शांति की तलाश में नगालैंड: अधर में लटका नगा समझौता | 28 Jan 2019

संदर्भ


चार साल पहले केंद्र सरकार और नगा समूहों के बीच हुए ऐतिहासिक नगा फ्रेमवर्क समझौते (Naga Framework Agreement) के बावजूद नगालैंड में स्थायी शांति एक सपना जैसी बनी हुई है। केंद्र सरकार ने यह समझौता नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (National Socialist Council of Nagaland-NSCN) के नेता इसाक-मुइवा के साथ किया था, जिसमें अन्य विद्रोही गुटों का प्रतिनिधित्व भी था। लेकिन ऐसी कई वज़हें हैं, जिनसे इस समझौते से केवल निराशा हाथ लगी है।

नगालैंड में उग्रवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • 1826 में अंग्रेज़ों ने असम को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया तथा 1881 में नगा हिल्स भी इसका हिस्सा बन गया।
  • 1946 में अंगामी ज़ापू फिज़ो के नेतृत्व में नगा नेशनल काउंसिल (NNC) का गठन किया गया, जिसने 14 अगस्त, 1947 को नगालैंड को ‘एक स्वतंत्र राज्य’ घोषित किया।
  • 22 मार्च, 1952 को फ़िज़ो ने ‘भूमिगत नगा फेडरल गवर्नमेंट’ (NFG) और ‘नगा फेडरल आर्मी’ (NFA) का गठन किया।
  • उग्रवाद से निपटने के लिये भारत सरकार ने सेना के अंतर्गत 1958 में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (AFSPA) बनाकर वहां लागू किया।
  • 1963 में असम के नगा हिल्स ज़िले को अलग कर नगालैंड राज्य बनाया गया।
  • 11 नवंबर, 1975 को शिलॉन्ग समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिये NNC नेताओं का एक गुट सरकार से मिला, जिसमें हथियार छोड़ने पर सहमति जताई गई।
  • थिंजलेंग मुइवा (जो उस समय चीन में थे) की अगुवाई में लगभग 140 सदस्यों के एक गुट ने शिलॉन्ग समझौते को मानने से इनकार कर दिया। इस गुट ने 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (NSCN) का गठन किया। 
  • 1988 में एक हिंसक टकराव के बाद NSCN का विभाजन हो गया तथा यह इसाक-मुइवा और खपलांग गुटों में बँट गई।
  • कालांतर में खपलांग की मौत हो गई और उसका गुट कमज़ोर पड़ गया तथा अधिकांश विद्रोही समूह इसाक-मुइवा गुट में शामिल हो गए।

क्या कमियाँ रहीं नगा शांति समझौते में?

  • नगा शांति समझौते की एक सबसे बड़ी चुनौती इसका उद्देश्य रहित होना है और यह स्थानीय लोगों की समझ से बाहर है।
  • इस समझौते को नगालैंड में भी सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन ’विशेष व्यवस्था’ को लेकर चर्चा होती रहती है, जिसकी वज़ह से सरकार एवं विद्रोहियों के बीच संशय की स्थिति बनी हुई है।
  • नगाओं से संबंधित मुद्दे न केवल नगालैंड में रहने वाले नगाओं को, बल्कि म्याँमार में बसे हुए नगाओं सहित समस्त नगा क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं।
  • मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगा-बहुल क्षेत्रों का एकीकरण कर ग्रेटर नगालिम बनाने की मांग से हिंसक झड़पों को बढ़ावा मिलेगा।
  • पूर्वी नगालैंड पब्लिक ऑर्गनाइज़ेशन (Eastern Nagaland Public Organization-ENPO) के तहत एक अलग फ्रंटियर नगालैंड या पूर्वी नगालैंड बनाने की मांग की जा रही है, जो ग्रेटर नगालिम बनाने के प्रयास को कमज़ोर करेगा।
  • नगालैंड में शांति प्रक्रिया की राह में एक और बड़ी बाधा यहाँ अनेक संगठनों का मौज़ूद होना है, जो सभी नगाओं का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं।

विद्रोहियों की मांग


वर्तमान में NSCN (IM) ने पूर्ण संप्रभुता की अपनी मांग छोड़ दी है और यह भारतीय संवैधानिक ढाँचे के तहत अधिक स्वायत्त क्षेत्र चाहता है, जो नगा इतिहास और परंपराओं की विशिष्टता से जुड़ा है। यह गुट ‘ग्रेटर नगालिम’ की बात करता है, जिसमें नगालैंड के साथ निकटवर्ती नगा क्षेत्र में बसे हुए लोग भी शामिल हों। इसमें असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर के कई ज़िले तथा म्याँमार का एक बड़ा भाग भी शामिल है।

क्यों नहीं लागू हो पाता कोई भी समझौता?

