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गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ और बैड बैंक की अवधारणा का औचित्य | 15 Feb 2017 | अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भूमिका

गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ (non-performing assets-NPA) किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये बोझ हैं| ये देश की बैंकिंग व्यवस्था को रुग्ण बनाते हैं| गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से ‘बैड लोन’(ख़राब ऋण)और ‘बैड एसेट’ (ख़राब परिसम्पत्तियाँ) में बेतहाशा वृद्धि हुई है, विदित हो कि बैड लोन और बैड एसेट से ही मिलकर बनती हैं ‘गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ’ | बैड लोन से बैंको के लाभांश में कमी आती है, फलस्वरूप बैंक के लिये ऋण देना मुश्किल हो जाता है| बैंको की साख़ दर में लगातार गिरावट, वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण चिंता बनी हुई है| गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों की समस्या से निपटने के लिये हाल के वर्षों में एक नई अवधारणा निकलकर सामने आ रही जिसका नाम है “बैड बैंक”| कहते हैं ‘भूत से सबक लेकर व्यक्ति को वर्तमान में भविष्य का चिंतन करना चाहिये’ अर्थव्यवस्था की तमाम बातों पर यह उक्ति लागू होती है और बैड बैंक की अवधारणा भी इससे अछूती नहीं है| अतः पहले यह समझते हैं कि अब तक गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों की समस्या का समाधान हमने कैसे किया है? तत्पश्चात हम यह देखेंगे कि भारत को गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के दलदल से निकालकर विकास-पथ पर ले जाने में बैड बैंक कहाँ तक सार्थक है?

बैंक कैसे करते हैं गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों का प्रबंधन?

गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के प्रबंधन में आने वाली दिक्कतें

क्या है बैड बैंक?

बैड बैंक का सिद्धांत स्वागत योग्य क्यों?

बैड बैंक से संबंधित समस्याएँ ?

निष्कर्ष