भारत में स्लोडाउन | 05 Sep 2019

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में भारत में स्लोडाउन तथा इसके कारकों की चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

कुछ समय पूर्व ही भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आँकड़े ज़ारी किये गए हैं। वर्ष 2019 की प्रथम तिमाही के लिये GDP की वृद्धि दर घटकर 5 प्रतिशत पर आ गई है। ये आँकड़े पिछले 6 वर्ष में सबसे खराब माने जा रहे हैं। ध्यातव्य है कि इसी तिमाही के लिये 8 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाया गया था, जबकि इससे पूर्व की तिमाही (मार्च) के लिये यह आँकड़ा 5.8 प्रतिशत था। विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति की जानकारी देने वाले आठ कोर उद्योगों की वृद्धि दर पिछले अप्रैल-जुलाई की अवधि के मध्य यह घटकर 3 प्रतिशत पर आ गई, जबकि पिछले वर्ष के लिये यह 5.8 प्रतिशत थी। उपरोक्त आँकड़ों के प्रकाश में आने तथा ऑटो सेक्टर तथा दैनिक उपयोग के सामानों (Fast Moving Consumer Goods-FMCG) से जुड़ी कंपनियों की वृद्धि दर में हुई गिरावट से विभिन्न आर्थिक विश्लेषकों ने भारत में मंदी की आशंका व्यक्त की है। हालाँकि पिछली दो तिमाहियों की GDP वृद्धि दर को देखते हुए स्लोडाउन से इनकार नहीं किया जा सकता जिसके मूल कारण के रूप में मांग में कमी को रेखांकित किया जा सकता है।

स्लोडाउन के कारण

भारत में पिछली दो तिमाही से लगातार आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट आ रही है जिसे स्लोडाउन के रूप में देखा जा रहा है, स्लोडाउन के निम्नलिखित संभावित कारण हैं-

