नदी-जोड़ो: चुनौतियाँ और संभावनाएँ | 01 Jun 2019

केंद्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी नदी-जोड़ो परियोजना पर टीम दृष्टि द्वारा तैयार किये गए इस Editorial में Times of India में प्रकाशित आलेख Waterman finds gaping holes in Ken-Betwa promise तथा Hindu BusinessLine में प्रकाशित आलेख Against the odds, Centre forging ahead with ambitious river-interlinking project का विश्लेषण किया गया है और नदी-जोड़ो परियोजना की व्यवहार्यता तथा चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की गई है ।

संदर्भ

देशभर में समय-समय पर नदी-जोड़ो परियोजना को लेकर चर्चा होती रहती है तथा इसके पक्ष-विपक्ष में तमाम तर्क-वितर्क-कुतर्क पढ़ने-सुनने को मिलते हैं। हाल ही में राजस्थान सरकार ने ब्राह्मणी नदी से बीसलपुर बांध में पानी मिलाने के लिये नदियों को जोडऩे की योजना तथा बीसलपुर बांध के जलग्रहण क्षेत्र में एक मीटर तक तीनों प्रमुख नदियों से मिट्टी निकालने के कार्य सहित योजनाओं को धरातल पर लाने का प्रयास शुरू कर दिया है। इससे आने वाले समय में बांध में पानी का जलस्तर लगातार बने रहने की उम्मीद है। इस परियोजना पर 6 हज़ार करोड़ रुपए की लागत आने का अनुमान है। लेकिन किसी भी नदी-जोड़ो परियोजना की राह में जटिलताओं तथा चुनौतियों की कमी नहीं है। इस संदर्भ में भारत में नदियों को आपस में जोड़ने की जटिलताओं को समझना आवश्यक है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश

27 फरवरी, 2012 को अपने एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार और विशेषकर जल संसाधन मंत्रालय को जल संसाधन मंत्री की अध्यक्षता में नदियों को जोड़ने के कार्यक्रम के कार्यान्वयन हेतु एक समिति बनाने का निर्देश दिया था। इसके बाद केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री की अध्यक्षता में नदी-जोड़ो कार्यक्रम के कार्यान्वयन के लिये नदियों को जोड़ने की विशेष समिति 23 सितंबर, 2014 को बनाई गई। यह विशेष समिति नदी-जोड़ो परियोजनाओं की रूपरेखा बनाते समय और उन्हें तैयार करते समय सभी हितधारकों के सुझावों तथा टिप्पणियों पर विचार करती है।

नदियों को जोड़ना (River Interlinking) क्या है?

देश की कुछ नदियों में आवश्यकता से अधिक पानी रहता है तथा अधिकांश नदियाँ ऐसी हैं जो बरसात के मौसम के अलावा वर्षभर सूखी रहती हैं या उनमें पानी की मात्रा बेहद कम रहती है। ब्रह्मपुत्र जैसी जिन नदियों में पानी अधिक रहता है, उनसे लगातार बाढ़ आने का ख़तरा बना रहता है। राष्ट्रीय नदी-जोड़ो परियोजना (NRLP) ‘जल अधिशेष' वाली नदी घाटी (जहाँ बाढ़ की स्थिति रहती है) से जल की ‘कमी’ वाली नदी घाटी (जहाँ जल के अभाव या सूखे की स्थिति रहती है) में अंतर-घाटी जल अंतरण परियोजनाओं के माध्यम से जल के हस्तांतरण की परिकल्पना करती है। इसे औपचारिक रूप से राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (NPP) के रूप में जाना जाता है।

पारिभाषिक रूप से जल अधिशेष का अभिप्राय किसी नदी में उपलब्ध वह अतिरिक्त पानी है जो सिंचाई, घरेलू खपत और उद्योगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद शेष बच जाता है, लेकिन इस दृष्टिकोण में नदियों की स्वयं की जल आवश्यकताओं की अनदेखी की जाती है। जल की कमी को भी केवल मानव आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है, न कि नदी की स्वयं की आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में जिनमें कई अन्य कारक भी शामिल होते हैं।

बाढ़ और सूखे से निज़ात?

