पितृसत्ता की भूमिका और धर्म | 28 Jun 2021

यह एडिटोरियल दिनांक 25/06/2021 को द हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित लेख “Challenging patriarchy in religion” पर आधारित है जो पितृसत्ता को आगे बढ़ाने में धर्म की भूमिका के बारे में बताता है।

वर्ष 2006 में दुर्गा मंदिर मदुरै में एक महिला ने वहाँ की पूर्णकालिक पुजारी (उस मंदिर में पुजारी एक वंशानुगत पद) होने का दावा किया। उसके दावे से सहमत मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्णय सुनाया है कि "भगवान की वेदियों (टेबल जिस पर भगवान पर चढ़ाने वाली सामग्रियाँ रखी जाती हैं) को अवश्य ही लैंगिक पूर्वाग्रह से मुक्त रहना चाहिये।"

सबरीमाला निर्णय के बाद आए इस निर्णय को लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने की दिशा में एक सकारात्मक कदम के तौर पर देखा जा सकता है।

दुनिया भर के कई धर्मों में पितृसत्तात्मक धारणाएँ प्रवेश कर गई हैं जो महिलाओं को कुछ धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने से प्रतिबंधित करती हैं। उदाहरण के लिये महिलाओं पर प्रतिबंध उनके मासिक धर्म के आधार पर भी लगाए जाते हैं।

इसलिये महिलाओं को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र, चाहे वह आध्यात्मिक हो या भौतिक, में भाग लेने के अवसर सुनिश्चित करने के लिये धर्म और पितृसत्ता के बीच की कड़ी पर पूरी तरह से चर्चा करने की आवश्यकता है।

वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

  • सर्वोच्च न्यायालय ने केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए हर उम्र की महिला को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दे दी थी।
  • 4:1 के बहुमत से हुए फैसले में पाँच जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि हर उम्र की महिलाएँ सबरीमाला मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी।
  • इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा वर्ष 1991 में दिये गए उस फैसले को भी निरस्त कर दिया था जिसमें कहा गया था कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश करने से रोकना असंवैधानिक नहीं है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने ‘केरल हिंदू प्लेस ऑफ पब्लिक वर्शिप रूल’, 1965 (Kerala Hindu Places of Public Worship Rules, 1965) के नियम संख्या 3 (b) जो मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाता है को संविधान की कानूनी शक्ति से परे घोषित कर दिया था।

धर्म और पितृसत्ता के बीच संबंध

ऐसे कई तरीके हैं जिनसे धर्म पितृसत्ता को बढ़ावा दे सकता है:

