चुनावों में सोशल मीडिया का नियमन | 26 Mar 2019

संदर्भ

निर्वाचन (चुनाव) आयोग ने देश में 17वीं लोकसभा के लिये 11 अप्रैल से 19 मई के बीच सात चरणों में चुनाव कराए जाने का कार्यक्रम बनाया है। चुनाव प्रचार के परंपरागत साधनों के अलावा अब यह देखने में आया है कि सोशल मीडिया भी चुनावों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है। भारत में राजनीतिक दल सोशल मीडिया को प्रचार के प्रमुख साधन के रूप में अपना रहे हैं। इसी के मद्देनज़र इस बार चुनाव आयोग राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के सोशल मीडिया प्रचार पर भी निगरानी रखेगा। सोशल मीडिया को भी आदर्श आचार संहिता के दायरे में लाया गया है। इसके साथ ही फेसबुक-गूगल जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने भी चुनाव को देखते हुए कंटेंट की निगरानी करने का आश्वासन दिया है।

क्या है सोशल मीडिया?

फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, यूट्यूब, इन्स्टाग्राम, स्नेपचैट आदि जैसी वेबसाइट्स को सोशल मीडिया की संज्ञा दी गई है। सोशल मीडिया का अस्तित्व इंटरनेट की वज़ह से है क्योंकि इसके बिना सोशल मीडिया बेकार है। आज सोशल मीडिया एक ऐसा साधन बन गया है, जहाँ आम आदमी भी अपनी बात दुनिया के सामने रख सकता है और इसके लिये उसे कोई विशेष प्रयास भी नहीं करने पड़ते।

कैसे होता है सोशल मीडिया पर चुनाव प्रचार?

दो दशक पीछे जाएँ तो आँखों के सामने कार, बस या ऑटो में लगे झंडे, लाउडस्पीकर से प्रत्याशी को जिताने की अपील के साथ धुआँधार नारेबाज़ी और छोटे-छोटे प्लास्टिक या कागज़ के बिल्लों के लिये लपकते बच्चों वाली चुनाव प्रचार की तस्वीर जीवंत हो उठती है। लेकिन अब यह दृश्य पूरी तरह बदल चुका है और इसकी जगह ले ली है छह इंच के मोबाइल फोन के स्क्रीन ने। पिछले एक दशक में तो सोशल मीडिया चुनाव प्रचार अभियान का सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐसा होगा, जो इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल अपनी बात रखने और प्रतिद्वंद्वियों के आरोपों का जवाब देने के लिये न कर रहा हो।

लेकिन आज फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर या यूट्यूब जैसे माध्यमों पर राजनीतिक दलों के प्रचार के पीछे जनसंचार की एक थ्योरी काम कर रही है। इसके मुताबिक, लोग जानकारी के लिये या विचारों के लिये सीधे जनसंचार के किसी स्रोत पर कम ही निर्भर रहते हैं और अपनी जानकारी समाज के ही किसी और व्यक्ति से लेते हैं। वह व्यक्ति ओपिनियन लीडर होता है, जिसकी बात सुनी और कई बार मानी भी जाती है। इसे टू-स्टेप थ्योरी कहते हैं, क्योंकि ऐसा बहुत कम होता है कि मीडिया ने कुछ कहा या दिखाया और लोगों ने उसे मान लिया।

किसी व्यक्ति की सोशल मीडिया तक पहुँच का मतलब है कि उसके पास मोबाइल फोन या कंप्यूटर और इंटरनेट तो होगा ही। इसके अलावा उसे अंग्रेज़ी की न्यूनतम जानकारी भी होगी। लेकिन सोशल मीडिया के वर्चुअल प्रचार का वास्तविक दुनिया में विस्तार की संभावना कई रास्ते खोल रहा है और ढेरों सवाल भी खड़े कर रहा है। जैसे- क्या जो पार्टी सोशल मीडिया में आगे रहेगी, उसके चुनाव जीतने की अधिक संभावना होगी? क्या किराए पर लोग रखकर सोशल मीडिया में बनाई गई चुनावी हवा मतदाताओं के वोटिंग व्यवहार को प्रभावित करती है? जिन सामाजिक समूहों में अभी इंटरनेट का पर्याप्त विस्तार नहीं हुआ है, जैसे- दलित, आदिवासी, मुसलमान और ग्रामीण, उनमें यह किस रूप में असर दिखाएगा?

