भारत में बेरोज़गारी के सटीक सर्वेक्षण का अभाव | 14 Feb 2019

संदर्भ

हाल में आई एक सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत की श्रम भागीदारी दर वैश्विक मानकों से बहुत कम है और विमुद्रीकरण के बाद इसमें और गिरावट दर्ज की गई है तथा इसका महिलाओं की भागीदारी पर अधिक असर पड़ा है।

किसने किया यह सर्वेक्षण?

  • मासिक आधार पर बेरोज़गारी दर का मापन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund-IMF) के विशेष डेटा प्रसार मानक (Special Data Dissemination Standard-SDDS) के तहत किया जाता है। विशेष डेटा प्रसार मानक यानी SDDS 1996 में बनाए गए थे और भारत इसके शुरुआती हस्ताक्षरकर्त्ता देशों में से एक था।
  • SDDS अपने सदस्य देशों को सार्वजनिक रूप से पर्याप्त आर्थिक और वित्तीय जानकारी प्रदान करके अंतर्राष्ट्रीय पूंजी बाजारों तक पहुँचने में मदद करता है।
  • भारत SDDS के अधिकांश मानकों का अनुपालन करता है, लेकिन बेरोज़गारी मापन इसका एक अपवाद है अर्थात् बेरोज़गारी मापन में भारत SDDS का अनुपालन नहीं करता।
  • दरअसल, भारत सरकार मासिक बेरोज़गारी दर मापने के लिये कोई भी तरीका नहीं अपनाती और न ही ऐसा करने की कोई योजना है।
  • भारत में त्रैमासिक और वार्षिक आधार पर बेरोज़गारी को मापने की आधिकारिक योजना भी प्रभावी तरीके से काम नहीं करती है।
  • इसकी वज़ह से विश्व की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने और जनसांख्यिकीय लाभांश (Demographic Dividend) का सबसे बड़ा लाभार्थी होने के बावजूद भारत इसका लाभ नहीं उठा पाता।

Centre for Monitoring India Economy-CMIE

  • 2014 में Household Well-being को मापने के लिये तेज़ी से आँकड़े जुटाने में सरकार की असफलता के मद्देनज़र CMIE ने Fast Frequency Measures जैसे कुछ विशेष उपायों की सहायता से इस कमी को पूरा करने का फैसला किया।

इसके लिये किये जाने वाले अपने घरेलू सर्वेक्षण को CMIE ने उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण (Consumer Pyramids Household Survey-CPHS) नाम दिया। सरकार के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (National Sample Survey Office-NSSO) के 101,724 लोगों के सैंपल सर्वे की तुलना में CMIE ने 172,365 लोगों को सैंपल सर्वे में शामिल किया। दोनों ही सर्वेक्षणों की कार्य पद्धति लगभग समान थी।

  • CPHS का दायरा अधिक व्यापक है और इसके तहत प्रत्येक चार महीने में सर्वेक्षण किया जाता है।
  • किसी अन्य सतत यानी लगातार होते रहने वाले सर्वेक्षण की भाँति CPHS भी एक लहर की तरह है जो बराबर उठती रहती हैं। इसीलिये एक वर्ष में तीन बार यह सर्वेक्षण किया जाता है।
  • इसी तरह CMIE का सैंपल सर्वे का आकार अपेक्षाकृत काफी बड़ा है और NSSO की तुलना में इसमें अधिक लोगों को शामिल किया जाता है।

इसके अलावा, CPHS में आमने-सामने बातचीत की जाती है, जिसमें GPS युक्त स्मार्टफोन या टैबलेट का उपयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है। इस तीव्र प्रमाणीकरण पद्धति से एकत्रित आँकड़ों की उच्च गुणवत्ता बनी रहती है। सभी प्रमाणीकरण कार्य वास्तविक समय (Real Time) में किये जाते हैं। आँकड़े एकत्रित करने वाली मशीनरी वास्तविक समय में उच्च गुणवत्ता वाले डेटा के वितरण को सुनिश्चित करती है ताकि किसी भी प्रकार की अशुद्धियों को समय रहते ठीक किया जा सके। एक बार आँकड़े एकत्र करने और वास्तविक समय में मान्य होने के बाद अनुमानों के लिये यह बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के स्वचालित रूप से लागू हो जाते हैं।

