संदर्भ
हाल ही में राफेल युद्धक विमान मुद्दे पर अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में राफेल सौदे वाले दस्तावेज़ की चोरी/फोटोकॉपी के लिये ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ सरकारी गोपनीयता कानून (Official Secrets Act) 1923 के तहत आपराधिक कार्रवाई करने की बात कही। यह भी दलील दी गई कि सूचना/जानकारी का इस्तेमाल और उसका प्रचार करने की संवैधानिक स्वतंत्रता सरकारी गोपनीयता कानून, 1923 के प्रावधानों से सीधे प्रभावित होती है। इससे पहले अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों की वज़ह से राफेल के बारे में जानकारी नहीं दी जा सकती।
बहुत पुराना है कानून
औपनिवेशिक शासन में गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिये सामान्यतः राष्ट्रीय सुरक्षा और जासूसी के मुद्दों पर अधिकारियों द्वारा सूचना को गोपनीय रखने के लिये यह कानून लाया गया था। मूल रूप से यह इंडियन ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, 1889 के रूप में जाना जाता था। वायसराय लॉर्ड कर्ज़न के कार्यकाल के दौरान इस अधिनियम में संशोधन किया गया और इसे द इंडियन ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, 1904 के रूप में और अधिक कठोर बनाया गया। 1923 नाम दिया गया और देश में शासन में गोपनीयता बरतने लायक सभी मामलों को इसके तहत लाया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी यह कानून बरकरार रहा।
इस कानून की प्रमुख धाराएँ
इस अधिनियम की विभिन्न धाराओं में महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं तथा अन्य प्रावधानों का उल्लेख है। इसकी धारा 3 में जासूसी या गुप्तचरी से संबंधित निषेधात्मक कार्यों के बारे में बताया गया है। इसके तहत देश की सुरक्षा तथा राष्ट्रहित के विरुद्ध कार्य के उद्देश्य से निम्नलिखित को दंडनीय माना गया है:
इस अधिनियम की धारा 5 में उन जानकारियों का उल्लेख है जिन्हें सरकार गुप्त मानती है। आपको बता दें कि यह धारा सीधे तौर पर प्रेस के विरुद्ध नहीं है, लेकिन प्रेस इससे बहुत ज़्यादा प्रभावित होती है। इसका दायरा बहुत व्यापक होने के कारण सरकार को विभिन्न मामलों में इसका उपयोग करने का अधिकार है।
यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकार क्षेत्र की जानकारी का किसी विदेशी के लाभ के लिये उपयोग करे, देश की सुरक्षा के खिलाफ प्रयोग करे, ऐसे रेखाचित्र, लेख, दस्तावेज़, मॉडल आदि अपने पास रखे जिन्हें रखने का वह अधिकारी न हो अथवा अपने अधिकार क्षेत्र के ऐसे दस्तावेज़ों की सावधानीपूर्वक रक्षा न करे जिससे उनके शत्रु के हाथ में पड़ जाने का खतरा हो तो उसे सज़ा हो सकती है।
लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है यह कानून
सूचना अधिकार अधिनियम 2005 के परिप्रेक्ष्य में सरकारी गोपनीयता कानून, 1923 की समीक्षा करने के लिये केंद्र सरकार ने 2015 में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया था। इस समिति में गृह मंत्रालय, कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग तथा कानून मंत्रालय के सचिव शामिल थे। इसने 16 जून, 2017 को कैबिनेट सचिवालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें सिफारिश की गई कि सरकारी गोपनीयता कानून को अधिक पारदर्शी और RTI अधिनियम के अनुरूप बनाया जाए।
आगे की राह
यदि कोई सूचना ऐसी है जिसको गुप्त रखा जाना देश की एकता व अखंडता की रक्षा के लिये आवश्यक है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये। यदि कोई व्यक्ति ऐसी संवेदनशील जानकारी को सार्वजनिक कर दे तो उसे कठोर दंड देने का प्रावधान होना चाहिये। सरकारी गोपनीयता कानून, 1923 को इसी आधार पर बनाया गया था। इसका मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि देश की अखंडता व एकता को अक्षुण्ण रखने के लिये जिन बातों का गुप्त रहना आवश्यक है उन्हें गुप्त ही रखा जाना चाहिये।
सरकारी गोपनीयता कानून, 1923 में पहले 1951 में मामूली संशोधन किये गए और बाद में 1967 में इसे व्यापक रूप से संशोधित किया गया। इसके बाद इसकी समय-समय पर समीक्षा होती रही है। कह सकते हैं कि 1923 का यह कानून उन भारतीय कानूनों में से एक है जो मूलतः औपनिवेशिक हैं और भारत जैसे स्वतंत्र समाज में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिये। सरकारी गोपनीयता कानून सूचना के मूल अधिकार को चुनौती देता है, गोपनीयता की संस्कृति को बढ़ावा देता है और भ्रष्टाचार के लिये ज़मीन तैयार करता है।
हमारे कई पुराने कानूनों की तरह सरकारी गोपनीयता कानून भी गुज़रे जमाने का है और मौज़ूदा दौर में अप्रासंगिक हो गया है। इस कानून के प्रावधान मौजूदा समय के अनुकूल नहीं हैं, इसलिये इनमें पर्याप्त बदलाव की ज़रूरत है। अब समय आ गया है कि इस कानून को मौज़ूदा परिस्थतियों के अनुरूप बनाया जाए।
स्रोत: Indian Express में 13 मार्च को प्रकाशित आलेख Secrets are not Sacred तथा अन्य स्रोतों से एकत्र की गई जानकारी पर आधारित