जब यह सवाल उठता है कि क्या नदियों को जोड़ने से सूखे और बाढ़ का प्रभाव कम होगा? तो इस मुद्दे पर केंद्र सरकार का सीधा जवाब होता है...हाँ, ऐसा होगा। परियोजना के गुण-दोषों पर बहस के बावजूद जल संसाधन मंत्रालय नदी-जोड़ो परियोजनाओं को लेकर बेहद सकारात्मक रवैया रखता है।

जल संसाधन मंत्रालय की ओर से कई बार संसद में यह कहा जा चुका है कि देश में जल प्रबंधन हेतु नदियों को आपस में जोड़ना महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसी के मद्देनज़र जल-अधिशेष वाले बेसिन से जल की कमी वाले बेसिन में पानी स्थानांतरित करने के लिये अगस्त 1980 में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (NPP) तैयार की गई थी। मंत्रालय का यह भी तर्क है कि NPP के तहत नदी-जोड़ो परियोजनाओं को इस तरह तैयार किया जाता है कि नदियों का बेहद कम पानी बिना उपयोग किये समुद्र में जाए तथा साथ ही कुछ हद तक बाढ़ और सूखे के प्रभाव को भी कम किया जा सके।

परियोजना का दायरा

राष्ट्रीय नदी-जोड़ो परियोजना में लगभग 3000 भंडारण बाँधों के नेटवर्क के माध्यम से देश भर में 37 नदियों को जोड़ने के लिये 30 लिंक शामिल होंगे। इसका लक्ष्य भविष्य में देश की पानी की ज़रूरतों को पूरा करना है। यह बेहद महत्त्वाकांक्षी परियोजना है, जिसके तहत 15 हज़ार किमी. लंबी नई नहरें बनानी होंगी, जिनमें 174 घन किमी. पानी का भंडारण किया जा सकेगा। NPP के अंतर्गत 30 नदी-जोड़ो परियोजनाओं (जिनमें 14 नदियाँ हिमालयी और शेष 16 प्रायद्वीपीय हैं) की रूपरेखा तैयार करने की ज़िम्मेदारी राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (NWDA) को सौंपी गई है।

इसके दो प्रमुख घटक हैं:

1. हिमालयी नदियों का विकास

  • इसका उद्देश्य गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के साथ नेपाल में उनकी सहायक नदियों पर भंडारण जलाशयों (Water Reservoirs) का निर्माण करना है।
  • इसका उद्देश्य बाढ़ नियंत्रण के साथ-साथ सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिये मानसून प्रवाह का संरक्षण करना है।
  • यह लिंकेज कोसी, गंडक और घाघरा के अधिशेष प्रवाह को पश्चिम में स्थानांतरित करेगा।
  • गंगा और यमुना के बीच एक लिंक का भी प्रस्ताव किया गया है ताकि हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में अधिशेष जल को स्थानांतरित किया जा सके।

2. दक्षिणी जल ग्रिड (Southern Water Grid): इसमें 16 लिंक शामिल हैं जिनके माध्यम से दक्षिण भारत की नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव है। यह कृष्णा, पेन्नार, कावेरी और वैगई नदियों को अतिरिक्त जल की आपूर्ति के लिये महानदी और गोदावरी को जोड़ने की परिकल्पना करता है। इस लिंकेज के लिये कई बड़े बाँधों और प्रमुख नहरों का निर्माण करना होगा। इसके अलावा केन नदी को भी बेतवा, पारबती, कालीसिंध और चंबल नदियों से जोड़ा जाएगा।

जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त सोसाइटी के तौर पर NWDA की स्थापना की गई, जिसका काम 1980 के NPP में नदी-जोड़ो के प्रस्तावों की समीक्षा करना है।

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दीर्घकालीन योजना

हर वर्ष देश के कई क्षेत्रों को गंभीर रूप से सूखे का सामना करना पड़ता है, ऐसे में राज्य और केंद्र मिलकर आपातकालीन योजनाओं के साथ स्थिति से निपटने की कोशिश करते हैं। अतः नदी जोड़ो की ठोस दीर्घकालिक योजना ही बनाई जानी चाहिये।

NPP के तहत सतही जल से 25 मिलियन हेक्टेयर और भूमिगत जल के उपयोग से 10 मिलियन हेक्टेयर सिंचाई का लाभ देने की परिकल्पना की गई है। इससे कुल सिंचाई क्षमता 140 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 175 मिलियन हेक्टेयर हो जाने का अनुमान है। इस प्रकार बाढ़ नियंत्रण, सूखा शमन आदि के साथ-साथ 34 मिलियन किलोवाट विद्युत् उत्पादन भी किया जा सकेगा।