  • 2016 में CMIE ने CPHS में रोज़गार और बेरोज़गारी से संबंधित प्रश्न जोड़े। तब से CMIE नियमित रूप से श्रम बाज़ार संकेतक उपलब्ध करा रहा है और इन्हें सार्वजनिक उपयोग के लिये स्वतंत्र रूप से उपलब्ध करा रहा है।

CPHS और NSSO सर्वेक्षण के बीच कुछ बुनियादी अंतर हैं। जहाँ NSSO एक वर्ष के लिये एक सप्ताह पहले तक की स्थिति को शामिल करने का प्रयास करता है, वहीं CPHS सर्वेक्षण के दिन की स्थिति को भी शामिल कर लेता है। यह इन चार कारकों में से कोई एक हो सकता है:

  1. नियोजित रोज़गार
  2. बेरोज़गार काम करने को तैयार हैं और सक्रिय रूप से नौकरी तलाश रहे हैं
  3. बेरोज़गार काम करने के लिये तैयार हैं लेकिन सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में नहीं हैं
  4. बेरोज़गार हैं, लेकिन न तो काम करने के लिये तैयार हैं और न ही नौकरी तलाश रहे हैं

चूँकि CPHS में सर्वेक्षण के दिन तक का डेटा लिया जाता है, जैसे कि दिहाड़ी मज़दूरों के मामले में तत्काल पूर्ववर्ती दिन के साथ प्राथमिक वर्गीकरण होता है, इसलिये यह परिस्थितियों को सही ढंग से परिलक्षित करता है। इसके विपरीत, NSSO की सर्वेक्षण प्रणाली काफी जटिल है।

बड़े CPHS नमूने को 16 सप्ताह के निष्पादन चक्र के तहत प्रत्येक सप्ताह ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में समान रूप से वितरित किया जाता है। यह ऐसी मशीनरी है जो हमें भारतीय श्रम बाज़ार को जल्द समझने में सक्षम बनाती है।

सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडिया इकोनॉमी (Centre for Monitoring India Economy-CMIE) एक निजी उद्यम है। इसने जो डेटा जुटाया है उससे पता चलता है कि पिछले तीन वर्षों में बेरोज़गारी में तेज़ी से वृद्धि हुई है और ऐसे में SDDS के अनुपालन के तहत बेरोज़गारी पर आँकड़े न जुटाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता।

विमुद्रीकरण से बेरोज़गारी में हुआ इज़ाफा

  • भारत की श्रम भागीदारी की दर वैश्विक मानकों से बहुत कम है तथा इसमें विमुद्रीकरण के बाद और गिरावट दर्ज की गई है।
  • जनवरी-अक्तूबर 2016 के दौरान भारत की औसत श्रम भागीदारी दर 47% थी, जबकि विश्व श्रम भागीदारी का औसत लगभग 66% है।
  • नवंबर 2016 में विमुद्रीकरण के तुरंत बाद भारत की श्रम भागीदारी दर 45% तक गिर गई, कार्यशील आयु वर्ग जनसंख्या का 2%, यानी लगभग 13 मिलियन श्रम बाज़ारों से बाहर निकल गया।
  • यह वे लोग हैं जो काम करने के इच्छुक थे और श्रम से जुड़े काम के अलावा कोई और काम नहीं करना चाहते थे।
  • आँकड़े यह दर्शाते हैं कि ये ऐसे कर्मचारी नहीं थे जो अपनी नौकरी गँवा बैठे थे और काम नहीं करने का फैसला कर चुके थे।
  • इसमें नौकरीपेशा वर्ग था जो ज़्यादातर अपनी नौकरी को बनाए रखने में सफल रहा था,लेकिन श्रमिक वर्ग काफी हद तक बेरोज़गार था।
  • विमुद्रीकरण के बाद श्रमिक वर्ग को लगने लगा था कि उनके लिये अब कोई काम नहीं बचा है, इसलिये उन्होंने आगे कोई रोज़गार तलाशना छोड़ दिया। उन्होंने विमुद्रीकरण के बाद रोज़गार पाने की उम्मीद ही छोड़ दी।
  • जैसे-जैसे बेरोज़गार श्रम बाज़ारको छोड़ते गए, वैसे-वैसे बेरोज़गारी की दर गिरती गई। बेरोज़गारी की दर कुल श्रम शक्ति के लिये बेरोजगारों का अनुपात है।
  • लेकिन इस गिरावट ने भ्रामक संकेत दिये जिससे यह अर्थ लगाया गया कि बेरोज़गारी दर वास्तव में गिर रही थी, जबकि श्रम भागीदारी दर में यह गिरावट श्रम बाज़ारों से बेरोजगारों के पलायन का संकेतक था।

