वनों से आदिवासियों की बेदखली का मुद्दा | 26 Feb 2019

संदर्भ

20 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने एक लिखित आदेश जारी कर 16 राज्यों को लगभग 12 लाख जनजातीय और वन निवासियों को 27 जुलाई से पहले जंगल से बाहर निकालने को कहा है। इस आदेश के मुताबिक, जिन परिवारों के वन भूमि स्वामित्व के दावों को खारिज कर दिया गया था, उन्हें राज्यों द्वारा इस मामले की अगली सुनवाई से पहले तक बेदखल कर देना है। सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार अधिनियम 2006 (Forest Rights Act 2006) के तहत दिये गए अपने आदेश में वन क्षेत्र पर वनवासियों के अधिकार के दावे को खारिज कर दिया। इस अधिनियम का पूरा नाम अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 है।

क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?

तीन जजों की बेंच ने उन राज्यों के मुख्य सचिवों को इन वनवासियों को 24 जुलाई, 2019 तक या उससे पहले ही वनों से बेदखल करने का आदेश दिया है, जिनके दावों को खारिज किया गया है। जस्टिस अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने 16 राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी कर कहा कि वे ऐसी लाखों हेक्टेयर ज़मीन को कब्ज़े से मुक्त कराकर अदालत को इसकी जानकारी दें। जंगलों और अभयारण्यों में अतिक्रमण की समस्या बेहद जटिल है और कई मामलों में कब्ज़ाधारक अपने मालिकाना हक को साबित करने में असफल रहे हैं। कोर्ट ने कहा कि अवैध घुसपैठियों को अब तक निकाला क्यों नहीं गया...ऐसे लोगों को तत्काल वहाँ से निकाला जाए।

गौरतलब है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 29 जनवरी, 2016 और 7 मार्च, 2018 को दिये अपने आदेशों में भी अवैध रूप से रहने वाले वन/आदिवासियों को जंगलों से बेदखल करने को कहा था।

मामला क्या है?

एक अनुमान के अनुसार, वर्तमान में देश के जंगलों में लगभग 10 करोड़ आदिवासी हैं। इनमें से लगभग 40 लाख सुरक्षित जंगलों (Reserved Forests) में रहते हैं, जो देश के कुल क्षेत्रफल का 5% है। जिन 17 राज्यों को ज़मीन खाली कराने के आदेश दिये गए हैं, उन्होंने 40 लाख परिवारों का 3-स्तरीय वेरिफिकेशन ग्राम सभाओं के माध्यम से कराया गया था, जिसके बाद यह जानकारी सामने आई कि इन 11.8 लाख आदिवासियों का जंगल की ज़मीन पर मालिकाना हक नहीं है। इस वेरिफिकेशन प्रक्रिया में सरकार द्वारा मान्य 13 दस्तावेज़ों में से कोई एक दिखाने को कहा गया था।

क्या होगा सुप्रीम कोर्ट के आदेश का असर?

देश के 21 राज्यों में अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes-STs) और अन्य पारंपरिक वनवासियों (Other Traditional Forest Dwellers-OTFDs) से संबंधित लाखों लोगों को वनों से बेदखल किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India-FSI) को एक सैटेलाइट सर्वेक्षण करने और जहाँ पर बेदखली हो चुकी है, वहाँ की ‘अतिक्रमणकारी स्थिति’ पर आँकड़े तैयार करने का भी आदेश दिया है।

भारतीय वन अधिनियम 1927

भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत सरकार और वन विभाग को वनों के किसी भी क्षेत्र को रक्षित (Reserved) व संरक्षित करने के लिये अधिसूचित करने का अधिकार है। इसी कानून के तहत रक्षित वनों को छोड़कर राज्य सरकार किसी भी वन भूमि को संरक्षित वन (Protected Forests) घोषित कर सकती है।

इन वनों के संसाधनों का इस्तेमाल राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित है और जो वन ग्रामीण समुदाय के नियंत्रण में हैं, उन्हें इस कानून के तहत ग्राम वन (Village Forest) माना गया है। वनों के संरक्षण को लेकर 1980 तक वन अधिनयम, 1927 ही चलन में था, लेकिन जब वनों की अंधाधुंध कटान होने लगी तब वन संरक्षण अधिनियम, 1980 का मसौदा तैयार हुआ। लेकिन 2005 तक यह मसौदा संसद में पेश नहीं हो सका। बाद में इसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया तथा मई 2006 में समिति की रिपोर्ट आने के बाद इस अधिनियम में अनेक संशोधन कर दिसंबर 2006 में इसे 'अनसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता)' कानून नाम से पारित किया गया। 1 जनवरी, 2008 से यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर भारत के सभी राज्यों में लागू हो गया।