मिहिर शाह समिति की रिपोर्ट

देश में जल प्रबंधन के मुद्दे पर मिहिर शाह समिति ने एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसका शीर्षक था...A 21st Century Institutional Architecture for India’s Water Reforms. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के अधिकांश प्रायद्वीपीय नदियाँ मानसून के बाद जल प्रवाह के गंभीर संकट का सामना करती हैं। भूजल का अत्यधिक दोहन करना भारत की प्रायद्वीपीय नदियों के सूखने का सबसे बड़ा कारण है। भूजल का आधार-प्रवाह सूखने की वज़ह से हमारी बहुत सारी नदियाँ विलुप्त हो चुकी हैं।

संभावित लाभ

  • जलविद्युत उत्पादन
  • सिंचाई संबंधी लाभ
  • वर्षभर नौवहन सुविधा
  • रोज़गार सृजन
  • सूखे और बाढ़ की समस्या का समाधान
  • पारिस्थितिकीय लाभ

विरोध के स्वर

इस परियोजना का विरोध करने वालों ने जल-जमाव, लवणता और परिणामी मरुस्थलीकरण जैसे सामाजिक-पारिस्थितिकीय प्रभावों के समग्र मूल्यांकन के अभाव का हवाला देते हुए इसकी उपादेयता पर प्रश्न उठाए हैं।

इनकी चिंताओं में प्रमुख हैं:

  • तलछट प्रबंधन के बारे में भी व्यापक चिंताएँ हैं, विशेष रूप से हिमालयी प्रणाली के संबंध में। जल ‘अधिशेष’ वाली हिमालयी नदी प्रणालियों से जल ‘कमी’ वाली दक्षिण भारतीय नदी घाटियों में जल के अंतरण को लेकर विचार के लिये अंतरीय तलछट व्यवस्था पर भी विचार करना होगा, जो प्रवाह सुनिश्चित करने के लिये निर्धारक होता है। इससे देश के दोनों भागों के पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव आएगा।
  • भारत के पूर्वी-तट की नदियों पर बाँध का निर्माण करना ताकि उनके जल को पश्चिम की ओर मोड़ा जा सके। इससे अनुप्रवाह क्षेत्र की बाढ़ पर रोक लग जाएगी, जिससे लाभकारी तलछट की आपूर्ति भी बाधित होगी। इससे संवेदनशील तटीय पारिस्थितिक तंत्र नष्ट होगा और तटीय व डेल्टा क्षेत्र के अपक्षरण की स्थिति बनेगी।
  • नदी-जोड़ो परियोजना में संघवाद की भावना की अनदेखी की गई है। राज्य सरकारों (जैसे केरल) की ओर से इस पर असंतोष प्रकट किया गया है।
  • वर्षा के आँकड़ों के एक नए विश्लेषण से पता चलता है कि अधिशेष जल वाली नदी घाटियों में मानसून की कमी बढ़ रही है, जबकि जल की कमी वाली नदी घाटियों में मानसून अपनी कमी से उबर रहा है।

नदी जोड़ो का संक्षिप्त इतिहास

  • नदियों की धारा को मोड़ने यानी नदियों को जोड़ने का विचार कोई नया नहीं है। एक ब्रिटिश सैन्य इंजीनियर आर्थर थॉमस कॉटन ने 1858 में ही बड़ी नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ने का प्रस्ताव दिया था ताकि ईस्ट इंडिया कंपनी को बंदरगाहों की सुविधा प्राप्त हो सके और दक्षिण-पूर्वी प्रांतों में बार-बार पड़ने वाले सूखे से निपटा जा सके।
  • तीन सरकारों में लगातार सिंचाई और बिजली मंत्री रह चुके कनूरी लक्ष्मण राव ने वर्ष 1972 में 2640 किमी. लंबी महत्त्वाकांक्षी नहर का प्रस्ताव दिया था, ताकि मॉनसून में पटना के करीब गंगा में आने वाले बाढ़ के पानी को दक्षिण में कावेरी तक पहुँचाया जा सके।
  • इसके दो साल बाद पेशेवर पायलट से जल प्रबंधन विशेषज्ञ बने दिनशॉ जे. दस्तूर ने हिमालय और पश्चिमी घाटों में लंबी दूरी से सिंचाई के लिये आपस में जुड़ी हुई नहरों (Garland Canal) का एक तंत्र बनाने की सिफारिश की थी।

