क्या कृषि आय पर कर लगाया जाना चाहिये? | 27 May 2017


भारत के संदर्भ में कृषि आय को कराधान ढाँचे के अंतर्गत लाए जाने का विचार वर्षों से विवाद का विषय बना हुआ है| यद्यपि स्वतंत्रता पूर्व काल से ही विभिन्न पक्षकारों यथा- सरकार, अर्थशास्त्री, कृषि विज्ञानी एवं स्वयं कृषकों के मध्य इस विषय पर चर्चा होती रही  है, लेकिन अब तक इस पर कोई एक राय नहीं बन पाई है|

वर्तमानसंदर्भ में यह विषय पुनः तब चर्चा में आया, जब मई की शुरुआत में संसद का एक सत्र, जिसमें वित्त विधेयक पर चर्चा हो रही थी, में दो सांसदों (त्रिणमूल कांग्रेस एवं बीजू जनता दल)  के द्वारा प्रश्न पूछे गए, जिनमे यह कहा गया था कि करोड़ों की कमाई  करने वाले बड़े किसानों अथवा ऐसी कंपनियाँ जो कृषि कार्य में ही संलग्न हैं, उनकी आय पर कर क्यों नहीं लगाए जाते| इसके अतिरिक्त, उन्होंने यह भी कहा कि 50 एकड़ से अधिक भूमि वाले किसान व कंपनीयाँ, जिनकी कृषि आय 1 करोड़ से ज़्यादा की है, उन पर आयकर लगाया जाए| 

ऐतिहासिक संदर्भ

  • स्वतंत्रतापूर्व काल में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने यह कहा था कि वे कृषि आय पर आयकर लगाने के पक्ष में हैं| इसके पीछे उनका मूल तर्क यह था कि ये कर व्यक्ति की  क्षमता व आय के सापेक्ष आरोपित किये जाएंगे| 
  • 1953-54 में ‘द टैक्सेशन इंक्वाईरी कमीशन’ ने कर ढाँचे के लिये महत्त्वपूर्ण अनुशंसाएँ करते हुए कृषि आय पर कर लगाने का प्रस्ताव रखा था|
  • 1972 में गठित के. एन. राज समिति की रिपोर्ट जिसमें इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर विचार किये गए थे| इस समिति ने बड़े कृषकों पर कर लगाने का प्रस्ताव रखा था, परन्तु इस प्रस्ताव का  कभी  क्रियान्वयन नहीं किया गया| 
  • 2002 की केलकर समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 95% किसान कर की सीमा के नीचे हैं|

पक्ष में विचार

  • देश में किसान स्वतन्त्रतापूर्व काल से  ही कर देता आया है एवं वर्तमान में भी बागवानी, हॉर्टिकल्चर जैसी गतिविधियों पर बहुत सी राज्य सरकारें कर लगतीं हैं क्योंकि उनकी समझ में ये वाणिज्यिक कृषि हैं| 
  • दूसरा, यह कि कृषि राज्य सूची के विषयों में शामिल हैं तथा कई राज्य कृषि आय को कर के अंतर्गत लाने के पक्षधर हैं| अंततः इससे राज्यों के कर राजस्व में वृद्धि होगी जो उनकी वित्तीय क्षमता में वृद्धि करेगा|
  • तीसरा, सर्वाधिक विरोधाभासी तत्त्व बड़े उद्योग समूहों व बड़े किसानों के विषय में है जो न तो स्वयं कृषि कार्य में प्रत्यक्षतः जुड़े हुए हैं बल्कि अपनी पूंजी का निवेश कृषि में करते हैं एवं लाभ के भोगी होते हैं| ज़मीन पर कृषि कार्य मज़दूर व छोटे किसान करते हैं जिनके पास लाभ का एक छोटा हिस्सा ही जाता है| इस दशा में बड़े किसानों व इन उद्योग समूहों को कर ढाँचे के अंतर्गत लाना क्यों उचित नहीं होगा?
  • इसके अतिरिक्त, आय कर की तरह यहाँ भी विभिन्न कर स्लैब की व्यवस्था की जा सकती है| अतः जो तय सीमा से नीचे आय सृजित करेंगे उन पर कर नहीं लगेगा|
  • मूलतः मुख्य समस्या राजनीतिक नेतृत्व की इच्छाशक्ति की है जो कृषि आय को कर के अंतर्गत लाने से डरते हैं क्योंकि उनके लिये ये कदम देश की एक बड़ी किसान आबादी को नाराज़ करने वाला कदम होगा| अतः अपने वोट बैंक को बचाने के लिये शायद ही कोई सरकार इस विषय पर कोई उपयुक्त कदम उठाए, जबकि स्वतंत्रता पश्चात् गठित लगभग सभी समितियों एवं रिपोर्टों आदि का मानना है कि कृषि आय पर कर लगाया जाना चाहिये|

