधेयक, 2021 को भी केवल तीन दिनों के भीतर पारित कर दिया गया था।
    • बीमा (संशोधन) विधेयक, 2021, जिसका उद्देश्य बीमा कंपनियों के लिये विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) सीमा को 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत करना था, को भी दोनों सदनों में पारित होने में एक सप्ताह का समय लगा।
    • इस त्वरित कार्य को भारतीय संसदीय प्रणाली की दक्षता के बजाय किसी विधेयक की जाँच करने में संसद द्वारा की जा रही लापरवाही के रूप में देखा जाना चाहिये।
  • संसदीय समितियों की लगातार उपेक्षा: पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च द्वारा एकत्रित आँकड़ों की मानें तो 15वीं लोकसभा के दौरान संसद द्वारा विधेयकों को विभागीय समितियों को भेजे जाने की दर 71 प्रतिशत थी, जो कि 16वीं लोकसभा के दौरान घटकर मात्र 27 प्रतिशत रह गई और 17वीं लोकसभा के दौरान तो यह दर (केवल 11 प्रतिशत) और भी कम हो गई। 
    • विभागीय समितियों के अलावा चयनित संसदीय समितियों और संयुक्त संसदीय समितियों को भी किसी विधेयक को संदर्भित किये जाने की दर काफी कम है।
  • केंद्रीय बजट पर चर्चा: भारतीय संविधान लोकसभा के लिये प्रत्येक विभाग और मंत्रालय के व्यय बजट को अनुमोदित करना और उस पर चर्चा करना अनिवार्य बनाता है।
    • हालाँकि इसके बावजूद इस वर्ष लोकसभा में विस्तृत चर्चा के लिये केवल पाँच मंत्रालयों के बजट को सूचीबद्ध किया गया और उसमें से भी केवल तीन पर ही चर्चा की गई।
    • इसके अलावा बजट के 76 प्रतिशत हिस्से को बिना किसी चर्चा के ही स्वीकृति दे दी गई।
  • लोकसभा के उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 93 लोकसभा के कुल सदस्यों में से दो सदस्यों को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में चुने जाने का प्रावधान करता है।
    • वर्तमान लोकसभा में अब तक उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं किया गया है, जबकि नई लोकसभा के गठन के कुछ माह के भीतर उपाध्यक्ष चुना जाना आवश्यक है।

आगे की राह

  • संसदीय जाँच: संसद को सरकार के प्रस्तावों और कार्यों पर पर्याप्त जाँच सुनिश्चित करनी चाहिये।
    • इसमें निम्नलिखित को शामिल किया जा सकता है:
      • संसद सदस्यों की सहायता के लिये एक अनुसंधान प्रणाली स्थापित करना।
      • सांसदों को मुद्दों की जाँच करने के लिये पर्याप्त समय प्रदान करना।
    • इसके अतिरिक्त महामारी के कारण संसदीय सत्रों में हो रही कटौती के मद्देनज़र प्रोद्योगिकी आधारित समाधानों पर विचार किया जा सकता है।
  • विधायी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता: यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि संसदीय समितियों द्वारा विधेयकों और बजट की पर्याप्त जाँच की जाए और आम जनता से भी फीडबैक लिया जाए।
    • यह नागरिकों के माध्यम से यह समझने में सहायता करेगा कि किसी विधेयक का कौन सा पक्ष सही है और कौन सा पक्ष सही नहीं है तथा उसमें किस प्रकार से सुधार किया जा सकता है।
  • विधायी प्रभाव आकलन: विधायी प्रभाव आकलन (LIA) के लिये एक विस्तृत रूपरेखा तैयार किये जाने की आवश्यकता है।
    • प्रत्येक विधायी प्रस्ताव में व्यापक जागरूकता और मूल्यांकन के लिये सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और प्रशासनिक प्रभाव का विस्तृत विवरण शामिल होना चाहिये।
    • इसके अलावा विधायी नियोजन के समन्वय के लिये संसद की एक नई विधायी समिति का गठन किया जाना चाहिये।
  • संसदीय समिति सुधार: संसदीय विभागीय समितियों के प्रभावी कामकाज को सुनिश्चित करने के लिये लंबा कार्यकाल और विशेषज्ञता को बढ़ावा देने जैसे उपाय अपनाए जा सकते हैं। 
    • ज्ञात हो कि स्वीडन, फिनलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में सभी अथवा कम-से-कम कुछ विशिष्ट विधेयकों को संसदीय समितियों को भेजना अनिवार्य है।
      • भारत को भी इन देशों की तर्ज पर संसदीय समिति प्रणाली का समग्र लाभ प्राप्त करने के लिये इसी तरह की अनिवार्यता संबंधी नियम बनाने चाहिये।
      • महत्त्वपूर्ण कानूनों के पारित होने में संसदीय समितियों की भूमिका को कम करना एक कमज़ोर लोकतंत्र की ओर इशारा करता है।
  • विपक्ष की भूमिका को मज़बूत करना: विपक्ष की भूमिका को मज़बूती प्रदान करने के लिये छाया-मंत्रिमंडल (शैडो कैबिनेट) जैसी संस्थाओं के उपयोग पर विचार किया जा सकता है।
    • छाया-मंत्रिमंडल (शैडो कैबिनेट) संसदीय प्रणाली में संतुलन स्थापित करने के लिये सत्ताधारी दल के समकक्ष विपक्षी दल द्वारा गठित एक समानांतर मंत्रिमंडल होता है, यह ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का एक अनूठा संस्थान है।
    • ऐसी प्रणाली में सत्ताधारी मंत्री की प्रत्येक कार्रवाई को छाया-मंत्रिमंडल के मंत्री द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित किया जाना अनिवार्य बनाया जा सकता है।

निष्कर्ष

  • लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार के काम की जाँच करने वाले प्रतिनिधि निकाय के रूप में संसद की प्राथमिक और केंद्रीय भूमिका होती है। अपने संवैधानिक जनादेश को पूरा करने हेतु संसद के लिये यह आवश्यक है कि वह प्रभावी ढंग से कार्य करे।
  • इसके अलावा कई विशेषज्ञ किसी भी विधेयक की उचित जाँच को एक गुणवत्तापरक कानून की अनिवार्य शर्त के रूप में देखते हैं। विधि निर्माण में संसदीय समितियों की भूमिका को नज़रअंदाज़ करना अथवा समाप्त करना भारतीय लोकतंत्र की भावना को कमज़ोर करता है।

Tale-of-2-Houses

अभ्यास प्रश्न: संसद की निष्क्रियता भारत में लोकतंत्र को समग्र तौर पर कमज़ोर करती है। अपने संवैधानिक जनादेश को पूरा करने हेतु संसद के लिये यह आवश्यक है कि वह प्रभावी ढंग से कार्य करे। चर्चा कीजिये।