चुनाव आयोग के प्रमुख दिशा-निर्देश

  • सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के ज़रिये सोशल मीडिया पर पोस्ट की जाने वाली सामग्री को चुनाव आचार संहिता के दायरे में लाने का फैसला 2014 के आम चुनाव के दौरान किया था।
  • तब चुनाव आयोग का कहना था कि चुनाव में पारदर्शिता और बराबरी के अवसर बनाए रखने के लिये सोशल मीडिया पर नियंत्रण की ज़रूरत है।
  • चुनाव आयोग का यह भी कहना था कि सोशल मीडिया पर चुनाव कानूनों का निश्चित रूप से उल्लंघन होता है।
  • चुनाव आयोग के नए दिशा-निर्देशों के अनुसार, प्रत्याशियों को नामांकन दाखिल करते समय दिये जाने वाले हलफनामे में अपनी ई-मेल ID और अन्य अधिकृत सोशल मीडिया एकाउंट्स की जानकारी देनी होगी।
  • किसी भी इंटरनेट आधारित माध्यम पर राजनीतिक विज्ञापन देने से पहले चुनाव आयोग द्वारा तय अधिकारी से मंजूरी लेनी होगी।

राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को अपने सोशल मीडिया अभियान पर किये गए खर्च का पूरा विवरण रखना होगा। इसमें विज्ञापनों पर किये गए खर्च के साथ ही उसे बनाने पर किया गया खर्च भी शामिल होगा। अन्य चीज़ों के अलावा इसमें इंटरनेट कंपनियों व विज्ञापन वाली वेबसाइट्स को किये गए भुगतान, कंटेंट के रचनात्मक विकास पर अभियान-संबंधी व्यय और सोशल मीडिया खातों को चलाने के लिये रखी गई टीम का पारिश्रमिक व उनके भुगतान को शामिल किया जाना चाहिये।

  • राजनीतिक दल और उम्मीदवार अपने सोशल मीडिया एकाउंट्स से असत्यापित विज्ञापन, रक्षाकर्मियों (Security Forces) की तस्वीरें, नफरत भरे भाषण (Hate Speech) व झूठी खबरें (Fake News) पोस्ट नहीं कर सकेंगे। 
  • ऐसा कोई भी कंटेंट पोस्ट करना प्रतिबंधित है, जिससे चुनावी प्रक्रिया बाधित हो या शांति, सामाजिक सद्भाव और सार्वजनिक व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो।

सोशल मीडिया की निगरानी के लिये मॉनिटरिंग कमेटी: ज़िला और राज्य स्तर पर मीडिया प्रमाणन और निगरानी समितियाँ बनाई गई हैं। प्रत्येक स्तर पर एक सोशल मीडिया विशेषज्ञ भी इस समिति का हिस्सा होगा। सोशल मीडिया पर जारी किये जाने वाले सभी राजनीतिक विज्ञापनों के लिये इस समिति से पूर्व प्रमाणीकरण की आवश्यकता होगी।

प्रभावी माध्यम है सोशल मीडिया

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेसबुक और ट्विटर के माध्यम से तो राजनीतिक दलों और राजनेताओं की सक्रियता स्पष्ट देखने को मिलती है। इधर पिछले कुछ समय से फेसबुक का एक फीचर फेसबुक लाइव चुनाव प्रचार का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम बनकर उभरा है। जनसभाओं, रैलियों, नामांकन को बाकायदा लाइव प्रसारित किया जाता है। इसके अलावा राजनीतिक दल और बड़े नेता अपने फैंस क्लब सोशल मीडिया में चला रहे हैं। पार्टी के कार्यक्रमों की जानकारी देने के साथ ही विभिन्न विषयों पर अपनी बात लोगों के बीच रखने के लिये सभी बड़े राजनीतिक दलों ने सोशल मीडिया सेल बना रखे हैं। इनका काम समय-समय पर उठने वाले विभिन्न विषयों पर अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने के लिये कंटेंट (वीडियो-ऑडियो) तैयार करना होता है, जिसे सोशल मीडिया में प्रस्तुत किया जाता है।

सोशल मीडिया ने बनाई आचार संहिता

फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने स्वेच्छा से एक आचार संहिता तैयार कर चुनाव आयोग को सौंपी है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) और फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर, गूगल, शेयर चैट तथा टिक टॉक आदि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने मिलकर यह आचार संहिता तैयार की है। इस स्वैच्छिक संहिता का उद्देश्य उन उपायों की पहचान करना है जो उपयोगकर्त्ताओं का चुनावी प्रक्रिया में विश्वास बढ़ा सकते हैं। यह आगामी आम चुनावों के स्वतंत्र और निष्पक्ष संपन्न होने और इन संचार माध्यमों का किसी भी तरह के दुरुपयोग को रोकने में मदद करेगी। हालाँकि इन कंपनियों ने माना कि उनके उपयोगकर्त्ताओं को ऐसी सामग्री पोस्ट करने की अनुमति होती है, जिसका वे उपयोगकर्त्ता न तो लेखक हैं और न ही प्रकाशक।