  • विमुद्रीकरण: वर्ष 2016 में अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण के लिये विमुद्रीकरण का क्रियान्वयन किया गया। विमुद्रीकरण ने भारत के असंगठित क्षेत्र तथा रियल एस्टेट को सर्वाधिक प्रभावित किया। ध्यातव्य है कि भारत में 90 प्रतिशत से भी अधिक रोज़गार असंगठित क्षेत्र से प्राप्त होता है। विमुद्रीकरण से लोगों का रोज़गार प्रभावित हुआ। जिसके चलते लोगों की आय में कमी आई, परिणामतः लोगों के उपभोग स्तर में भी गिरावट आई। यह ध्यान देने योग्य है कि इस प्रकार के कारकों का प्रभाव कुछ वर्षों बाद पड़ता है।
  • वस्तु एवं सेवा कर (GST): एक देश एक कर के रूप में GST को भारत में आर्थिक क्षेत्र के सबसे बड़े सुधारों में से एक माना जाता है किंतु इसके ढाँचे तथा क्रियान्वयन को लेकर उत्पन्न समस्याओं ने उद्यमों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। हाल में ज़ारी आँकड़ों से यह जानकारी मिलती है कि अगस्त माह के लिये GST कर संग्रहण घटकर एक लाख करोड़ रुपए से भी कम हो गया है।
  • रोज़गार में कमी: विमुद्रीकरण तथा GST से असंगठित क्षेत्र में रोज़गार की कमी आई है। तथा विदेशी निवेश के सीमित होने से भी नए रोज़गारों का सृजन नहीं हो सका है। कुछ समय पूर्व NSSO के आँकड़ों में यह रेखांकित किया गया था कि बेरोज़गारी पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक बढ़ी है। उपरोक्त कारकों से जहाँ रोज़गार में कमी आई वहीं गुणवत्तापरक रोज़गार का सृजन नहीं हो सका, परिणामस्वरूप मांग में कमी आई।
  • ग्रामीण मांग में कमी: पिछले कुछ वर्षो के दौरान सरकार की योजनाएँ मुद्रास्फीति को कम करने के उद्देश्य से प्रेरित रही हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रास्फीति में गिरावट आई तथा यह गिरावट मुख्य रूप से खाद्य मुद्रास्फीति में देखी गई, जबकि गैर-खाद्य मुद्रास्फीति खाद्य मुद्रास्फीति दर को भी पार कर गई। यदि इस तथ्य का विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि खाद्य मुद्रास्फीति में कमी किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम न मिल पाने के कारण हुई, जबकि गैर-खाद्य मुद्रास्फीति की गति अधिक बनी रही है। एक ओर ग्रामीण क्षेत्र में धन का प्रवाह नहीं हो सका, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र का धन शहरी क्षेत्र की ओर प्रवाहित होता रहा क्योंकि खाद्य मुद्रास्फीति गैर-खाद्य मुद्रास्फीति से कम थी। ग्रामीण आय जो वर्ष 2013-14 में 28 प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रही थी वह 2018-19 में घटकर 3.7 प्रतिशत पर आ गई। ध्यान देने योग्य है कि भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है तथा ग्रामीण क्षेत्र की आय में कमी आने से सर्वाधिक प्रभाव FMCG उत्पादों तथा ऑटो क्षेत्र पर हुआ।
  • वित्तीय क्षेत्र का संकट: पिछले एक दशक से गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) की दर उच्च बनी हुई है। यह दर कुल ऋण के अनुपात में वर्ष 2014 में 11 प्रतिशत को भी पार कर गई थी। हालाँकि NPA में लगातार कमी आई है किंतु अभी भी इसका अनुपात उच्च बना हुआ है, इसके अतिरिक्त गैर-बैंकिंग वित्तीय निगम (NBFC) का संकट गहराया है। NBFC का जुड़ाव म्यूचुअल फंड, बैंकों तथा उद्यमों में होता है, अतः यह भी भारत की आर्थिक वृद्धि दर को प्रभावित कर रहा है।
  • मौद्रिक नीति: भारत में वर्ष 2013-14 में खुदरा मुद्रास्फीति दर 9.4 प्रतिशत थी। इस परिप्रेक्ष्य में नीति निर्माताओं और भारतीय रिज़र्व बैंक ने मुद्रास्फीति में कमी करने के लिये मौद्रिक नीति का सहारा लिया। पिछले कुछ वर्षों से कठोर मौद्रिक नीति पर बल दिया गया और इसके तहत रेपो दरों को ऊँचा रखा गया जिससे बाज़ार में उधार लेने की क्षमता कम हो गई क्योंकि ऋण महँगे हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रास्फीति में कमी आई, जो वर्ष 2018-19 के लिये 3.4 प्रतिशत रही लेकिन इसने मौद्रिक नीति बाज़ार को भी कमज़ोर कर दिया। पिछले कुछ समय से इसी को ध्यान में रखकर RBI लगातार रेपो दरों को कम कर रहा है ताकि स्थिति में सुधार किया जा सके। ध्यान देने योग्य है कि इस वर्ष में अगस्त माह के लिये रेपो दर 5.40 प्रतिशत पर है।