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 की धारा-6 में राज्यों में अपीलीय समितियों के साथ-साथ ग्राम सभा के स्तर पर वन निवासियों के दावों की स्वीकृति या अस्वीकृति के लिये बहुस्तरीय एवं श्रेणीबद्ध प्रक्रिया को शामिल किया गया है। इस अधिनियम का उद्देश्य ऐसे वनवासियों के वन भूमि पर अधिकार और कब्ज़े को सुनिश्चित करना है, जो कई पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं, लेकिन इनके अधिकार दर्ज नहीं किये जा सके हैं।

प्रमुख विशेषताएँ

  • इस अधिनियम में न केवल आजीविका के लिये स्‍व–कृषि या निवास के लिये व्‍यक्ति विशेष या समान पेशा के तहत वन भूमि में रहने के अधिकार का प्रावधान है बल्कि यह वन संसाधनों पर उनका नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिये कई अन्‍य अधिकार भी देता है।
  • इनमें स्‍वामित्‍व का अधिकार, संग्रह तक पहुँच, लघु वन उपज का उपयोग व निपटान, निस्‍तार जैसे सामुदायिक अधिकार; आदिम जनजातीय समूहों तथा कृषि-पूर्व समुदायों के लिये निवास का अधिकार; ऐसे किसी सामुदायिक वन संसाधन जिसकी वे ठोस उपयोग के लिये पारंपरिक रूप से सुरक्षा या संरक्षण करते रहे हैं, विरोध, पुनर्निर्माण या संरक्षण या प्रबंधन का अधिकार शामिल है।
  • इस अधिनियम में ग्राम सभाओं की अनुशंसा के साथ विद्यालयों, चिकित्‍सालयों, उचित दर की दुकानों, बिजली तथा दूरसंचार लाइनों, पानी की टंकियों आदि जैसे सरकार द्वारा प्रबंधित जन उपयोग सुविधाओं के लिये वन जीवन के उपयोग का भी प्रावधान है।
  • इसके अतिरिक्‍त जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा आदिवासी लोगों के लाभ के लिये कई योजनाएँ भी क्रियान्वित की गई हैं। इनमें वन क्षेत्रों के लिये न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य के ज़रिये लघु वन उपज के विपणन हेतु तंत्र तथा वैल्‍यू चेन के विकास जैसी योजनाएँ भी शामिल हैं।
  • वन ग्रामों के विकास के लिये संपर्क, सड़कों, स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल, प्राथमिक शिक्षा, लघु सिंचाई, वर्षा जल खेती, पीने के पानी, स्‍वच्‍छता, समुदाय हॉल जैसी बुनियादी सेवाओं तथा सुविधाओं से संबंधित ढाँचागत कार्यों के लिये जनजातीय उप-योजना के लिये विशेष केंद्रीय सहायता से फंड जारी किया जाता है।
  • इस अधिनियम की धारा 3 (1)(h) के तहत वन्य गाँव, पुराने आबादी वाले क्षेत्रों, बिना सर्वेक्षण वाले गाँव तथा वन क्षेत्र के अन्य गाँवों (चाहे वह राजस्व गाँव के रूप में अधिसूचित हों या नहीं) के स्थापन एवं परिवर्तन का अधिकार यहाँ रहने वाले सभी अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पारंपरिक वन निवासियों को प्राप्त है।
  • अधिनियम के प्रावधानों और बनाए गए नियमों के मुताबिक अन्य कानूनों की तरह ही वन्य गाँवों को राजस्व गाँवों में परिवर्तित करने के वन अधिकार ग्राम सभा, उप मंडल स्तरीय समिति और ज़िला स्तरीय समिति के क्षेत्राधिकार में आते हैं।

नियमगिरि के डोंगरिया कोंध आदिवासियों का मामला

ओडिशा के लांजीगढ़, क़ालाहांडी और रायगढ़ ज़िलों में नियमगिरि पहाड़ी पर ओडिशा खनन निगम लिमिटेड और स्टरलाइट बॉक्साइट की संयुक्त खनन परियोजना लगाना चाहते थे। लेकिन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने ओड़िशा की नियमगिरि पहाड़ी पर ब्रिटेन की वेदांता कंपनी (स्टरलाइट) की बॉक्साइट खनन परियोजना को 2010 में नामंज़ूर कर दिया था। जब यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा तो अपने देवता की उपासना करने के नियमगिरि के डोंगरिया कोंध आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा किये जाने का समर्थन करते हुए इस खनन परियोजना पर जंगलों में रहने वाले मूल निवासियों से रायशुमारी (जनमत संग्रह) करवाने का आदेश दिया था। इस रायशुमारी के लिये चुनी गई सभी 12 ग्राम सभाओं (पल्ली) ने इस परियोजना को खारिज कर दिया था।

