अंतर्राष्ट्रीय यथार्थवाद की आवश्यकता | 02 Sep 2020

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में समुद्री सुरक्षा की आवश्यकता व महत्त्व से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

21वीं शताब्दी को चीन और भारत की सदी के रूप में समाहित किया गया है। हालाँकि दोनों देशों के राष्ट्रीय हित अंतर्राष्ट्रीयता के पालन के साथ संघर्ष में बदल दी जाती है। इसके अलावा हाल ही में हुआ गलवान घाटी संघर्ष या निर्माणाधीन चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (जो भारत की क्षेत्रीय संप्रभुता का उल्लंघन करता है) में चीन की आक्रामक रणनीति भारत के लिये एक प्रमुख नीतिगत चुनौती रही है। जैसा कि भारत के विदेश मंत्री ने कहा है कि भारत के सामने अब एक बड़ी चुनौती यह है कि उसे स्वयं के उदय को सुनिश्चित करते हुए अधिक शक्तिशाली पड़ोसी का प्रबंधन करना है। हालाँकि अंतर्राष्ट्रीयता हमेशा भारत की विदेश नीति का एक प्रमुख आधार रहा है, चीन के संबंध में अधिक यथार्थवादी विदेश नीति की आवश्यकता है।

अंतर्राष्ट्रीय यथार्थवाद की आवश्यकता

  • लूप-साइडेड आर्थिक व्यापार: भारत में चीन के साथ अधिक व्यापार करने की वकालत ने अब इसकी एकतरफा स्थिति को मज़बूत करने का मार्ग प्रशस्त किया है।.
    • व्यापार घाटे में अधिकता के कारण भारत ने चीनी वस्तुओं पर निर्भरता विकसित की है। 
    • इस तथ्य को देखते हुए भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (Regional Comprehensive Economic Partnership- RCEP) से हाथ खींच लिया क्योंकि भारत के राष्ट्रीय वाणिज्यिक हितों और चीन के नेतृत्त्व वाले एशियाई आर्थिक क्षेत्रवाद के बीच विरोधाभास था।
  • चीन का विस्तारवाद: चीन अपनी सीमाओं का विस्तार करने के लिये एक 'अतार्किक शक्ति' या 'विस्तारवादी शक्ति' की तरह व्यवहार कर रहा है।
    • चीन लंबे समय से भारतीय सीमा के पश्चिमी, मध्य और पूर्वी खंड के क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिये इच्छुक है।
    • BRI परियोजना के माध्यम से चीन का उद्देश्य अपने पड़ोस और संपूर्ण  एशिया, यूरोप में भू-रणनीतिक रूप से हावी होना है।
  • चीन का बढ़ता प्रभाव: शीत युद्ध के बाद भारत ने एशियनिज्म को फिर से अपनाया जब उसने लुक ईस्ट नीति (Look East Policy) का समर्थन किया और दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (Association of South-East Asian Nations) के नेतृत्त्व में एशियाई क्षेत्रीय संस्थानों में शामिल हो गया।
    • पूर्वी एशिया में आर्थिक क्षेत्रवाद की खोज और वैश्विक बहु-ध्रुवीयता के ज़ोर ने चीन के तेजी से आर्थिक और राजनीतिक परिणामों को गंभीर रूप से कम करके आँका था।
    • चीन स्ट्रिंग्स ऑफ पर्ल (Strings of pearls) और CPEC के माध्यम से भारत पर दबाब बना रहा है। 
  • वैश्विक संस्थानों की प्रभावहीनता: अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने की चाह रखने वाले वैश्विक संस्थानों के निर्माण में उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को अब बड़ी असफलताओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके परिणाम स्वरुप ब्रेक्जिट और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के रणनीतिक समन्वय में गिरावट जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं।