  • राजकोषीय नीति: भारत के लगातार ऊँचे राजकोषीय घाटे को ध्यान में रखकर राजकोषीय उत्तरदायित्त्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (FRBM Act) को संसद ने पारित किया। इसके अनुसार सरकार को तय समय के भीतर अपने राजकोषीय घाटों को कम करना था। वर्ष 2008 के सबप्राइम संकट (आर्थिक मंदी) से भारत को उभारने के लिये सरकार को अत्यधिक वित्तीय सहायता देनी पड़ी, इससे राजकोषीय घाटे में और अधिक वृद्धि हुई। यह घाटा वर्ष 2013-14 के लिये 4.5 प्रतिशत था (वर्ष 2018-19 में 3.4 प्रतिशत का संशोधित अनुमान), जिसे किसी अर्थव्यवस्था के लिये उचित नहीं माना जा सकता। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिये आवश्यक होता है कि सरकार के खर्च और प्राप्तियों के मध्य अंतर को कम-से-कम किया जाए। इसे राजस्व संग्रहण को बढ़ाकर या सरकार द्वारा खर्चों को कम करके किया जा सकता है। विमुद्रीकरण और GST से उद्योगों की स्थिति प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई, जिससे राजस्व संग्रहण में वृद्धि की सीमित संभावना थी। इसके लिये सरकार को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ी, इससे ग्रामीण क्षेत्र और कमज़ोर वर्ग का कल्याण प्रभावित हुआ क्योंकि पहले से ही ग्रामीण क्षेत्र की स्थिति कमज़ोर थी, सरकार के इस कदम से स्थिति और खराब हो गई।
  • वैश्विक कारक: अमेरिकी प्रशासन की संरक्षणवादी नीतियों तथा चीन के साथ छिड़े व्यापार युद्ध ने विश्व व्यापार को संकुचित किया है। इसके अतिरिक्त, ब्रेक्ज़िट पर असमंजस, लंबे समय से मध्य पूर्व का संकट तथा ईरान से तेल आयात पर प्रतिबंध ने भी समस्या को बढ़ाया है। हालाँकि भारत के निर्यात में जुलाई 2019 में पिछले वर्ष की तुलना में 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन यह वृद्धि बेस इफ़ेक्ट के कारण हैं क्योंकि पिछले वर्ष निर्यात कम था। इसके अतिरिक्त पिछले कुछ वर्षों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल (Crude Oil) के दाम कम थे, अब इन मूल्यों में भी वृद्धि हो रही है। ध्यान देने योग्य है कि भारत अपनी तेल आवश्यकता के लिये आयात पर ही निर्भर है, ऐसे में यह न सिर्फ भारत के व्यापार घाटे को बल्कि मुद्रास्फीति में भी वृद्धि करेगा। जुलाई माह के लिये ही आयात में 10 प्रतिशत से भी अधिक की गिरावट आई है। प्रायः आयात में कमी को व्यापार संतुलन की दृष्टि से उचित समझा जाता है लेकिन आयात में कमी भारतीय अर्थव्यवस्था में मांग में कमी को दर्शाती है।
  • बचत में कमी: बेरोज़गारी एवं अन्य कारकों से घरेलू (Households) बचत में कमी आई है। वित्त वर्ष 2012 के लिये यह बचत दर 35 प्रतिशत थी जो घटकर वित्त वर्ष 2018 में 17 प्रतिशत पार आ चुकी है। ध्यान देने योग्य है कि घरेलू तथा MSME की बचत मिलकर GDP में कुल बचत के 23.6 प्रतिशत के लिये ज़िम्मेदार है। यह बचत प्रमुख रूप से निवेश के लिये उपयोगी होती है लेकिन इसमें कमी के कारण बैंकों के पास भी तरलता की कमी है इससे बैंकों की ब्याज दरें भी उच्च बनी हुई हैं तथा बाज़ार को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध नहीं हो पा रहा है, परिणामतः आर्थिक वृद्धि दर प्रभावित हो रही है।
  • चक्रीय कारक: भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा हाल ही जारी एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत के स्लोडाउन की प्रकृति चक्रीय है। किसी भी अर्थव्यवस्था में मंदी, स्लोडाउन अथवा सुस्ती, रिकवरी आदि के चरण एक व्यापार चक्र अथवा समयावधि में आते रहते हैं, इसके लिये कोई एक कारण ज़िम्मेदार नहीं होता तथा सरकारी प्रयासों से ऐसी स्थिति से निपटा जाता है और यह स्थिति सभी देशों में विद्यमान है। भारत में भी वर्ष 2008 में मंदी आई जिससे अर्थव्यवस्था को उबार लिया गया, इसके पश्चात् वर्ष 2012-13 में भी स्लोडाउन की स्थिति देखी गई, वर्तमान में भी भारत कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहा है, जो अर्थव्यवस्था की प्रकृति में ही विद्यमान में है।