विपक्ष में विचार

  • स्वतंत्रता पश्चात काल में नज़र डालें तो हम पाएंगे कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का प्रतिशत लगातार तीव्रता से घट रहा है, तथा 1991 से 2016 तक के काल में कृषि का हिस्सा 32% से घटकर 15% तक पहुँच गया, जबकि इस काल में कृषि पर आश्रित आबादी का हिस्सा 49.7% तक बना रहा| अतः स्पष्ट है कि कृषि पर बोझ अधिक है और ऐसे में अतिरिक्त कर आरोपित करना स्थिति को और खराब ही करेगा|
  • पर्यावरणीय व तकनीकी अवरोध कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन पर बहुआयामी तरीके से प्रभाव डालतें हैं| जहाँ एक ओर देश में कृषि उत्पादकता अपने न्यूनतम स्तर पर ही बनी हुई है, वहीं कृषकों की आय भी न्यूनतम स्तर पर है| ऐसे में कर का बोझ ग्रामीण जनसंख्या के कल्याण को विशेषकर प्रभावित करेगा|
  • इसके अतिरिक्त, ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक सुविधाओं के मूल्य में भारी वृद्धि हो चुकी है जो उनकी आय क्षमता को विशेषकर प्रभावित करता है| 2012-13 के राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आँकड़ों के अनुसार, एक कृषि परिवार की  औसत आयु सिर्फ  6491 रुपए प्रतिमाह है| अधिकतर किसान कृषि को छोड़कर अन्य क्षेत्रों की तरफ पलायन कर रहे हैं| 
  • अतः ग्रामीण कृषकों की दशा अत्यंत दयनीय है| युवा वर्ग भी कृषि से विमुख हो रहा है और जो कृषि से जुड़े हुए हैं वो भी संकट में  हैं| अतः ऐसी दशा में कृषि आय पर कर लगाना कहीं से भी युक्तियुक्त फैसला नहीं होगा|

वास्तविक दशा

  • कृषि आय पर कर आरोपित करने के विचार को मूलतः दो आधारों पर गलत ठहराया जाता है- 
  • प्रथम, भारत में कृषकों का बहुसंख्यक हिस्सा, लगभग 60% छोटे किसानों का है, अर्थात इनके पास छोटे जोत, बिक्री योग्य कम कृषि अधिशेष तथा छोठी आय होती है|
  • दूसरा, इनके पास जलवायविक आपदाओं की दशा में किसी भी प्रकार के बीमा का अभाव होता है|
  • इसके अतिरिक्त, कृषि उत्पादों के बाज़ार मूल्य में होने वाला उतार-चढ़ाव इनकी समस्या को और मुश्किल बनाता है| परिणामस्वरूप कृषकों की आय में भारी परिवर्तन देखा जाता है| ऐसी स्थिति में इन पर कर आरोपित करना इनके लिये एक अलग समस्या होगी|
  • परन्तु दूसरा पक्ष यह है कि यदि हम विभेदकारी सब्सिडी को स्वीकारते हैं तो इसी तरह के कर ढाँचे को क्यों नहीं स्वीकार सकते? अर्थात जैसे एक आय स्तर के बाद किसानों को सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिये, उसी प्रकार एक आय स्तर के पश्चात ही कर आरोपित किया जा सकता है| इस प्रकार, बड़े किसानों तथा उद्योग समूहों को कर के अंतर्गत लाना युक्तियुक्त हो सकता है| अंततः ये फैसला कर राजस्व में वृद्धि ही करेगा|

कृषकों की  क्षमता बढ़ाने के संभावित उपाय 
यद्यपि देश में बड़े किसानों व उद्योग जगत का कृषि कार्य में हिस्सा बढ़ा है, लेकिन आज भी देश के बहुसंख्यक किसानों की आय भूमि के आकार से नहीं बल्कि मानसून और बाज़ार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती है| इस दशा में कृषि को कराधान ढाँचे के अंतर्गत लाने से पहले हमें भारतीय कृषि एवं कृषक समाज दोनों को विशेष सुविधाओं से युक्त करना पड़ेगा| इसके लिये हमें कुछ विशेष उपाय करने होंगे,जैसे–

  • कृषक आयोग के अनुसार, एम.एस.पी. (MSP) को औसत कृषि उत्पादकता से 50% देने की बात की गई थी| इस प्रस्ताव को लागू कर किसानों को हम आर्थिक सुरक्षा दे सकते हैं|
  • आयकर के ढाँचे में लाने से पहले कृषकों के लिये पी.डी.एस. सिस्टम (PDS System) तथा वसूली मूल्य में सुधार कर हम उनकी क्षमता में वृद्धि कर सकते हैं|
  • तकनीकी बाधाओं व पर्यावरणीय आपदाओं से निपटने के लिये बीमा व बैंकिंग सुविधाओं को दुरुस्त करने के साथ वितीय समावेशन इस दिशा में उल्लेखनीय कदम हो सकता है, विशेषकर वर्षा आधारित कृषि क्षेत्र में इन सुविधाओं को लागू करना अत्यंत आवश्यक है|

निष्कर्ष 
अतः कृषि आय पर कर आरोपित करने का विचार एकपक्षीय न होकर बल्कि एक बहुपक्षीय विषय है, जिसे सिर्फ बड़े किसानों व कृषि कार्य में संलग्न उद्योग समूहों को ध्यान में रखकर  लागू नहीं करना चाहिये, बल्कि ऐसे किसी भी फैसले को लागू करने से पहले देश की  ग्रामीण कृषक आबादी को ध्यान में रखना आवश्यक होगा|