दरअसल, कालाहांडी ज़िले में नियमगिरि और इसके आसपास रहने वाले डोंगरिया कोंध आदिवासी समुदाय की श्रद्धा इस पहाड़ के साथ जुड़ी है। डोंगरिया कोंध उन विरली जनजातियों में है, जिन्हें सबसे आदिम माना जाता है। इनकी आबादी अब तकरीबन 8,000 रह गई है। विकास की मुख्यधारा से दूर यह जनजाति ओडिशा के कालाहांडी और रायगढ़ के इलाके में नियमगिरि पहाड़ी पर बसी हुई है। वन उपज पर आश्रित इस जनजाति के लिये नियमगिरि ही सब कुछ है, जीने के संसाधन से लेकर सांस्कृतिक अनुष्ठान और मोक्ष की प्रार्थना तक। नियमगिरि उनके लिये इष्ट देवता हैं, वह उन्हें नियमगिरि राजा भी कहते हैं।

अनुसूचित वन/जनजातियों के लिये मिशन वन धन

इसमें कोई संशय नहीं कि पिछले कई दशकों में विकास के लिये आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर उनके साथ छल किया गया है। उन्हें उनके जंगल-ज़मीन से विस्थापित कर उनकी प्रकृति और पर्यावरण का विनाश किया गया है। उनके जंगलों में मौजूद संसाधनों का फायदा चाहे किसी को भी मिला हो, आदिवासियों को नहीं मिला है। यही कारण है कि मुख्यधारा में शामिल करने के वादों को आदिवासी समाज एक फरेब के तौर पर देखता है। विकास ज़रूरी है, लेकिन यह स्थानीय समुदायों की सहभागिता से ही संभव है। इसके लिये ज़रूरी है कि आदिवासियों को विकास का लाभ प्राप्त करने वालों की जगह विकास के साझीदार के तौर पर देखा जाए।

अनुसूचित जनजातियों के समुदाय देश के लगभग 15 प्रतिशत क्षेत्र में रहते हैं। ये विभिन्न पारिस्थितिकीय और भू-जलवायु वाले पर्यावरण वाले क्षेत्र हैं, जिनमें मैदानी इलाकों के अलावा दुर्गम वन क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र भी शामिल हैं। जनजातीय कार्य मंत्रालय इन समुदायों के लिये जन धन, वन धन तथा गोवर्धन योजनाओं को मिलाकर देश के जनजातीय जिलों में वन धन विकास केंद्र बनाने की योजना चला रहा है।

  • 14 अप्रैल, 2018 को छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले में वन धन पायलट परियोजना की शुरुआत हुई थी।
  • यह योजना केंद्रीय स्‍तर पर महत्त्वपूर्ण विभाग के तौर पर जनजातीय कार्य मंत्रालय और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर महत्त्वपूर्ण एजेंसी के रूप में ट्राइफेड के माध्‍यम से लागू की जा रही है।
  • इस पहल का उद्देश्‍य जनजातीय समुदाय के वनोत्‍पाद एकत्रित करने वालों और कारीगरों के आजीविका आधारित विकास को बढ़ावा देना है।
  • गौरतलब है कि गैर-लकड़ी वनोत्पाद देश के लगभग 5 करोड़ जनजातीय लोगों की आय और आजीविका का प्राथमिक स्रोत है।
  • देश में अधिकतर जनजातीय ज़िले वन क्षेत्रों में हैं और जनजातीय समुदाय पारंपरिक प्रक्रियाओं से गैर-लकड़ी वनोत्पाद एकत्रित करने और उनके मूल्यवर्द्धन में पारंगत होते हैं।
  • इस पहल के अंतर्गत कवर किये जाने वाले प्रमुख गौण वनोत्‍पादों की सूची में इमली, महुआ के फूल, महुआ के बीज, पहाड़ी झाड़ू, चिरौंजी, शहद, साल के बीज, साल की पत्तियाँ, बाँस, आम (अमचूर), आँवला (चूरन/कैंडी), तेज़पात, इलायची, काली मिर्च, हल्दी, सौंठ, दालचीनी, आदि शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला वन अधिकार अधिनियम, 2006 के खिलाफ दायर याचिका के पक्ष में आया है। कोर्ट ने आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल को अवैध रूप से जंगलों में रहने वालों को बेदखल करने का आदेश दिया है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा एकत्रित दिसंबर 2018 तक के आँकड़ों के अनुसार जनजातीय व वनवासियों द्वारा दाखिल 42.19 लाख दावों में से केवल 18.89 लाख ही स्वीकार किये गए थे।

स्रोत: The Hindu, The Indian Express और PIB से मिली जानकारी पर आधारित।