बैंकों का विलय: वित्त मंत्रालय ने क्रेडिट फ्लो को सुधारने तथा NPA की समस्या से निपटने हेतु बैंकों के विलय की योजना तैयार की है, इससे 10 बैंकों का विलय करके 4 बैंकों में परिवर्तित कर दिया जाएगा। वर्तमान में भारत स्लोडाउन का सामना कर रहा है तथा आर्थिक विश्लेषकों द्वारा ऐसा कहा जा रहा है कि बैंकों की वर्तमान क्रेडिट ग्रोथ की स्थिति ठीक नहीं है। हालाँकि दीर्घ अवधि में बैंकों के विलय के सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने की संभावना है लेकिन ऐसे समय जब क्रेडिट ग्रोथ की स्थिति सुदृढ़ नहीं है तथा उद्यमों को बैंकों की आवश्यकता है, यह स्थिति को और खराब कर सकता है।

व्यापार चक्र (Business Cycle)

अर्थव्यवस्थाओं में वह अवधि जिसमें उछाल अथवा उच्च आर्थिक वृद्धि दर, मंदी, रिकवरी आदि का चक्र शामिल होता है, उसको व्यापार चक्र की संज्ञा दी जाती है; इसी परिप्रेक्ष्य में RBI भारत में आए स्लोडाउन को चक्रीय कारक की संज्ञा दे रहा है।

  • स्लोडाउन: यह किसी अर्थव्यवस्था की ऐसी स्थिति को प्रदर्शित करती है जिसमें सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर में गिरावट आती है किंतु अर्थव्यवस्था निम्न गति से वृद्धि करती रहती है।
  • संकुचन (Contraction): जब अर्थव्यवस्था की किसी तिमाही की GDP वृद्धि दर नकारात्मक हो जाती है तो ऐसी स्थिति को संकुचन कहा जाता है।
  • मंदी (Recession): यदि अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाही में आर्थिक वृद्धि की दर नकारात्मक हो तो उसे मंदी की संज्ञा दी जाती है। इसके अतिरिक्त ऐसी स्थिति में मांग में कमी आती है, मुद्रास्फीति दर में गिरावट आती है, साथ ही रोज़गार में कमी होती है तथा बेरोज़गारी में वृद्धि होती है।
  • अवसाद अथवा महामंदी (Depression): इस स्थिति में मंदी का वातावरण बना रहता है तथा अर्थव्यवस्था की स्थिति और भी खराब हो जाती है। कारोबार को बनाए रखने के लिये तेज़ी से कर्मचारियों की छंटनी की जाती है और इससे बेरोज़गारी में तीव्र वृद्धि होती है। मांग में बेहद कमी आने के कारण मुद्रास्फीति में भी अत्यधिक गिरावट होती है। इसके अतिरिक्त सरकार आर्थिक गतिविधियों पर अपना नियंत्रण खो देती है। ध्यान देने योग्य है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में केवल एक बार वर्ष 1929 में विश्व को महामंदी (Depression) का सामना करना पड़ा है।
  • रिकवरी: उपरोक्त स्थिति में सरकार प्रोत्साहन (Stumulus) द्वारा अर्थव्यवस्था को उभारने का प्रयास करती है, इसके लिये मौद्रिक और राजकोषीय नीति का उपयोग किया जाता है। मौद्रिक नीति के तहत केंद्रीय बैंक ब्याज दरों को कम करता है तथा बाज़ार में तरलता को बढ़ाती है। राजकोषीय नीति के ज़रिये सरकार करों में कटौती करती है और सरकारी खर्च में वृद्धि करती है। इन सभी प्रोत्साहनों का मुख्य उद्देश्य उद्यमों की स्थिति को सुधारना तथा मांग में वृद्धि करना होता है और इस प्रकार धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था सामान्य स्थिति में आने लगती है।

Business Cycle

स्लोडाउन: चक्रीय अथवा संरचनात्मक

रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया द्वारा मौजूदा स्थिति को चक्रीय बताया गया है लेकिन आर्थिक विश्लेषक RBI से सहमत नहीं है। विश्लेषकों का मानना है कि भारत में उपजा स्लोडाउन चक्रीय के साथ-साथ संरचनात्मक भी है तथा इसके लिये समष्टिगत कारक ज़िम्मेदार हैं और सरकारी प्रोत्साहन के साथ ही मज़बूत आर्थिक सुधारों के पश्चात् इस स्लोडाउन का समाधान किया जा सकता है। अर्थव्यवस्था के मूलभूत पक्ष जैसे- मांग, अवसंरचना, रोज़गार, बचत, क्रेडिट ग्रोथ, श्रम सुधार, GDP वृद्धि दर, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आदि को समष्टिगत कारकों के रूप में रेखांकित किया जाता है।

