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लैंगिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण | 29 Jun 2021 | भारतीय समाज

यह एडिटोरियल दिनांक 28/06/2021 को द हिंदू में प्रकाशित लेख "On the margins with full equality still out of reach" पर आधारित है। यह लेख LGBTQ+ समुदाय के साथ जुड़े मुद्दों से संबंधित है।

वर्ष 1970 के दशक के दौरान समलैंगिकता को एक मानसिक विकार के रूप में माना जाता था  लेकिन 1970 के दशक के बाद डॉ. फ्रैंक कामेनी जैसे कई सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के प्रयासों से वैश्विक LGBTQ+ समुदाय अपने अधिकारों और समान स्थिति के लिये आगे बढ़ा।

हालाँकि भारत में समलैंगिक समुदाय अभी भी एक कलंकित और अदृश्य अल्पसंख्यक है।  इसके अलावा जो कुछ भी लाभ समलैंगिक समुदाय को प्राप्त हुआ है वह न्यायपालिका द्वारा प्रदान किया गया है;  विधायिकाओं द्वारा नहीं।

अभी तक हुए न्यायिक निर्णयों के बावजूद भारत के लैंगिक अल्पसंख्यकों को रोज़गार, स्वास्थ्य के मुद्दों और व्यक्तिगत अधिकारों के संबंध में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।  यह इसे देश के उदार और समावेशी संविधान के साथ असंगत बनाता है।

LGBTQ+ के कल्याण में न्यायपालिका की भूमिका

 LGBTQ+  के खिलाफ भेदभाव 

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019

Transgender Persons (Protection of Rights) Bill 2019

आगे की राह

 निष्कर्ष

दृष्टि मेन्स प्रश्न: न्यायिक फैसलों के बावजूद भारत के लैंगिक अल्पसंख्यकों को रोज़गार, स्वास्थ्य के मुद्दों और व्यक्तिगत अधिकारों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।  चर्चा कीजिये।