  • धार्मिक शास्त्र/शिक्षाओं के माध्यम से: धर्मों की एक विस्तृत श्रृंखला में कई धार्मिक शिक्षाओं में महिलाओं को केवल पालन-पोषण, देखभाल और जन्म देने की भूमिका के रूप में देखा जाता है।
    • जबकि इन भूमिकाओं को सकारात्मक और आवश्यक रूप में प्रस्तुत किया जाता है किंतु फिर भी वे समाज में लिंग मानदंडों और पितृसत्तात्मक शक्ति संरचनाओं को सुदृढ़ करते हैं।
    • यदि महिलाएँ लैंगिक रूढ़ियों के अनुरूप नहीं होने का विकल्प चुनती हैं तो यह माना जाता  है कि वे न केवल लैंगिक मानदंडों और पारिवारिक अपेक्षाओं से बल्कि ईश्वर की इच्छा से भी भटक रही हैं।
    • पुरुष दैवीय संदेशों के प्राप्तकर्ता, व्याख्याता और प्रेषक के रूप में प्रमुख रहे हैं, जबकि महिलाएँ बड़े पैमाने पर शिक्षाओं की निष्क्रिय प्राप्तकर्त्ता और धार्मिक कर्मकांडों की भागी रही हैं।
  • धार्मिक प्रथाओं के माध्यम से: कई धर्मों में मासिक धर्म और गर्भावस्था दोनों को अशुद्ध या अधर्मी माना जाता है।
    • उदाहरण के लिये इस्लाम में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को कुरान को छूने की अनुमति नहीं है। इसी तरह हिंदू धर्म में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है।
    • सती प्रथा या विधवाओं द्वारा अपने पति की चिता पर आत्मदाह करने की प्रथा सदियों तक फलती-फूलती रही क्योंकि इसकी जड़ें पति के बिना एक महिला के अस्तित्व की निरर्थकता के विश्वास में निहित थीं।
  • धार्मिक संगठनों की संरचना के माध्यम से: हालाँकि कुछ धार्मिक संगठनों में महिलाओं को वरिष्ठ पदों पर रखा जाता है किंतु वे प्रायः निश्चित रूप से नियम के बजाय अपवाद प्रतीत होते हैं। 
    • पुरोहिती या धार्मिक समूह के नेतृत्त्व से महिलाओं के इस बहिष्कार ने उन्हें धार्मिक और सामाजिक जीवन में  हाशिये पर धकेल दिया।
  • एकेश्वरवादी धर्मों के माध्यम से: एकेश्वरवादी धर्मों का विकास उनके सभी शक्तिशाली पुरुष देवताओं (जैसे यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम और सिख धर्म) के माध्यम से हुआ है जिसने धर्म को पितृसत्तात्मक और लैंगिकवादी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की 
  • पितृसत्ता और धर्म तथा महिलाओं पर इसका प्रभाव
    • कारण और प्रभाव के रूप में कार्य करना: यदि पितृसत्ता समाज में सामान्य रूप से स्वीकार्य है तो इसका मुख्य कारण यह है कि यह धर्म से अपनी वैधता प्राप्त करती है, जो किसी भी समुदाय में सामाजिक रूप क्या सही और क्या गलत है, से संबंधित सबसे महत्त्वपूर्ण नियम पुस्तिका है।
    • माहिलाओं की हीन स्थिति : धर्म में पितृसत्तात्मक धारणाओं के कारण महिलाओं को पुरुषों की तुलना में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और लैंगिक रूप से कमज़ोर माना जाता है।
    • पुरुषों को प्रभावित करना क्योंकि यह महिलाओं को चोट पहुँचाता है: पितृसत्ता व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश करती है और यह पुरुषों को उतना ही नुकसान पहुँचाती है जितना कि यह महिलाओं को प्रभावित करती है।
    • राजनीति और धर्म: राजनीति में धर्म का उपयोग जनता को अपने पक्ष में करने के लिये एक उपकरण के रूप में किया जाता है किंतु इन सबका खामियाजा महिलाओं को सांस्कृतिक दृष्टिकोण के परिणामों के रूप में भुगतना पड़ता है।

आगे की राह 

  • धर्म के सच्चे सार का रहस्योद्घाटन: विश्व के कई धर्मों में महिलाओं की भूमिका को स्पष्ट रूप से दबाया नहीं गया है। इस प्रकार धर्म के वास्तविक सार को उजागर करने की आवश्यकता है।
    • उदाहरण के लिये ऋग्वेद ने ब्रह्मांड के निर्माण के पीछे स्त्री ऊर्जा के विचार की व्याख्या की। इसके अतिरिक्त वैदिक काल में माहिलाओं की सभी क्षेत्रों में भूमिका देखने को मिलती है।
  • समान नागरिक संहिता को लागू करना: संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि राज्य, संपूर्ण भारत में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।
    • लैंगिक समानता के आख्यान का विस्तार करने की दिशा में समान नागरिक संहिता को लागू करना सही दिशा में उठाया गया कदम होगा।
    • व्यक्तिगत कानूनों का संहिताकरण समय की मांग है। सभी व्यक्तिगत कानूनों का संहिताकरण किया जाए ताकि उनमें से प्रत्येक कानून में व्याप्त पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता को प्रकाश में लाया जा सके तथा संविधान के मौलिक अधिकारों के अनुरूप इन्हे समेकित किया जा सके।

निष्कर्ष

  • दुर्गा मंदिर का उदाहरण केवल एक सोशल  इंजीनियरिंग प्रयोग नहीं है बल्कि यह महिलाओं के लिये सभी अनुष्ठानों को खोलने हेतु अच्छा धार्मिक आधार भी है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: महिलाओं को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र चाहे वह आध्यात्मिक हो या भौतिक, में भाग लेने का अवसर दिया जाना चाहिये। चर्चा कीजिये।