प्रमुख बिंदु

  • फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप सहित प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर मतदान से 48 घंटे पहले कोई राजनीतिक प्रचार-प्रसार की अनुमति नहीं होगी।
  • ये प्लेटफॉर्म्स सिन्हा समिति की सिफारिशों के तहत तीन घंटे के भीतर जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 126 के तहत किसी भी नियम के उल्लंघन को लेकर कदम उठाएंगे।
  • ये कंपनियाँ उपयुक्त और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए चुनावी मामलों के बारे में अपने प्लेटफॉर्म्स पर नीतियों और प्रक्रियाओं के बारे में समुचित जानकारी उपलब्ध कराएंगी।
  • उपयोगकर्त्ताओं को चुनावी कानूनों और अन्य संबंधित निर्देशों सहित जागरूक करने के लिये स्वेच्छा से सूचना, शिक्षा और संचार अभियान शुरू करेंगी।
  • इन प्लेटफॉर्म्स को चुनाव आयोग के नोडल अधिकारी से प्रशिक्षण दिलाने का भी प्रयास किया जाएगा, जिसमें कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार अनुरोध भेजने की जानकारी शामिल होगी। 
  • ये कंपनियाँ और चुनाव आयोग एक ऐसा सूचना तंत्र विकसित करेंगे जिसके माध्यम से आयोग जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 126 और अन्य चुनावी नियमों का उल्लंघन करने वाले प्लेटफॉर्म्स को आदेश जारी कर सकेगा। ये आदेश उल्लंघन की जानकारी मिलने के तीन घंटे के अंदर आ जाएंगे और उनका अनुपालन सुनिश्चित किया जाएगा। जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 126 चुनाव के दिन से 48 घंटे पहले किसी भी प्रकार के प्रचार-प्रसार पर रोक लगाती है।
  • चुनाव आयोग के लिये ये कंपनियाँ उच्च प्राथमिकता वाले समर्पित रिपोर्टिंग तंत्र विकसित करेंगी और चुनावों के दौरान इस तरह के आदेश प्राप्त होने पर त्वरित कार्रवाई करने के लिये अधिकारी नियुक्त किये जाएंगे।
  • सोशल मीडिया कंपनियों और प्लेटफॉर्म्स को कानून के तहत अपने दायित्वों के अनुसार, राजनीतिक विज्ञापनदाताओं के लिये एक तंत्र विकसित करना होगा। यह तंत्र चुनाव आयोग के विज्ञापन और/या मीडिया प्रमाणन और निगरानी समिति द्वारा चुनाव विज्ञापनों के संबंध में कानून सम्मत नियम जारी करेगा। इसके अलावा, इन कंपनियों को आयोग द्वारा गैर-प्रमाणित और गैर-अधिसूचित विज्ञापनों पर शीघ्रता से कार्रवाई करनी होगी।
  • कंपनियों को राजनीतिक विज्ञापनों से मिले भुगतान के बारे में पूरी पारदर्शिता रखनी होगी। ऐसे विज्ञापनों के लिये उनके पहले से मौजूद लेबल तकनीक का उपयोग करना होगा। 

ये कंपनियाँ IAMAI के माध्यम से चुनाव आयोग से मिले निर्देशों-आदेशों के अनुसार संबंधित प्लेटफॉर्म्स के दुरुपयोग को रोकने के लिये उनके द्वारा किये गए उपायों पर अपडेट प्रदान करेंगी। IAMAI इन कंपनियों के साथ समन्वय करेगा और चुनाव अवधि के दौरान आयोग के साथ निरंतर संपर्क में रहेगा।

भारत में डिजिटल मीडियम के आगे बढ़ने की जो रफ्तार है, उसे देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि यह आगामी चुनावों को प्रभावित करने वाला एक बड़ा माध्यम बनेगा। इसके पीछे सबसे बड़ी वज़ह यह है कि यह मीडियम युवाओं के हाथ में है और समाज को प्रभावित करने में इसकी बड़ी भूमिका है। साथ ही, डिजिटल माध्यम में दोतरफा और बहुआयामी संवाद होता है, जिसमें एक साथ कई लोग अनेक लोगों से बात करते हैं। इसमें ग्रुप बनाने की भी सुविधा है, जिसकी वज़ह से लोगों की राय बनाने में ये माध्यम ज्यादा प्रभावी हैं। डिजिटल माध्यम से खबरें और विचार तुरंत लोगों तक पहुँचाए जा सकते हैं। इसीलिये इस माध्यम के ज़रिये राजनीतिक दल एक ही विषय-वस्तु को अलग-अलग तरीके से पहुँचा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान सोशल और डिजिटल मीडिया लोगों की राय को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका निभाएगा और इसकी अनदेखी करने वाले घाटे में रहेंगे।