श्रम भागीदारी में महिलाओं की स्थिति

  • भारत की महिला श्रम भागीदारी दर पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम है।
  • आधिकारिक आँकड़ों से लगातार यह जाहिर होता रहा है कि भारत की महिला श्रम भागीदारी दर कम है और लगातार गिर रही है।
  • शोधकर्त्ताओं ने भी दर्शाया है कि यह गिरावट बढ़ती घरेलू आय के कारण है जो श्रम बल में महिलाओं के शामिल होने की आवश्यकता को कम करती है।
  • उच्च शिक्षा की ओर महिलाओं का रुझान बढ़ना भी श्रम शक्ति में इनके प्रवेश में विलंब का एक कारण है।
  • कुछ सांस्कृतिक और सुरक्षा कारक भी हैं, जो महिलाओं को श्रम बाजार से दूर रखने का काम करते हैं।
  • इसके अलावा, नियोक्ता भी महिलाओं को काम पर रखने में भेदभाव करते हैं।

CHPS दर्शाता है कि श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी की स्थिति आधिकारिक एजेंसियों के दिये गए आँकड़ों से कहीं अधिक खराब है। विमुद्रीकरण का बड़ा खामियाजा महिलाओं को उठाना पड़ा। उनकी श्रम भागीदारी में तेज़ी से कमी आई, जबकि पुरुषों के मामले में कोई बड़ा अंतर नही आया। विमुद्रीकरण के तुरंत बाद जुलाई 2017 में GST लागू हुआ और इसकी वज़ह से ऐसे छोटे उद्यम बाहर हो गए जो GST के माहौल में प्रतिस्पर्द्धा कर पाने में अक्षम थे । इससे रोज़गार के अवसरों की संख्या भी कम हुई।

बड़े पैमाने पर कम हुए रोज़गार

प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार 2018 में कुल रोज़गार संख्या में 11 मिलियन की कमी आई है। इसका खामियाजा भी बड़े पैमाने पर महिलाओं को ही भुगतना पड़ा, जबकि पुरुष वर्ग पर भी इसका अच्छा-खासा प्रभाव पड़ा।

  • 2016 में पुरुष श्रम भागीदारी दर 74.5% थी, जो 2017 में घटकर 72.4% और 2018 में 71.7% रह गई।
  • इसके विपरीत महिला श्रम भागीदारी 2016 में केवल 15.5% थी, जो 2017 में घटकर 11.9% और फिर 2018 में 11% रह गई।
  • शहरी महिला श्रम भागीदारी दर ग्रामीण महिला भागीदारी की तुलना में तेजी से गिरी। शहरी भारत में यह 2016 में 15.2% से गिरकर 2018 में 10.5% रह गई, जबकि इसी अवधि में ग्रामीण महिलाओं में यह दर क्रमशः 15.6% और 11.3% थी।
  • यद्यपि पुरुष भागीदारी की तुलना में महिला श्रम भागीदारी काफी कम है, लेकिन फिर भी जो महिलाएँ/ रोज़गार पाना चाहती हैं, उन्हें पुरुषों की तुलना में नौकरी ढूंढने में अधिक प्रयास करना पड़ता है।
  • 2018 में पुरुषों के लिये बेरोज़गारी दर 4.9% थी जबकि इसी अवधि में महिलाओं के लिये यह दर 14.9% थी।
  • बेहद कम भागीदारी दर के बावजूद महिलाओं की यह उच्च बेरोज़गारी दर उन्हें रोज़गार देने के मामले में भेदभाव और पूर्वाग्रह की ओर संकेत करती है।
  • भारत यदि जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाना चाहता है तो हमें महिलाओं की राह में श्रम भागीदारी के स्तर पर आने वाली बाधाओं को दूर कर श्रम बल में वैश्विक मानकों के करीब लाना होगा। अवसर की यह खिड़की केवल 2030 तक खुली है।

CMIE का डेटा यह भी दर्शाता है कि बेरोज़गारी में वृद्धि के साथ-साथ श्रम भागीदारी दर में भी गिरावट आई है। लेकिन एक अच्छी डेटा मॉनीटरिंग मशीनरी का उपयोग न करके से भारत सरकार स्वयं को और देश के नागरिकों को अँधेरे में रख रही है।

स्रोत: 9 फरवरी को The Hindu में प्रकाशित लेख Surveying India’s Unemployment Numbers पर आधारित