स्लोडाउन के प्रभाव

  • अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारक चाहे सुधार से संबंधित हों अथवा दुष्प्रभाव उत्पन्न करने वाले इन्हें प्रदर्शित होने में कुछ समय लगता है। विमुद्रीकरण एवं GST से आरंभ हुआ मुद्रा का संकट और मांग की कमी अन्य कारकों के साथ मिलकर वर्तमान में स्लोडाउन का रूप ले चुकी है, यह मौजूदा आर्थिक वृद्धि दर में दृष्टिगत होता है। जब लोगों के पास धन की कमी होती है तो लोग ऐसी वस्तुओं से किनारा कर लेते हैं, जो उनके लिये कम आवश्यक होती हैं, इसलिये ऐसे क्षेत्र जो लोगों के लिये आधारिक रूप से संबद्ध नहीं हैं, सबसे पहले प्रभावित होते हैं।
  • वर्तमान में ऑटो सेक्टर गंभीर संकट से जूझ रहा है, मारुति जैसी कंपनी जो अपने लाभ को कम आर्थिक वृद्धि दर में भी बनाए रखती थी, को संकट का सामना करना पड़ रहा है। पिछले 6 माह से भी कम समय में 3.5 लाख लोग रोज़गार खो चुके हैं।
  • FMCG क्षेत्र जो पिछले कई वर्षों से लगातार तीव्र वृद्धि करता रहा है, उसकी भी गति धीमी हो चुकी है। आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि FMCG उत्पाद रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति से संबंधित होते हैं, यदि इस क्षेत्र की भी वृद्धि दर में गिरावट आ रही है तो इसका अर्थ है कि लोग अपने भोजन संबंधी आवश्यकताओं में कटौती कर रहे हैं क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र गंभीर आय के संकट से जूझ रहा है।
  • ऑटो एवं FMCG क्षेत्र बड़ी मात्रा में रोज़गार उत्पन्न करते हैं, यदि स्लोडाउन की स्थिति गंभीर होती है तो रोज़गार पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। ध्यान देने योग्य है कि पहले से ही भारत में बेरोज़गारी दर अत्यधिक उच्च है, रोज़गार की कमी स्लोडाउन और मंदी के लिये उत्प्रेरक का कार्य करती है क्योंकि यह एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण करती है जिससे मांग में लगातार कमी होती जाती है और उद्यम अपने कारोबार को ज़ारी रखने के लिये लगातार छटनी करते जाते हैं।

निष्कर्ष

वित्त वर्ष 2025 तक सरकार ने भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचाने का लक्ष्य तय किया है, लेकिन वर्तमान आर्थिक वृद्धि दर को देखते हुए यह लक्ष्य प्राप्त होना संभव नहीं है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारत को प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत की नॉमिनल वृद्धि दर की आवश्यकता है, यदि यह स्लोडाउन कुछ समय तक और बना रहता है तो इससे उभरने में समय लगेगा, जो भारत की भविष्य की योजनाओं को प्रभावित कर सकता है। ध्यातव्य है कि GDP एक रोटी (Bread) के समान है यदि उसके हिस्सों को बड़ा करना है तो रोटी का आकार भी बड़ा करना पड़ेगा अर्थात् अन्य ज़रूरी क्षेत्रों जैसे- स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रतिरक्षा, अवसंरचना में अधिक खर्च करना है, तो इसके लिये आर्थिक वृद्धि दर का तीव्र होना आवश्यक है।

प्रश्न: भारत में स्लोडाउन के लिये चक्रीय कारकों के साथ-साथ संरचनात्मक कारक भी ज़िम्मेदार हैं, स्लोडाउन के कारणों के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त कथन की चर्चा कीजिये।