  • लगभग सभी विद्रोही समूहों का सशस्त्र ढाँचा है, जो संघर्ष विराम के बाद भी बरकरार है। इन समूहों के खिलाफ कोई कार्रवाई न होने के बावजूद हिंसा में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है और न ही उनके संसाधन कम हो रहे हैं। इस वज़ह से शांति व्यवस्था के लिये खतरा लगातार बना रहता है।
  • विद्रोही समूहों ने राज्य में अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र स्थापित कर लिये हैं, जिनमें प्रत्येक समूह अपनी समानांतर सरकार चला रहा है और नगाओं के साथ-साथ गैर-नगाओं से भी भारी मात्रा में ज़बरन धन उगाही कर रहा है।
  • इसाक-मुइवा और खपलांग गुटों के बीच गंभीर मतभेद हैं, जो शांति स्थापित करने वाले किसी भी समझौते की राह में सबसे बड़ी बाधा है।
  • इस क्षेत्र को अस्थिर करने में राजनीति ने भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। राजनीतिक दलों द्वारा विद्रोही समूहों का इस्तेमाल चुनाव प्रक्रिया में लाभ उठाकर सत्ता में आने के लिये किया जाता है।
  • नगा आंदोलन जिस उद्देश्य के लिये चलाया गया था, वह अपने मूल लक्ष्यों और वैचारिक रुख से भटक चुका है। ऐसे में प्रमुख विद्रोही गुटों के नेता सफलता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।
  • नगा गुटों के नेता एवं कैडर अब भौतिक लाभों की वज़ह से संघर्ष को जारी रखे हुए हैं, जो ज़बरन वसूली तथा संगठित अपराध से ज़्यादा और कुछ नहीं है।
  • संसाधनों के दोहन के लिये प्रायः सरकारें स्थानीय लोगों की अनुमति के बिना उनकी भूमि का इस्तेमाल करती हैं। यही कारण है कि सरकारी परियोजनाओं पर जनजातीय समूहों का विश्वास कम होता जा रहा है।
  • संसाधन संपन्न होने के बावजूद क्षेत्र में विकास, रोज़गार एवं बुनियादी सुविधाएँ आज भी यहाँ के जनजातीय समूहों के लिये दूर का सपना बनी हुई है।

किस राह पर आगे बढ़ा जाए?

  • नगा संघर्ष के इतिहास से पता चलता है कि विभिन्न दलों द्वारा अपनी सुविधानुसार की गई भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के कारण अब तक हुए अधिकतर समझौते विफल रहे हैं।
  • सरकारों को मिल-बैठकर इस समस्या का समग्र हल तलाशने का प्रयास करना चाहिये, अन्यथा बार-बार विफलता ही हाथ लगेगी। इसके परिणामस्वरूप नए विद्रोही नगा गुट जन्म लेंगे, जो समस्या को बढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं करेंगे। 
  • विद्रोह को बनाए रखने के लिये विदेशों से संसाधनों (हथियारों तथा धन) की उपलब्धता पर प्रभावी रोक लगाने के हरसंभव प्रयास करने की ज़रूरत है।
  • नगा समस्या पर व्यापक समझ कायम करते हुए जनजातीय समूहों तथा अन्य लोगों की बदलती आकांक्षाओं के मद्देनज़र स्वीकार्य एवं व्यापक समाधान तलाशने की आवश्यकता है।
  • इस मुद्दे से निपटने का एक अन्य मार्ग जनजातीय समूहों में शक्तियों का अधिकतम विकेंद्रीकरण और शीर्ष स्तर पर न्यूनतम केंद्रीयकरण हो सकता है। इससे शासन को जनोन्मुख बनाने और वृहद् विकास परियोजनाओं को शुरू करने की दिशा में आसानी होगी।

पूर्वोत्तर भारत में नगालैंड को उग्रवाद का केंद्रबिंदु कहा जाता है, जहाँ 1950 के दशक के बाद से उग्रवाद ने अपने पैर पसार रखे हैं। बेशक राज्य में शांति स्थापित होना एक बड़ी चुनौती है, लेकिन किसी भी नगा शांति पहल को लागू करते समय असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश राज्यों की वर्तमान क्षेत्रीय सीमाओं को खतरा उत्पन्न नहीं होना चाहिये, जो कि इन राज्यों को हर्गिज़ स्वीकार्य नहीं होगा। इन राज्यों में नगा आबादी वाले क्षेत्रों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की जा सकती है और इन क्षेत्रों के लिये उनकी संस्कृति एवं विकास हेतु अलग से बजट आवंटन भी किया किया जा सकता है। संभव हो तो एक नए निकाय का गठन किया जाना चाहिये, जो नगालैंड के अलावा अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में नगाओं के अधिकारों की निगरानी करेगा।

इन सबके अलावा, किसी भी समझौते को लागू करते समय खपलांग गुट को भी साथ लेना ज़रूरी है, तभी पूर्वोत्तर भारत में नगावासियों के इलाकों में दशकों की अशांति और हिंसा के बाद सही मायने में शांति स्थापित हो सकेगी। यदि नगाओं के साथ किया गया कोई भी समझौता पूर्वोत्तर के इस सबसे पुराने सशस्त्र जातीय संघर्ष का शमन करने में सफल होता है तो पूर्वोत्तर के अन्य जातीय संघर्षों को हल करने की राह खुल सकती है, जिनमें कुकी, मैती, बोडो, दिमासा, हमार और कर्बी आदि शामिल हैं।