भारत की यथार्थवादी अंतर्राष्ट्रीय नीति

यथार्थवादी अंतर्राष्ट्रीय नीति के चीन के संदर्भ में यह अर्थ होगा कि भारत को चीन के उदय और व्यापक राष्ट्रीय शक्ति के अंतराल के उद्देश्य आकलन करना चाहिये। इसे समान विचारधारा वाले देशों के साथ समन्वय स्थापना की परिकल्पना भी की जानी चाहिये ताकि शक्ति और क्षेत्रीय शांति के मध्य साम्यता बनाई जा सके। इसके अनुसरण में भारत विदेश नीति की पहल पर ध्यान केंद्रित कर सकता है:

  • पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाना: भारत पहले से ही  U.S. का "नजदीक सहयोगी" रहा है और कई यूरोपीय देशों के साथ उसके रणनीतिक संबंध हैं।
    • चीन को हिंद महासागर तक पहुँचने से रोकने के लिए भारत को हर संभव कोशिश करनी चाहिये।
    • भारत और अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम, इंडोनेशिया जैसे देशों के बीच सामरिक अभिसरण की आवश्यकता है ताकि इंडो-पैसिफिक रणनीति तैयार की जा सके और चीन की सैन्य और आर्थिक शक्ति को संतुलित किया जा सके।
      • चतुर्भुज सुरक्षा संवाद (Quadrilateral Security Dialogue- Quad) को भी समान विचारधारा वाले देशों को शामिल करने के लिए बढ़ाया जा सकता है।
    • इसके अलावा G-7 जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के विस्तार और भारत को शामिल करने का प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय मामलों में चीन के प्रभाव को संतुलित करने में सहायक होगा।
  • हार्ड पावर को मज़बूत बनाना: माउंटेन स्ट्राइक कॉर्प्स डिवीजनों को मज़बूत करने और एक थिएटर कमांड स्थापित करने की तत्काल आवश्यकता है।
  • राजनयिक आक्रामक रवैया अपनाना: भारत को चीन की आक्रामक नीतियों और रणनीति के विपरीत अपने शांतिपूर्ण इरादों को उजागर करने की आवश्यकता है।
    • भारत द्वारा अपनाये गये तकनीकी सहायता कार्यक्रम न केवल भारत और अन्य विकासशील देशों के बीच एक स्थायी संबंध प्रदान करते हैं इसके अतिरिक्त ये चीनी सहायता से भी निरपेक्ष हैं।
  • पड़ोस पहले की नीति: भारत को अपने पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, बांग्लादेश, ईरान, वियतनाम जैसे सहयोगियों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिये, जो पश्चिम के साथ संबंधों को मज़बूत करने के पक्षधर नहीं है।
    • एशिया के छोटे देश जो लगातार अपने आंतरिक मामलों में चीन के आक्रामक हस्तक्षेप का सामना करते हैं, उन्हें भारत से अधिक समर्थन नहीं मिला है और इसके लिए उन्हें भारत का अधिक सहयोग मिलना चाहिये।
  • आत्मनिर्भर बनना: भारत को अधिक भुगतान करने वाली नौकरियों, प्रौद्योगिकी और तकनीकी के साथ ही निर्यात और निवेश बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है। जिससे भारत को चीनी आयात से अपनी आर्थिक निर्भरता कम करने और आत्मनिर्भरता हासिल करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष 

अगर अभी तक हुई प्रगति को खतरे में नहीं डालना है तो सीमा पर शांति कायम होना चाहिये। सीमा और संबंधों के भविष्य को अलग नहीं किया जा सकता है।इस प्रकार चीनी शक्ति से निपटने के लिए भारत को अधिक अंतर्राष्ट्रीयता की आवश्यकता है। लेकिन यह एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीयतावाद होना चाहिये जो यथार्थवाद में निहित हो और भारत की आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकताओं पर आधारित हो।

Realism-and-Liberalism

मुख्य परीक्षा प्रश्न

भारत की चीन नीति को अंतर्राष्ट्रीय यथार्थवाद में निहित किया जाना चाहिये, जिसे भारत की आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकताओं के साथ जोड़ा जाना चाहिये। चर्चा कीजिये।