स्नोई (Snowy) नदी का सबक

नदियों को जोड़ने के क्रम में भारत को ऑस्ट्रेलिया की स्नोई नदी योजना की विफलता को भी ध्यान में रखना चाहिये। इस योजना के तहत 145 किलोमीटर लंबे नहर तंत्र और 80 किलोमीटर लंबे जल-प्रणाल (Aqueducts) के माध्यम से स्नोई नदी (जो पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के निर्जन पर्वतीय क्षेत्र में तस्मान सागर की ओर बहती है) की घाटी से सालाना 1.1 क्यू. किमी. पानी मर्रे-डार्लिंग (सिंचाई और जल आपूर्ति के लिये विकसित अंतर्देशीय नदी) घाटी की ओर स्थानांतरित किया जाता था। इस योजना का कार्यान्वयन 1949 में शुरू हुआ था।

जैसे ही स्नोई नदी अपने 16 बांधों में से एक सबसे बड़े बांध से होकर गुज़री, उसका प्रवाह 99 प्रतिशत तक कम हो गया, क्योंकि अनुप्रवाह क्षेत्र में इसका जल शहरों-ग्रामों की ओर मोड़ दिया गया था। वर्ष 2007 की WWF की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस योजना के डिज़ाइन ने अनुप्रवाह क्षेत्र में नदी के आर्द्र पर्यावास की पूरी तरह अनदेखी की थी और इसे नष्ट कर दिया। स्नोई नदी के प्रवाह को पुनर्बहाल करने के प्रयासों पर 2,381 करोड़ रुपए (358 मिलियन डॉलर) का खर्च आया जो 4191 करोड़ रुपए (630 मिलियन डॉलर) की मूल योजना का लगभग 57 प्रतिशत था।

बेहद महँगी, जटिल तथा चुनौतीपूर्ण

साउथ एशिया नेटवर्क ऑफ डैम्स, रीवर्स ऐंड पीपल के अनुमानों के अनुसार, यह परियोजना करीब 15 लाख लोगों को उनके स्थानों से विस्थापित कर देगी, क्योंकि इससे कम-से-कम 27.66 लाख हेक्टेयर भूमि डूब क्षेत्र में आ जाएगी, जिनकी ज़रूरत स्टोरेज ढाँचों और नियोजित नहरों के नेटवर्क के लिये पड़ेगी। इस परियोजना के तहत जो कुल क्षेत्रफल आएगा, उसमें 1,04,000 हेक्टेयर वन भूमि भी है, जिसमें अभयारण्य और प्राणी उद्यान आते हैं। इसके अलावा इस परियोजना पर आने वाली लागत भी कम नहीं है, जो 2002-03 की कीमतों के आधार पर 5.6 लाख करोड़ रुपए आँकी गई थी। अब इसकी अनुमानित लागत लगभग 11 लाख करोड़ रुपए आँकी गई है, जिसमें भूमि अधिग्रहण, मुआवज़ा और पुनर्निर्माण इत्यादि की लागत भी शामिल है।

आगे की राह

  • स्थानीय समाधान, जैसे सिंचाई के बेहतर तरीके और वाटरशेड प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • सरकार को राष्ट्रीय जलमार्ग परियोजना पर तेज़ी से काम करना चाहिये जो नदी जल के बँटवारे को लेकर राज्यों के बीच संघर्ष को समाप्त करता है क्योंकि यह केवल समुद्र की ओर प्रवाहित अप्रयुक्त अतिरिक्त बाढ़ के पानी का ही उपयोग करता है।
  • नदियों को जोड़ने की आवश्यकता और व्यवहार्यता को मामला-दर-मामला देखा जाना चाहिये तथा साथ ही संघीय मुद्दों को सरल रखने पर पर्याप्त ज़ोर होना चाहिये।

एकीकृत तरीके से जल संसाधनों का विकास और इसके लिये लघु अवधि और दीर्घावधि के तमाम उपायों को अपनाया जाना समय की मांग है। सही तरीके से समयबद्ध रूप से अमल किया जाए तो एक नदी घाटी से दूसरे नदी घाटी क्षेत्र में पानी पहुँचाने वाली जल संसाधन परियोजनाएँ पानी की उपलब्धता के असंतुलन को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रतिकूल प्रभावों के शमन में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

अभ्यास प्रश्न: केवल विकास के नाम पर विकास एक गलत विचारधारा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत में नदियों को परस्पर जोड़ने की चुनौतियों को उजागर करें।